हिंदी की इस भावी हालत को संविधान निर्माताओं ने समझा था। संविधान निर्माताओं को लगता था कि अगर हिंदी में संविधान बनेगा तो वह भारतीय मानस को पूरी तरह गुलामी से मुक्ति की अभिव्यक्ति का माध्यम तो बनेगा ही, भारतीय लोगों पर भारतीय तरीके से शासन का जरिया भी बनेगा।
संवैधानिक मान्यता हासिल होने के 73 साल बाद भी हिंदी की दुनिया सिर्फ दो शब्दों ‘चाहिए’ और ‘हो’ के बीच ही झूल रही है। जबकि उसे अब तक ‘हुई’ की श्रेणी में आ जाना चाहिए था। हिंदी को लेकर जब भी कोई सरकारी आयोजन होता है, हिंदी से जुड़ी समितियों की बैठक होती है, उसमें बड़ी हस्तियां कुछ खास वाक्यों का उपयोग करती हैं। ये वाक्य होते हैं, प्रशासन की भाषा स्थानीय होनी चाहिए, सरकारी काम-काज हिंदी और स्थानीय भाषाओं में होना चाहिए। ऐसे या इससे मिलते-जुलते वाक्य इतनी बार सुने जा चुके हैं कि हिंदी समेत भारतीय भाषा-भाषी इन वाक्यों-शब्दों को रस्मी मान चुके हैं। हाल ही में राज्यसभा सचिवालय की हिंदी सलाहकार समिति की बैठक को संबोधित करते हुए उपराष्ट्रपति एम. वेंकैया नायडू ने भी ऐसा ही कहा।
73 साल में हिंदी समेत स्थानीय भाषाओं की स्थिति कैसी होनी चाहिए, प्रशासन में उन्हें कैसा मान मिलना चाहिए, उनका कैसा उपयोग होना चाहिए, इस पर बहुत कुछ कहा जा चुका है। हैरत की बात यह है कि ऐसे विचार राजनीति की तमाम बड़ी हस्तियां भी जाहिर कर चुकी हैं। लेकिन हकीकत है कि वह अब भी प्रशासन की प्रमुख और आधिकारिक भाषा बनने की बाट ही जोह रही है। केंद्र मोदी सरकार के आने के बाद केंद्रीय प्रशासन में हिंदी की पहुंच बढ़ी तो है, लेकिन इतनी नहीं कि वह केंद्रीय भूमिका में आ सके। सरकारी कार्यालयों में अब भी प्रमुखत: वह अनुवाद की ही भाषा बनी हुई है। हिंदीभाषी राज्यों के सरकारी कामकाज को छोड़ दें तो अब भी राजकाज का प्रमुख काम अंग्रेजी में ही होता है। सरकारी तंत्र की अंदरूनी व्यवस्था इस कदर गहरी है कि वहां ठेठ हिंदी या भारतीय भाषाओं में काम करना अब भी दोयम माना जाता है।
जिसे अंग्रेजी में नोटिंग-ड्राफ्टिंग नहीं आती, उसके लिए केंद्रीय सेवाओं में सम्मान के साथ काम कर पाना आसान नहीं है। उसे अंग्रेजी जानने वालों की तुलना में दूसरी श्रेणी का ही कार्यकर्ता या नागरिक माना जाता है। सरकारी दफ्तरों में अंग्रेजी के वर्चस्व और हिंदी और दूसरी भारतीय भाषाओं को दोयम मानने की नींव संविधान निर्माण की प्रक्रिया के दौरान ही पड़ गई थी। वैसे यह भी सच है कि देश के जिन भागों में अपनी उपराष्ट्रीयताएं ताकतवर हैं, वहां स्थानीय भाषाएं स्वीकार्य और शक्तिशाली हैं। बांग्ला, तमिल, तेलुगू, कन्नड़, मलयालम, मराठी, पंजाबी आदि भाषाओं की इज्जत उनकी उपराष्ट्रीयता वाले इलाकों में हिंदी की तुलना में कहीं ज्यादा गहरी है।
हिंदी की इस भावी हालत को संविधान निर्माताओं ने समझा था। संविधान निर्माताओं को लगता था कि अगर हिंदी में अपना संविधान बनेगा तो वह भारतीय मानस को पूरी तरह गुलामी से मुक्ति की अभिव्यक्ति का माध्यम तो बनेगा ही, भारतीय लोगों पर भारतीय तरीके से शासन का जरिया भी बनेगा। दिलचस्प यह है कि संविधान हिंदी में बने, ऐसा विचार संविधान सभा के सर्फि हिंदीभाषी सदस्यों का ही नहीं था, बल्कि कई गैर हिंदीभाषी सदस्य भी ऐसा चाहते थे। संविधान सभा में 21 जनवरी 1947 को संविधान सभा के सदस्य एचजे खांडिकर ने जो कहा था, उस पर ध्यान दिया जाना चाहिए। खांडिकर ने कहा था, ‘हिंदुस्तान का जब संविधान बनने जा रहा है तो हमें उसे अपनी देशी भाषा में ही बनाना चाहिए। अपनी राष्ट्रभाषा में ही बनाना चाहिए।’ खांडिकर अंग्रेजी में बोल सकते थे, लेकिन उन्होंने बाद में कहा था कि भारतीयों की बात करने के लिए वे हिंदी में ही भाषण दे रहे हैं। कतिपय संविधान निर्माताओं को लगता था कि भारतीयता की बात भारतीय भाषाओं में ही की जा सकती है। लेकिन संविधान सभा ने भारतीयता की तरफ मजबूती से बढ़ने की उम्मीद वाले इस कदम को नजरंदाज कर दिया।
संविधान ने भले ही हिंदी को राष्ट्रभाषा की वैधानिक मंजूरी दे दी, लेकिन अंग्रेजी में संविधान के बनने ने भावी दिनों के लिए अंग्रेजी के वर्चस्व को परोक्ष मंजूरी दे दी। 17 नवंबर 1949 को संविधान सभा के सदस्य जबलपुर निवासी और हिंदी के बड़े लेखक सेठ गोविंददास ने कहा था, ‘मुझे एक ही बात खटकती है और सदा खटकती रहेगी कि इस प्राचीनतम देश का संविधान देश के स्वाधीन होने के पश्चात भी विदेशी भाषा में बना है।…मैं आपसे कहना चाहता हूं कि हमारी गुलामी की समाप्ति के पश्चात्…हमारे स्वतंत्र होने के पश्चात संविधान, जो हमने एक विदेशी भाषा में पास किया है, हमारे लिए सदा कलंक की वस्तु रहेगा। यह गुलामी का धब्बा है, यह गुलामी का प्रतीक है।’
संविधान सभा ने अंग्रेजी में लिखे संविधान को ही मूल माना और हिंदी वाले अनुवाद को मूल नहीं माना। संविधान के प्रावधानों की व्याख्या पर विवाद की स्थिति में मूल अंग्रेजी को ही प्रमाणिक माना गया है। अंग्रेजी में लिखे मूल को प्रमाणिक मानने की यह अवधारणा संविधान से आगे सरकारी नियमावली और कामकाज तक पहुंच गई। इस तरह संविधान निर्माण की प्रक्रिया में हिंदी की अनदेखी और अंग्रेजी में संविधान के निर्माण ने जाने-अनजाने अंग्रेजी के वर्चस्व की परिपाटी स्थापित कर दी। जिसका खामियाजा हिंदी आज तक भुगत रही है और ‘चाहिए’ और ‘हो’ के बीच सिमटी हुई है। वह मूल बनने की स्थिति से अब
भी काफी दूर है और जिस तरह की ब्यूरोक्रेटिक व्यवस्था है, उसमें नहीं लगता कि वह जल्द मूल बन पाएगी। हिंदी और भारतीयता समर्थकों को इस तथ्य को समझना होगा।