नेहरू ने भेड़ियों के सामने डाल दिया था हिंदू महिलाओं को
राजनीति अपराधी वृत्ति को बढ़ावा देने का माध्यम नहीं है अपितु आपराधिक वृत्ति को समाप्त कर जनसाधारण के जीवन में इहलौकिक और पारलौकिक उन्नति के सारे अवसर उपलब्ध कराने का पवित्रतम माध्यम है। यदि धर्म की परिभाषा पर भी विचार किया जाए तो वह भी मानव मात्र को इहलौकिक और पारलौकिक उन्नति प्रदान करने की पवित्रतम अवस्था और व्यवस्था है।इस प्रकार राजनीति और धर्म दोनों ही एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इनका अन्योन्याश्रित संबंध है। राजनीति पवित्र हृदय की उपज है और धर्म पवित्रता का सागर है। धर्म रूपी पवित्र सागर की अमृतमयी बून्दों से भीगे हुए हृदयरूपी खेत में जब राजनीति की फसल उगती है तो वह सर्व कल्याणकारी होती है। वैदिक धर्मावलंबी शासकों से इतर संसार के अन्य मजहबों के शासकों ने मजहब की खूनी तलवार से चाहे लोगों का जितना कत्लेआम किया हो और चाहे उस कत्लेआम से उपजे भयपूर्ण परिवेश में उन्होंने कितनी ही देर शासन भी क्यों न कर लिया हो, पर उनका ऐसा शासन किसी भी वैदिक धर्म प्रेमी शासक के एक दिन के शासन की बराबर भी नहीं हो सकता।
जब राजनीति पक्षपाती हो जाती है और संकीर्ण होकर किसी संप्रदाय या वर्ग विशेष के हितों को साधने का माध्यम बन जाती है तो ऐसी राजनीति धर्म भ्रष्ट हो जाती है। पथभ्रष्ट हो जाती है। उसका कोई दीन ईमान नहीं होता । यद्यपि ऐसी राजनीति को भी इतिहास में बहुत से लोगों ने न्याय पर आधारित राजनीति कहा है। हत्या, लूट, डकैती और बलात्कार को प्रोत्साहित करने वाली राजनीति किसी काल विशेष में सांप्रदायिक आधार पर चाहे कितना ही सम्मान प्राप्त क्यों न कर गई हो या आज भी किसी देश विशेष में कर रही हो, पर मौलिक रूप में राजनीति का यह धर्म नहीं है। हम अपने पड़ोस के इस्लामिक देश पाकिस्तान और बांग्लादेश की स्थिति को यदि देखें तो वहां पर गैर मुसलमान का जीना बड़ा कठिन है। जब इस्लाम का दमन चक्र भारत में चल रहा था तो यही स्थिति उस समय गैर मुसलमानों की हुआ करती थी। जिसका आज उज्ज्वल नहीं है उसका अतीत कैसे उज्ज्वल हो सकता है? जिसकी सोच आज पवित्र नहीं है, उसकी सोच बीते हुए कल में भी कैसे पवित्र रही होगी ?
यदि इस्लाम और ईसाइयत के नाम पर कुछ लोग हिंदू या किसी भी गैर इस्लामिक या गैर ईसाई वर्ग या समुदाय पर अत्याचार करना अपना एकाधिकार मानते हैं तो इसे उनकी घोर सांप्रदायिकता तो कहा जा सकता है पर राजनीति नहीं कहा जा सकता। कुछ लोग सियासत को खून खराबे का पर्यायवाची मानते हैं पर भारतीय दृष्टिकोण से देखा जाए तो सियासत खून खराबे को शांत करने का ही एक माध्यम है। खून खराबा या किसी भी प्रकार का अपराध राजनीति और राजनीति में रहने वाले लोगों के लिए वर्जित है। क्योंकि जहां राजनीति समाज में न्याय और सम्मान को प्रदान करती है, वहीं राजनीति में रहने वाले लोग जनसाधारण के लिए अनुकरणीय चरित्र के स्वामी होते हैं। भारत में राजनीति को कभी भी अपराध और अपराधियों को प्रोत्साहित करने का माध्यम नहीं माना गया। इसके उपरांत भी यदि किसी कंस या किसी रावण ने राजनीति को अपराध के साथ जोड़कर देखने का प्रयास किया है तो उनका विनाश करने के लिए हर काल में कोई न कोई श्रीकृष्ण या श्रीराम पैदा होते रहे हैं । वैदिक काल में राजनीति को राष्ट्रनीति कहा जाता था और वह प्रत्येक ऐसे व्यक्ति का विरोध करती थी जो समाज के लिए किसी भी दृष्टिकोण से अभिशाप हो सकते थे।
ऐसी परिस्थितियों में 1947 में देश की स्वाधीनता के पश्चात पंडित जवाहरलाल नेहरू को देश के प्रधानमंत्री के रूप में महाराजा हरिसिंह जैसे राष्ट्रवादी लोगों का समर्थन करना चाहिए था। इसके साथ ही देश के प्रति गद्दारी का भाव रखने वाले शेख अब्दुल्लाह का विरोध करना चाहिए था। उन्हें किसी भी स्थिति में कश्मीर को उन राक्षस हाथों में नहीं देना चाहिए था जिन्होंने अतीत में वहां पर खूनखराबे को प्रोत्साहित किया था या निर्दयता और अत्याचार के साथ हिंदुओं का उत्पीड़न किया था।
यदि इस्लाम के भारत सहित अन्य देशों में स्थापित हुए शासन और शासकों के आचरण पर विचार करें तो पता चलता है कि उनके शासनकाल में सियासत ही पाप वृद्धि का सबसे सशक्त माध्यम बनी रही है। आज भी बांग्लादेश और पाकिस्तान में हिंदुओं के साथ जो कुछ हो रहा है वह बहुत ही पीड़ादायक है। तस्लीमा नसरीन के ये शब्द इस संबंध में बड़े सार्थक दिखायी देते हैं :–
”8 अक्टूबर के दिन..
अब्दुल अली, अल्ताफ हुसैन, हुसैन अली, अब्दुर रउफ, यासीन अली, लिटन शेख और 5 अन्य लोगों ने अनिल चंद्र के घर पर धावा बोल दिया, अनिल चंद्र को मारकर डंडों से बाँध दिया, और उनको काफ़िर कहकर गालियां देने लगे।
इसके बाद ये शैतान माँ के सामने ही उस 14 साल की निर्दोष बच्ची पर टूट पड़े और उस वक्त जो शब्द उस बेबस व लाचार मां के मुँह से निकले वो पूरी इंसानियत को झंकझोर देने वाले हैं।
अपनी बेटी के साथ होते इस अत्याचार को देखकर उसने कहा “अब्दुल अली,, एक एक करके करो, नहीं तो मर जाएगी, वो सिर्फ 14 साल की है।”
वो यहीं नहीं रुके,,उन माँ बाप के सामने उनकी छोटी 6 वर्षीय बेटी का भी सभी ने मिलकर बलात्कार किया ….उन लोगों को वहीं मरने के लिए छोड़कर जाते जाते आस पड़ौस के लोगों को धमकी देकर गए कि कोई इनकी मदद नहीं करेगा।”
ये पूरी घटना बांग्लादेशी लेखिका तस्लीमा नसरीन ने भी अपनी किताब “लज्जा” में लिखी है। यहां पर इस घटना को उल्लेखित करने का हमारा आशय केवल यह है कि कश्मीर में जब इस्लाम के मानने वालों ने कई सौ वर्ष तक क्रूरतापूर्ण शासन किया तो वहां पर ऐसे दृश्य कितनी बार प्रकट हुए होंगे ? जब ऐसे दृश्य किसी पिता ने या किसी भाई ने अपनी बेटी या बहन के साथ होते देखे होंगे तो उनके दिल पर क्या गुजरी होगी ?
क्या यह सच नहीं है कि 1947 से लेकर आज तक भारत के कश्मीर सहित पाकिस्तान व बांग्लादेश में हिंदुओं के साथ जहां-जहां भी ऐसी पीड़ादायक घटनाएं हुई हैं या नित्य प्रति हो रही हैं उन सबके लिए कांग्रेस, कांग्रेस के नेता और विशेष रूप से पंडित जवाहरलाल नेहरू व गांधीजी जिम्मेदार हैं ? जिन्होंने जानबूझकर हिंदू परिवारों की महिलाओं को भेड़ियों के सामने डाल दिया या डाल देने की परिस्थितियों को पैदा होने दिया।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत