सूफी शांति और शिया-सुन्नी क्रांति
प्रेम शुक्ल
मध्य एशिया समेत पूरा ‘इस्लामी डायसपोरा’ हिंसा की जद में है। पाकिस्तान से लेकर फिलिस्तीन और इजिप्ट तक ऐसा कोई कोना नहीं, जो हिंसा की आग में जल नहीं रहा हो। पाकिस्तान में आए दिन बम धमाके हो रहे हैं। वहाबी सुन्नी को मार डालना चाहता है। सुन्नी शिया के खिलाफ खड़ा है। शिया, जिकरियों और बहाइयों को कौम बाहर करने पर आमादा है। अहमदिया होना तो काफिरों से भी ज्यादा हराम काम है। ऐसे में ‘इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक एंड अल शाम’ (सीरिया) जिसे ‘आइसिस’ या ‘आईएसआईएस’ भी पढ़ सकते हैं, का उद्भव इस्लामी आतंक उत्कर्ष है।
मुस्लिम विश्व का नेतृत्व कौन करेगा?
इस्लामी आतंकवाद के इतिहास में पहला आतंकी संगठन ‘हिजबुल्ला’ को माना जाता है। ‘हिजबुल्ला’ ईरान समर्थित था। शिया फिरके का मुख्यालय ईरान है। ईरान का प्रभाव तमाम शिया देशों में पड़ रहा था।
तब वहाबी सुन्नियों की संख्या बेहद कम थी। बरेलवी, नक्शबंदी और हन्फी सुन्नियों की बहुसंख्यक जमात के समक्ष सब छोटे-छोटे फिरके लगते थे। ‘हिजबुल्ला’ अमेरिका को इस्राइल के मामले में चुनौती देता था। तब इराक का सुन्नी शासक सद्दाम हुसैन अमेरिका और यूरोप को अपने करीब लगता था। जब ईरान में अयातुल्ला खुमैनी के नेतृत्व में कट्टरवाद की इस्लामी क्रांति हो रही थी तब सद्दाम हुसैन की ‘बाथ’ पार्टी पश्चिम को समाजवादी और सेक्युलर नजर आती थी। कालांतर में समीकरण बदले। मुस्लिम विश्व का नेतृत्व कौन करेगा? शिया या सुन्नी, इस बात को लेकर ही इराक और ईरान में जंग थी। सद्दाम हुसैन जैसे ही कुवैत की ओर बढ़े और अमेरिका को लगा कि अब सऊदी अरेबिया का वहाबी इस्लाम उनके लिए ज्यादा कामिल है तो इराक के खिलाफ अमेरिका की जंग छिड़ गई। 1980, 1990 और 2000 के दशक में वहाबी सऊदी अरेबिया यूरोप और अमेरिका का विश्वसनीय साथी था। इस्लामी विश्व को वहाबी सऊदी के नेतृत्व में मुतमईन करना तब अमेरिका और यूरोप का हित था। इसलिए वहाबी इस्लाम के कट्टरवादी तत्वों को आतंक की ट्रेनिंग दी गई। इन्हीं के बलबूते अफगानिस्तान में सोवियत संघ को हराया गया।
सूफी शांति और सुन्नी क्रांति
सोवियत संघ को हराने का धन-बल सऊदी अरेबिया से मिला था। हथियार बल अमेरिका ने उपलब्ध कराया था और योद्धा बल पाकिस्तान के हवाले था। धन-बल के साथ-साथ सऊदी अरेबिया ने वहाबी कट्टरता भी पाकिस्तान को सुपुर्द कर दी। पाकिस्तान को वहाबी कट्टरता के रंग में रंगकर सूफी शांति और सुन्नी क्रांति को आतिशी बनाने का धंधा पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी ‘आईएसआई’ ने शुरू किया। लड़ाकों की जो फौज खड़ी हुई तो कश्मीर से लेकर कंधार तक एक इस्लामी आतंकवाद की प्रयोगशाला बन गई। इस प्रयोगशाला ने अंतत: अमेरिकी वैभव के प्रतीक ‘वल्र्ड ट्रेड सेंटर’ को ढहा दिया। अमेरिकी बल के प्रतीक ‘पेंटागन’ को निशाने पर ले लिया। और अमेरिकी प्रभुसत्ता के मुख्यालय ‘व्हाईट हाउस’ को भयभीत कर दिया। इस भय के चलते पहली बार अमेरिका और यूरोप वहाबी कट्टरता के मर्म को समझने के लिए मजबूर हुए।
दुनिया आतंक से मुक्त नहीं
बीते 12 वर्षों में ‘नाटो’ और उसके साथी देशों ने इस्लामी आतंकवाद के भय को एशिया तक सीमित कर दिया है। दक्षिण अमेरिकी देश ब्राजील में फुटबॉल का वल्र्ड कप हो रहा है। किसी को भी आतंकी हमले का भय नहीं है। उत्तरी अमेरिका में कल ओलिंपिक करा लिया जाए। आतंकी परिंदे वहां पर नहीं मार सकते। ऑस्ट्रेलिया में भी नस्ल भेदी हिंसा की गुंजाइश है पर इस्लामी आतंकवाद का भय नहीं। लेकिन दुनिया को मध्य एशिया से लेकर दक्षिण एशिया तक के इलाके में आतंकवाद से मुक्ति का कोई मार्ग नहीं दिखता। ‘आईएसआई’ से लेकर ‘आईएसआईएस’ तक पूरी दुनिया महफूज खुद को भले समझे, आतंक से मुक्त नहीं है। महफूज समझने का अधिकार पूर्वी एशिया को है। ऑस्ट्रेलिया को है, यूरोप को है, दक्षिण और उत्तर अमेरिका को है। किन्तु दक्षिण-मध्य एशिया को कदापि नहीं। इसका एकमेव कारण वहाबीकरण को मान्यता देना है। शिया आतंकवादी ‘हिजबुल्ला’ पैदा कर रहे थे। पर ‘हिजबुल्ला’ का टार्गेट कभी कोई इस्लामी देश नहीं था, कोई हिंदू देश नहीं था, कोई बौद्ध देश नहीं था, बल्कि इस्राइल को समर्थन देनेवाले देश उसके निशाने पर थे। तालिबान और अल-कायदा वहाबी इस्लाम के 1980, 1990 और 2000 के दशक के आतंकी चेहरे हैं। इन आतंकी चेहरों में किसी को भी किसी भी समय इस्लाम का विरोधी साबित कर मार देना फर्ज पाया। परिणामस्वरूप पूरी दुनिया में इस्लामी आतंकवाद का नंगा नाच हुआ।
ओबामा युद्ध छेडऩा नहीं चाहते
गोरी नस्लवालों ने अपनी रक्षा का इंतजाम कर लिया, लेकिन जहां इस आतंकवाद को पलने-बढऩे का अवसर मिला, वहीं इस आतंकवाद ने अपना आतिशी रंग दिखाया। अल-कायदा सऊदी अरेबिया के लिए भी 2001 के बाद अस्पृश्य हो गया था। इराक की सुन्नी हुकूमत को अफगानिस्तान के तालिबान से कोई सहानुभूति भी नहीं हो सकती थी। किन्तु अमेरिका ने सुन्नी इराक को वहाबी अल-कायदा का समर्थक प्रचारित कर वहां सेना घुसा दी। आज इराक 3 हिस्सों में बंटा है। एक हिस्सा शिया जमात से आनेवाले प्रधानमंत्री नूर-अल-मालिकी के प्रभाव में है। दूसरा हिस्सा कुर्दिस्तान बन चुका है। कुर्दिस्तान भी शिया बहुल है। और तीसरा इलाका ‘आईएसआईएस’ के कब्जे में है। ‘आईएसआईज्’ का नेतृत्व वहाबियों के हाथ में है। वह इराक और सीरिया के वहाबी और सुन्नी बहुल इलाकों को अपने नियंत्रण में लेना चाहता है। अमेरिका भी इन बागियों में जो नापसंद हैं उन्हें मारकर शेष को सऊदी अरेबिया के प्रश्रय में विखंडित देखना चाहेगा। सीरिया में अमेरिका सीधी कार्रवाई नहीं कर सकता। ईरान, सीरिया की कार्रवाई के खिलाफ खड़ा है। फिलहाल, बराक ओबामा प्रशासन युद्ध छेडऩा नहीं चाहेगा। इसलिए ईरान भी उसके राजनय की सूची में है। ईरान बगदाद में शिया शासन का हामी है। बगदाद और कुर्दिस्तान के बीच में संबंध बिगड़े तो टर्की ने कुर्दिस्तान से 50 वर्षों तक तेल सौदा कर कुर्दिस्तान को मजबूत बना दिया है। ‘आईएसआईज्’ ने कत्लेआम इराक हुकूमत के इलाकों में किया है। किन्तु कुर्दिस्तान की एक लाख संख्या वाली फौज के सामने वह निष्प्रभ साबित हुआ है।
इस्लामी आतंकवाद का सफरनामा
‘आईएसआई’ ने रमदी, अलबू बाली, अल-मुलाहमा, जजीरत अल खलदिया जैसे इलाकों पर पहले ही कब्जा कर लिया था। अब मोसुल उसके कब्जे में है। मोसुल तेल समृद्ध इलाका है। इसलिए ‘आइसिस’ यदि इस पर नियंत्रण बना पाए तो फल्लुजा के बाद मोसुल उसके कब्जे में होना रणनीतिक और समृद्धि की दृष्टि से ‘आइसिस’ यानी ‘इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक एंड सीरिया’ की संकल्पना करने में सहायक है। इन दिनों इराक का नाम ‘इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक’ यानी आईएसआई और ‘आईएसआईएस’ दो पड़ोसी प्रांत हो सकते हैं।
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