विश्व हिन्दू परिषद की केन्द्रीय प्रबन्ध समिति की बैठक पिछले दिनों हिमाचल प्रदेश में ज्वालामुखी के स्थान पर हुई । हिमाचल प्रदेश में परिषद की यह बैठक लगभग अढाई दशकों बाद हो रही थी ।
उसमें भारत के हिन्दुओं का उल्लेख ही नहीं है बल्कि इस संघर्ष में उनके विजयी होकर निकलने की संभावना भी व्यक्त की जा रही है ।इसी पृष्ठभूमि में विश्व हिन्दू परिषद के इस चिन्तन प्रवाह को देखना समझना होगा । विश्व हिन्दू परिषद संसार भर में फैले हिन्दुओं के सामाजिक सांस्कृतिक पक्ष में कार्य कर रही है । इस्लाम के दिन प्रतिदिन आक्रामक हो रहे स्वभाव और नीति के चलते विश्व भर के हिन्दुओं के लिये मिल बैठ कर एक रणनीति बनाना ठीक रहेगा । भारत में मुग़ल वंश के समाप्त हो जाने के बाद लगता था कि इस देश के ख़िलाफ़ इस्लाम का आक्रामक रवैया समाप्त हो जायेगा । इसे दुर्भाग्य ही कहना होगा कि वह समाप्त नहीं हुआ , अलबत्ता चर्च का भयानक दौर भारत में शुरु हो गया । इस्लाम ने तलवार से और चर्च ने धोखे और लालच से भारत में मतान्तरण के माध्यम से विसंस्कृतिकरण का आन्दोलन चलाया । इस्लाम ने एक बार फिर भारत में वही मध्ययुगीन रास्ता अख़्तियार कर लिया लगता है । फ़र्क़ केवल इतना है कि इस बार तलवार के स्थान पर बम और एके ४७ है । रहा सवाल चर्च का , उसने धोखे से शिकार करना कभी छोड़ा ही नहीं था ।
ऐसे वातावरण में और इन गम्भीर चुनौतियों के सामने भारत का हिन्दू समाज क्या करे ? इस पर विश्व हिन्दू परिषद विचार नहीं करेगा तो और कौन करेगा ? लेकिन विश्व हिन्दू परिषद को इस चुनौती का राजनैतिक उत्तर नहीं तलाशना है । उसे तो इस चुनौती का सामाजिक और सांस्कृतिक उत्तर ही तलाशना होगा । परिषद के संस्थापक महासचिव दादा साहिब आप्टे इसे अच्छी तरह जानते थे । इस लिये उनका मत था कि इन चुनौतियों का राजनैतिक उत्तर हिन्दू समाज को बचा नहीं पायेगा । यदि सही सामाजिक सांस्कृतिक उत्तर तलाश लिये गये तो हिन्दू समाज समय के क़दम से क़दम मिलाता हुआ आगे बढ़ता ही नहीं जायेगा बल्कि युगानुकूल विश्व के संस्कृतिकरण में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका भी निभायेगा । यह हिन्दू समाज का सामाजिक ताना बाना ही था कि वह हज़ार साल तक इस्लाम और चर्च के आक्रमणों का सामना , बिना किसी बड़ी क्षति के कर सका । हिन्दू समाज सदा से गतिशील रहा है । इसमें दार्शनिक प्रश्नों पर तो बहस होती है और मत भिन्नता होने के कारण अलग अलग दार्शनिक समुदाय भी जन्म लेते रहते हैं । कालान्तर में यही दार्शनिक सम्मुदाय विभिन्न सम्प्रदायों का रुप भी धारण कर लेते हैं । लेकिन यह मत भिन्नता हिन्दू समाज की गतिशीलता को बनाय रखती है और उसमें जड़ता को व्याप्त नहीं होने देती । हिन्दू समाज की यह गतिशीलता ही उसकी जीवन्तता और प्राण शक्ति है ।
१९६४ में विश्व हिन्दू परिषद की स्थापना के समय कांग्रेस , अकाली दल के अतिरिक्त अन्य भिन्न राजनैतिक विचारधाराओं के विद्वान भी मुम्बई की बैठक में उपस्थित थे । लेकिन वे उस बैठक में किसी राजनैतिक दल के प्रतिनिधि के रुप में एकत्रित नहीं हुये थे बल्कि वे समग्र हिन्दू समाज के प्रतिनिधि के रुप में ही एक स्थान पर दुनिया भर में हिन्दुओं को दरपेश समस्याओं से सामना करने के लिये एक आसन पर बैठे थे । यदि उन्हें इसके राजनैतिक उत्तर ही तलाशने होते तो उन सभी का एक आसन पर आ पाना ही सम्भव न होता । राजनीति किसी भी समाज अथवा राष्ट्रजीवन का एक पक्ष होता है लेकिन उससे भी महत्वपूर्ण होता है उस समाज का सामाजिक और सांस्कृतिक पक्ष । वह सामाजिक-सांस्कृतिक पक्ष राजनैतिक पक्ष से कहीं ज़्यादा प्रभावी और व्यापक होता है । विश्व हिन्दू परिषद का कार्यक्षेत्र हिन्दू समाज का यही पक्ष है । दुर्भाग्य से इसी क्षेत्र में अनेक रोग लग चुके हैं । जाति के आधार पर भेद भाव और अस्पृश्यता तो हिन्दू समाज का पुराना राजरोग है । लेकिन इसके अतिरिक्त भी अनेक नये रोग घर करते जा रहे हैं । समाज में जिस दर से गतिशीलता बढ़ी है उस दर से समाज चलने को तैयार नहीं है या फिर चलने में समर्थ नहीं है । हिन्दू या भारतीय समाज की जीवन रेखा संस्कृत भाषा पूरे सामाजिक शैक्षिक परिदृश्य से विलुप्त होती जा रही है । सांस्कृतिक प्रतीक गाय का अस्तित्व ही ख़तरे में पड़ता जा रहा है । देश की राजनैतिक सत्ता , हिन्दू समाज के सांस्कृतिक केन्द्र मंदिरों को अपने शिकंजे में ले रही है । हिन्दू समाज के सामाजिक प्रश्नों पर भी निर्णय राजनैतिक प्रतिष्ठान ले रहे हैं । एक प्रकार से हिन्दू समाज के सांस्कृतिक क्षेत्र में भी राजनैतिक अतिक्रमण की शुरुआत जो विदेशी शासन के समय प्रारम्भ हुई थी वह अभी तक समाप्त नहीं हुई है । इसका उत्तर हिन्दू समाज के भीतर के रोगों को समाप्त कर उसे सामाजिक सांस्कृतिक दृष्टि से स्वस्थ्य सबल बनाना होगा । इसी के लिये आज हिन्दू समाज को सागर मंथन की जरुरत है ताकि भीतर का ज़हर निकाल दिया जाये । विश्व हिन्दू परिषद ने इस सागर मंथन के लिये ज्वालामुखी को चुना यह निश्चय ही अभिनन्दनीय है । बैठक के बाद यह आशा बन्धी है कि परिषद हिन्दू समाज की भीतरी शक्ति को जागृत करेगी ताकि वह सभ्यताओं के संघर्ष से पैदा होने वाले प्रश्नों का उत्तर दे सके ।