*”व्यक्ति सुबह जब से जागता है, तभी से वह बोलना आरंभ कर देता है। और रात्रि को सोने तक पूरे दिन वह बोलता ही रहता है। जो भी व्यक्ति उसे मिलता है, उसी के साथ वह कुछ न कुछ बातें करता ही रहता है।”*
प्रायः लोगों में एक प्रवृत्ति और देखी जाती है, कि *”वे सुनना कम चाहते हैं, और बोलना अधिक चाहते हैं।”* अनेक वक्ता तो जब माइक पकड़ लेते हैं, तो उसे छोड़ते ही नहीं। तब अनेक श्रोता तो अपने पड़ोसी को यहां तक भी कहते हैं, *”इसको बोलने की बीमारी है. अब देखना, आधे घंटे तक यह माइक छोड़ेगा ही नहीं।”* उनके अंदर भी वही मनोवृत्ति काम करती है, कि *”बस मैं बोलूं और लोग मुझे सुनें।”* ऐसा क्यों है? इसके पीछे एक मनोवैज्ञानिक कारण है।
उनके मन में ऐसा होता है, कि *”लोग मेरी बातें सुनकर मेरी बुद्धिमत्ता से प्रभावित होंगे, और मन ही मन मेरी प्रशंसा करेंगे। हो सकता है, कोई मुंह से भी कह दे, कि “क्या बात है! आप तो बड़े बुद्धिमान हैं, कितनी बढ़िया बातें बताते हैं।”* इस प्रकार से अपने विषय में प्रशंसा सुनने की इच्छा प्रायः सभी को होती है। इसी मनोवृति के कारण प्रायः सभी लोग बोलना अधिक और सुनना कम पसंद करते हैं।
यहां तक कि अपनी प्रशंसा सुनने के चक्कर में अधिकांश लोग बहुत बार सभ्यता को भी भूल जाते हैं। सभ्यता का नियम यह है, कि *”जब अपने से बड़ा व्यक्ति सामने हो, तब बोलना कम और सुनना अधिक चाहिए।”* बड़े का मतलब — जो आप से अधिक योग्य हो। किसी भी विद्या में (गणित विज्ञान संगीत भूगोल खगोल दर्शन शास्त्र आदि विषयों में) कोई व्यक्ति यदि आप से अधिक जानता है, तो उस विद्या में वह आप से बड़ा है, उम्र में भले ही आप से छोटा हो। *”वेदों और ऋषियों के अनुसार व्यक्ति उम्र से बड़ा नहीं माना जाता, बल्कि विद्या से बड़ा माना जाता है। ऐसे व्यक्ति के सामने बोलना कम चाहिए, और उसकी बात अधिक सुननी चाहिए।” “क्योंकि आपकी विद्या तो आपके पास है ही, उसे तो कोई छीन नहीं रहा। परंतु थोड़ी देर के लिए जो दूसरा व्यक्ति आपके सामने उपस्थित है, वह थोड़ी देर बाद आप से अलग हो जाएगा। आपको थोड़ी देर के लिए अवसर मिला है, उसकी विद्या से लाभ उठाने का। तो आपको वह अवसर खोना नहीं चाहिए।” “कितने ही लोग बड़े बड़े बुद्धिमान अधिकारियों से 5 मिनट बात करने के लिए उनसे कुछ सीखने के लिए हजारों रुपया तक खर्च करते हैं, और आपको सामने एक विद्वान व्यक्ति मुफ्त में कुछ सिखा रहा है, और आप सीखना नहीं चाहते। यह तो बुद्धिमत्ता की बात नहीं है।”*
बुद्धिमत्ता की बात तो यह है, कि *”जितनी देर भी वह आपके सामने है, उतनी देर आप उसे बोलने दें, और उसकी बातों को ध्यान पूर्वक सुनें। सुनकर उसकी विद्या से लाभ उठाएं। और जब आपके सामने कोई आप से छोटा हो अर्थात कम योग्य हो, तब बोलने की आपकी बारी है। उसके सामने आप बोलें। उसके सामने अपनी विद्या का प्रदर्शन करें और उससे प्रशंसा बटोर लें।”* इसी का नाम सभ्यता और बुद्धिमत्ता है।
यदि आप इससे उल्टा व्यवहार करेंगे, अर्थात किसी अपने से अधिक योग्य व्यक्ति के सामने अधिक बोलेंगे, तो इससे आपको दो हानियां होंगी। *”एक तो — वह आपसे अधिक बुद्धिमान या योग्य व्यक्ति आपको मूर्ख मानेगा। और दूसरी हानि यह होगी, कि उसकी विद्या से जो लाभ आप ले सकते थे, उस लाभ को आप खो देंगे।”*
*”इसलिए सभ्यता एवं बुद्धिमत्ता का प्रयोग करें। बड़ों के सामने बोलें कम, और सुनें अधिक। जब आपके सामने छोटे लोग हों, तब आप बोलें और वे सुनें। क्योंकि इसी से आपका और सबका सुख बढ़ेगा।”*
लेखक उगता भारत समाचार पत्र के चेयरमैन हैं।