पुण्य प्रसून वाजपेयी
किसान जिन्दा रहे या ना रहे यह आजादी के बाद से कभी किसी सरकार ने नहीं सोचा । फिर ऐसा क्या है कि मोदी सरकार के सामने सबसे बडा राजनीतिक संकट किसान ही हो चला है। नेहरु से लेकर मनमोहन सरकार तक की नीतियों तले किसान हाशिए पर ही ढकेले गये। फिर ऐसा क्या है कि मोदी सरकार हाशिये पर ढकेले गये किसानों का रोना पहले ही सत्र में रोने लगी है। बीते 67 बरस में जीडीपी में कृर्षि का योगदान लगातार कम होता चला गया लेकिन इसपर कभी किसी ने ध्यान नहीं दिया तो फिर ऐसा क्या है कि जिस खेती का योगदान जीडीपी में महज 13.7 फीसदी है, वह देश के बाकी 86.3 फीसदी के योगदान पर भारी पड़ रही है। तो पहली समझ तो यही है कि आजादी के वक्त जो खेती देश के जीडीपी में 66 फीसदी से ज्यादा योगदान देती थी वह घटते घटते मोदी के दौर में 13.7 फीसदी पर पहुंच गयी है। तो सवाल खेती और किसान जब किसी सरकार की प्राथमिकता में ही नहीं रही है तो फिर ऐसा क्या है कि मानसून के कमजोर होने की खबर या फिर अनाज-सब्जियों की कीमत बढ़ने भर से सरकार ढोलने लगी है। क्योंकि इसी दौर में जीडीपी में सर्विस सेक्टर का योगदान 20 फीसदी से बढ़ते बढ़ते 67 फीसदी तक जा पहुंचा। यानी आजादी के वक्त जिस भूमिका में खेती थी आज की तारीख में उतनी ही पूंजी का योगदान सर्विस सेक्टर का है । तो फिर ऐसा क्या है कि किसानो को लेकर मोदी सरकार रोना रो रही है।
असल में जीडीपी में खेती का योगदान चाहे 13.7 फीसदी हो लेकिन आज भी देश की साठ फीसदी आबादी खेती के ही भरोसे जीवन जीती है। जबकि दूसरी तरफ सर्विस सेक्टर के जरीये चाहे ज्यादा मुनाफा बनाने की स्थित में हर सरकार रही हो लेकिन उस पर देश के महज 20 फिसदी जनसंख्या ही निर्भर है। तो क्या पहली बार मोदी सरकार यह समझा रही है कि खेती या किसान ही भारत का असल मर्म है या फिर किसानों की बात कर खेती के कॉरपोरेटीकरण की दिशा में मोदी सरकार कदम बढाने के लिये इतना रोना रो रही है। क्योंकि असल संकट नीतियों का है। सरकारी नीतियों से कोई इन्फ्रास्ट्रकचर कृषि के बनाया ही नहीं गया, जिसका असर यही हुआ कि खेती की ताकत कम की गयी और औघोगिक क्षेत्र में भी सरकार का ध्यान ना के बराबर रहा तो इसका असर यह हुआ कि बीते 50 बरस में औद्योगिक उत्पादन में सिर्फ 3 फीसदी की बढोतरी हुई। यानी हर सरकार के लिये विकास का रास्ता उस कमाई पर टिका जो विदेशी उत्पादों को भारत में लेकर आता या फिर भारत के कच्चे माले को कौड़ियों के मोल बाहर ले जाने का रास्ता खोलता। इस सर्विस की एवज में मिलने वाला कमीशन ही सरकारों के लिये विकास का ऑक्सीजन बन चुका है। ऐसे में याद कीजिये चुनाव प्रचार के दौर
में किसानों की जिन्दगी बेहतर बनाने के लिये नरेद्र मोदी क्या कह रहे थे। उनका साफ कहना था समर्थन मूल्य फसल की लागत से कही ज्यादा दिया जायेगा। यानी खेती करने में जो पैसा खर्च होता है उसे मिलाकर ज्यादा दिया जायेगा । यानी तब वादा किया गया तो अब पूरा होना चाहिये लेकिन किसानों को जो समर्थन मूल्य मिल रहा है और जिस तेजी से खेती करने में महंगाई बढ़ रही है उसमें अब भी पचास फीसदी से ज्यादा का अंतर है। तो फिर किसान करें क्या ।
सरकार मानती है कि बीज, खाद, सिंचाई से लेकर मजदूरी तक महंगी हुई है। खेत से मंडी तक के बीच बिचौलियों की भूमिका बढ़ी है। मंडी से गोदाम तक के बीच जमाखोरों की तादाद बढ़ी है। तो फिर सरकार करे क्या। क्योंकि मौजूदा वक्त में देश में 8 करोड़ किसान है तो 25 करोड़ खेत मजदूर है। यानी सिर्फ समर्थन मूल्य से काम नहीं चलेगा बल्कि खेती में सरकार को निवेश करना ही होगा। और देश का आलम यह है कि कि चौथी से 12वीं पंचवर्षीय योजना में राष्ट्रीय आय का 1.3 फ़ीसद से भी कम कृषि में निवेश हुआ.। यानी जिस देश की 62 फिसदी आबादी खेती पर आश्रित हो। 50 से 52 फीसदी मजदूर खेत से ही जुड़े हों वहा सिर्फ 1.3 फिसदी खर्च से सरकार किसानों का क्या भला कर सकती है। उसका भी अंदरुनी सच यही है कि निजी निवेश को इसमें से निकाल दें तो राष्ट्रीय आय का सरकार सिर्फ 0.3 फीसदी ही निवेश कर रही है। यानी असल हकीकत है कि देश में जो भी हो रहा है वह किसान अपनी बदौलत कर रहा है ।
लेकिन अब बात मोदी सरकार की हो रही है तो उम्मीद यहकहकर लगा सकते है कि देस के पीएम एक गरीब परिवार में पैदा हुये है तो उनकी संवेदनशीलता ग्रामीण, किसान या कहे गरीब के प्रति बनी रहेगी । लेकिन सरकार के हाथ तो बंधे हैं। क्योंकि फुड सिक्योरटी बिल और सब्सिडी का आंकड़ा ही दो लाख करोड़ रुपये पार कर जाता है। तो खेती में निवेश सरकार बढ़ा नहीं सकती। इसके लिये तीन कदम उठाये जा सकते है। पहला -न्यूनतम समर्थन मूल्य और बाज़ार मूल्य के बीच के अंतर को ख़त्म करना । दूसरा ,कृषि आधारित सभी चीज़ों पर से टैक्स हटाना और तीसरा कृषि रिटेल को देसी -विदेशी निवेश के लिये खोल देना। इसकी वकालत विश्व बैंक भी कर चुका है। लेकिन जिस देश में सरकार खेती के सिंचाई तक की व्यवस्था ना कर पायी हो और 67 फीसदी जमीन आज भी बारिश के पानी पर निर्भर होती हो । 21 फीसदी नदियों के पानी पर तो सरकार और किसान में तालमेल बैठता कहा है। उल्टे जैसे ही महंगाई और किसान का सवाल आता है वैसे ही जब सब कुछ आरोपों तले स्वाहा हो जाता हो तब कोई क्या करेगा। केन्द्र कहता है राज्य सरकार की जिम्मेदारी है। अगर मोदी सरकार को भी लगता है कि खेती का मामला राज्य सरकार का मामला है तो फिर कृषि मंत्रालय की जरुरत क्या है। इस बंद कर देना चाहिये। क्योंकि यहां काम करने वाले सात हजार कर्मचारी तो कुछ करते ही नहीं है । और इसी कटघरे से देश की गरीबी निकलती है। जो तभी तेंदुलकर कमेटी तो कभी रंगराजन कमेठी तले आंकडों को मापती है कि देश में गरीबी कितनी कम हो गयी है । और विकास का पैमाना जीडीपी के आंकड़े पर आकर रुक जाता है । तो शायद संकट यही है कि चर्चा के लिये किसान और गरीबी है। नीतियों के लिये विकास दर और बुलेट ट्रेन से लेकर चकाचौंध इन्फ्रास्ट्रक्चर है।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार व आज तक न्यूज चैनल के संपादक हैं।