भारत में 800 साल की मुसलमानी हुकूमत का भ्रम
विजय मोहन तिवारी
अभी दो ताजे वीडियो आए। पहला राजौरी की एक मस्जिद में एक मौलाना की मारक तकरीर का, जो “द कश्मीर फाइल्स’ से बौखलाया हुआ लगा और दूसरा एक जोशीले जवान का, जो प्रधानमंत्री और गृहमंत्री को गरिया रहा है। दोनों में एक बात बड़े जोर से कही गई-“हमने इस मुल्क पर 800 साल हुकूमत की।’ आप समझ गए होंगे कि ये वीडियो किन साहेबान के होंगे? मुमकिन है कि आपके मोबाइल पर भी किसी न किसी समूह में घूमते हुए ये आपने भी सुने हों। इनमें नया कुछ नहीं था। मेरा ध्यान 800 सालों पर अटका है।
यह वहम बड़े गजब का है, जिस पर खुलकर बात होनी चाहिए। जिसने भी मध्यकाल के इतिहास के समकालीन लेखकों के विवरण तफसील से पढ़े हैं, वह इस खोखले दावे की असलियत को ठीक से समझ सकता है। मैं पुन: दोहराना चाहूंगा कि समकालीन लेखकों के विवरण, न कि आजादी के बाद इतिहास लिखने के लिए लगाए गए दूषित बुद्धि और भाड़े के वामपंथी अधकचरे विद्वान। और ऐसे करीब 65 लेखक हैं, जिन्होंने बहुत विस्तार से दिल्ली पर तुर्कों के कब्जे के बाद हुए बदलावों पर हर सदी में जमकर लिखा है। अरबी और फारसी में लिखे गए इन ज्यादातर दस्तावेजों के पिछले डेढ़ सौ सालों में अलग-अलग भाषाओं में अनुवाद भी हो चुके हैं। इरफान हबीब बेहतर जानते हैं कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के अर्काइव में सब सुरक्षित हैं, जिनमें यह भी दर्ज है कि इनकी मूल प्रतियाँ देश और दुनिया की किन लाइब्रेरियों में महफूज हैं।
बड़े दुर्भाग्य की बात है कि ज्यादातर भारतीयों ने इन्हें पढ़ना तो दूर इनमें झांका भी नहीं है। मुसलमानों ने तो बिल्कुल ही नहीं। और थोड़ा-बहुत जो पढ़ा है वह आजादी के बाद लिखी गई कोर्स की व्यर्थ किताबें हैं, जिनसे फिजूल डिग्रियाँ टांगी गई हैं और जिनमें मनमाने ढंग से इतिहास की बेईमान रचना है। सेक्युलर सरकारों ने सच को सामने नहीं लाने दिया। वह उसकी उन घातक नीतियों के तहत एक सोची-समझी साजिश थी, जो तुष्टिकरण के रूप में बेनकाब है। खासकर मध्यकाल के इतिहास। जब सच्चाई छुपाई जाती है तो झूठ को पसरने का मौका मिलता है। एक झूठ को जड़ें जमाने के लिए 70 साल बहुत बड़ा अवसर हैं। इतने सालों में तो एक बीज वटवृक्ष बनकर फैल जाता है। 800 साल की हुकूमत एक ऐसा ही झूठ है, जो बीज से वृटवृक्ष बनकर बंजर दिमागों में ही तैर रहा है। हकीकत में कहीं है नहीं। किसी दावे या तर्क की जरूरत नहीं, असल इतिहास पढ़ो और खुद जान जाओ। बिंदुवार कुछ बातें-
1. 800 साल तक किसी ने कोई हुकूमत नहीं की। दिल्ली पर कब्जे का मतलब यह नहीं था कि बाकी भारत पर एक परचम और एक किताब की चल पड़ी हो। लाहौर-दिल्ली तक कब्जे को ही वे हमलावर हिंदुस्तान कहा करते थे जबकि असल हिंदुस्तान हिमालय के पहाड़ों में बसे अरुणाचल प्रदेश, उत्तराखंड, हिमाचल, कश्मीर और आज के बांग्लादेश की दूर समुद्र को छूती सरहदों से लेकर गुजरात और केरल के समुद्री किनारों तक फैला हुआ उनके ख्वाबों से भी बहुत दूर की बात थी। वे दिल्ली को ही हिंदुस्तान समझते थे।
2. वह सिर्फ दिल्ली पर लुटेरों का कब्जा था। दिल्ली भी कोई आज के भारत की तरह राजधानी नहीं थी। बाहरी हमलावरों का एक मामूली सा अड्डा, जिसे आजाद भारत के इतिहासकारों ने उनकी राजधानी लिखा और उनके सुलतान-बादशाहों के स्वयंभू दावों पर मुहर लगाकर अपने समय के उन घृणित हत्यारों, लुटेरों, आतंकियों और अपराधियों के सिर पर ताज सजा दिए। तब भी वे आज के उत्तर-प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान के आसपास के शहरों और कस्बाें तक लूटमार और कत्लेआम की मुहिम में ही लगे थे। एक शासक की तरह वे कभी पेश ही नहीं आए।
3. वे कुछ हजारों के झुंडों में आए और यहीं मरते-खपते रहे। हिंदू, बौद्ध और जैन संस्कृतियों के बेमिसाल मंदिरों, विश्वविद्यालयों और शिक्षा संस्थानों को उन्होंने हर कहीं लगातार तहस-नहस और बरबाद किया। काफिरों के मुल्क में केवल बेवजह और लगातार हमले, कब्जे, हत्या, लूटमार और आगजनी की कहानियां शासक होने के सबूत नहीं हैं। भारतीय दंड संहिता में इनके कृतित्व को विभिन्न धाराओं में देखा जाना चाहिए। वह History of India नहीं है, वह Crime History of India है। लेकिन उसे इतिहास मानकर इतिहास की किताबों में महिमा-मंडित कर दिया गया। यह भी एक तरह का गंभीर Crime हुआ।
4. पराजित रियासतों में तलवार के जोर पर धर्मांतरण के व्यापक किस्से हर काल-खंड में हैं। जो ऐसा करने के लिए राजी नहीं थे, उनका इतिहास बेकसूर औरतों-बच्चियों की सामूहिक आत्महत्याओं से अकेले राजस्थान में ही भयानक भरा हुआ है। मध्य-प्रदेश से लेकर कर्नाटक तक हत्याकांडों के लाइव विवरण हैं। इन्हें जौहर कहा गया।
5. आज के अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश और बचे-खुचे भारत के वे लोग जो 800 सालों की हुकूमत के खुशनुमा वहम में हैं, ये दस्तावेज उन्हें आईना दिखाते हैं। वे सिर्फ इन अभागी सदियों में अपना धर्म और अपनी पहचान खोने वाले बदकिस्मत और मजबूर पुरखों के भूले-भटके वंशज हैं। यह एक कड़वी हकीकत है।
6. औरतों और बच्चों को गुलाम बनाना, उनके साथ व्यभिचार करना और खुली खरीद-फरोख्त उन हमलावरों की मजहबी मान्यताओं में एक अनिवार्य पुण्य था। दिल्ली से लेकर बंगाल तक गुलामों के बाजारों की सैर समकालीन लेखकों ने हमें कराई है। सालों-साल, दशकों और सदियों तक हजारों की तादाद में औरतें और बच्चे-बच्चियाें की खरीद-फरोख्त चलती रही। लूट का यह माल यानी माले-गनीमत स्वाभाविक रूप से नए लेबल यानी नए पंथ की नई पहचान के साथ बाजार, हरम और घरों में खपा। उनकी औलादें और उनकी औलादों की औलादें आज किन शक्लों में कहां पहचानी जाएँ? तात्पर्य यह कि मातृपक्ष से धर्मांतरण का व्याकरण बेहद अपमानजनक है। मातृपक्ष भी एक ऐसी अवधारणा है, जिसके संदर्भ भारतीय संस्कारों में अलग हैं और उन हमलावरों के लिए यह माले-गनीमत थी, जो मजहबी तौर पर हलाल है। अत: किन पर गर्व और किन बातों पर शर्म महसूस करनी चाहिए, इतिहास से बेखबरी ने यह विवेक भी छीन लिया।
7. कोई भी सभ्य समाज अपना शहर, अपना गांव, अपना घर, अपना परिवार लूटने, अपनी संपत्ति पर कब्जा जमाने, अपने लोगों को अपनी आंखों के सामने मारने, बचे-खुचे लोगों को अपना धर्म और अपना नाम बदलने के लिए मजबूर करने वालों से कैसे अपनी बल्दियत जोड़ सकता है? वह कैसे उन पर गर्व कर सकता है? यह झूठा गर्व भारत के ठोस दिमागों में भरपूर और ठसाठस भरा हुआ है।
8. कश्मीर में मकबूल भट, सलीम पंडित, शाहिद डार में भट, पंडित और डार (Dhar) क्या इशारा करते हैं? गुजरात में अहमद पटेल में चिपके पटेल अरब में कहां पाए जाते हैं? अखंड बंगाल में जफर सरकार और अब्दुर्रहमान विस्वास में सरकार और विस्वास हिंदू पुरखों की पुकारें हैं, जिन्हें सुना जाना चाहिए। यूपी में शादाब चौहान, अनवर त्यागी और राजस्थान में मुनव्वर राठौड़ों के नाम में लगे चौहान, त्यागी और राठौड़ इस उम्मीद में ही लगे छोड़े गए थे कि आने वाली किसी गैरतमंद पीढ़ी को मूल मार्ग पर पलटने के लिए कोई सिरा याद आ जाएगा। और पसमांदा आबादी की सारी जड़ें ही बुतखानों में फैली हैं। अल्लामा इकबाल से लेकर फारूक अब्दुल्ला तो ब्राह्मणों के ही वंशज हैं। जनाब, तलवार और जजिया सिर पर न मंडरा रहे हों तो कोई खुशी-खुशी अपनी बल्दियत नहीं बदलता!
9. समकालीन लेखकों की डायरियाँ यह भी बताती हैं कि हर जगह उन हमलावरों को लगातार विरोध का सामना करना पड़ा। पीढ़ियों तक हमारे पुरखों ने उन्हें चैन से रहने नहीं दिया। तुगलक के समय तो मंडल बनाकर लोगों के संगठित विरोध के रोचक विवरण हैं। सबसे बदनाम आखिरी मुगल औरंगजेब की पूरी जिंदगी ही दक्षिण में भटकते हुए ही बीती। वह वहीं मरा और उसके बाद उनकी चूलें हिल गईं। महाराष्ट्र में वो कौन था, जिसने उसकी नाक में दम की हुई थी?
10. तो आठ सौ साल कहीं किसी ने राज नहीं किया। कब्जा जमाने के बाद जो तख्त पर बैठे, उन्होंने यहां के लोगों की बलपूर्वक पहचानें बदलकर नए पंथ में घसीटा। वह मौत के बदले जिंदा रहते हुए दी गई एक ऐसी सजा थी, जो पीढ़ियों से जारी है। और बदली हुई पहचानों के साथ भूली-भटकी याददाश्तें आज इस बात पर इतरा रही हैं कि सदियों तक हमने हुकूमत की। यह ऐसा ही है जैसे कोई खुद को गाली देकर खुद ही खुश हो जाए। उनका यह झूठा गर्व सुनकर कब्रों में लेटे वे आततायी जरूर हंसते होंगे। उनकी जन्नत तो पक्की है।
11. यह बात मुझे पहले बिंदु में ही कहनी चाहिए थी- ध्यान रहे, भारत के मध्यकाल के इतिहास में सल्तनतकाल या मुगलकाल जैसे कोई कालखंड नहीं हैं। यह वामपंथी इतिहासकारों के दूषित दिमाग की उपज हैं। उन्होंने अपनी किताबों में ये दो कालखंड किसी फिल्म के सेट की तरह सजाए और उन बेरहम लुटेरों, हमलावरों और आतंकियों को सुलतानों और बादशाहों के ताज पहना दिए। यह नकली वैचारिक धारा सिनेमा में “मुगले-आजम’ और “जोधा अकबर’ की झूठ की शक्ल में फैलती रही, जबकि जोधा नाम की कोई किरदार ही नहीं है। फिल्म ‘शोले’ की भाषा में समझें तो उनके लिखे इतिहास में गब्बर और सांभा तो रामगढ़ के विकास की योजनाएं बनाने वाले रहमदिल किरदार थे। कम्बख्त सलीम-जावेद ने उन्हें डकैत बना दिया!
12. सिनेमा में साठ साल पहले पृथ्वीराज कपूर और अभी ऋतिक रोशन के चेहरों पर अकबर को चिपकाकर दिखाया गया, रणवीर सिंह के चेहरे में अलाउद्दीन खिलजी के दर्शन कराए गए जबकि उनके असली चेहरे सीरिया और अफगानिस्तान के हमारे समय की उन शानदार शक्लों में मिलेंगे, आधुनिक विश्व की संस्थाओं ने जिनके विस्फोटक व्यक्तित्व और कयामती कृतित्व से प्रभावित होकर करोड़ों डॉलर के इनाम रख छोड़े। एबटाबाद में सर्जिकल स्ट्राइक में मारकर समंदर में जिनकी जलसमाधि कराई और मोसुल की सुरंगों में घेरकर मारा।
(असल इतिहास को पढ़े बगैर समर्थन या विरोध में की गई किसी भी टिप्पणी का कोई अर्थ नहीं है। कोई संशय न रहे इसलिए बिल्कुल इसी विषय पर मेरी अगली किताब दो भागों में जल्दी ही आने वाली है ताकि दिल्ली पर तुर्क हमलावरों के कब्जे के बाद की भयावह सदियों के 60 लेखकों की अरबी-फारसी की पोथियों में भटकने की बजाए हर भारतीय को आसान भाषा में हमारे पुरखों का भोगा हुआ सच पता चल जाए। गरुड़ प्रकाशन को चाहिए कि वह आगामी प्रकाशनों की घोषणा शीघ्र करे। )
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