गीत – 3 ( दोहे) गीता का दिव्य धर्म
गीता का दिव्य धर्म
कर्तव्य कर्म की भव्यता – देती सदा आनन्द ।
‘दिव्य धर्म’ इससे बड़ा देता परमानन्द।।
कर्तव्य कर्म को जानकर जो जन करते काम।
जग उनका वन्दन करे , जन करते गुणगान ।।
‘दिव्य धर्म’ हमसे कहे – जानो प्रभु की तान।
संग उसी के तान दो निज कर्मों की तान।।
जन्म बीता जा रहा ना समझे धर्म का मूल।
कर्तव्य कर्म भी ना करें दिव्य धर्म है दूर।।
‘दिव्य धर्म’ करने लगे जब मनवा हितकर होय।
अनुकूल सदबुद्धि रहे , जब प्रभु कृपा होय।।
हमको गीता दे रही, एक यही उपदेश।
करो दिव्य कर्म की साधना, सुधरेगा परिवेश ।।
दैविक शक्ति से चल रहा यह सारा संसार।
आ उसके संपर्क में बना लो निज सहकार ।।
जो जन उसकी मानते कर्म करें अनुकूल ।
धर्म उन्हीं को धारता बरसें उन पर फूल।।
गीता हमसे कह रही, है मानव का यही धर्म।
सुमिरन करो निज इष्ट का ,त्यागो सब दुष्कर्म।।
जब तक तन में प्राण हैं , इन्द्रियाँ दे रहीं साथ।
यजन – भजन करते रहो, रख ह्रदय को निष्पाप ।।
( ‘गीता मेरे गीतों में’ नमक मेरी नई पुस्तक से)
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
मुख्य संपादक, उगता भारत