हर्ष सिन्हा
भारतीय विदेश मंत्री डॉक्टर एस जयशंकर की श्रीलंका यात्रा दोनों देशों के बीच आपसी संबंधों के नजरिए से काफी सफल रही है। दोनों विदेश मंत्रियों ने आधा दर्जन महत्वपूर्ण समझौतों पर हस्ताक्षर किए हैं और श्रीलंका के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को भारतीय विदेश मंत्री ने आश्वस्त किया है कि आर्थिक संकट से निपटने में भारत श्रीलंका को निरंतर सहयोग करता रहेगा। द्विपक्षीय संबंधों में राष्ट्राध्यक्षों या विदेश मंत्रियों के दौरों में समझौतों, सहमतिपत्रों और प्रतिबद्धताओं की ऐसी मुखर अभिव्यक्तियां सामान्य बात मानी जाती हैं, लेकिन इस दौरे को कई कारणों से कुछ विशेष अहमियत दी जा रही है। इसे एक ऐसे कूटनीतिक अभियान का महत्वपूर्ण चरण माना जा रहा है, जिसके जरिए भारत ने श्रीलंका में चीन के बरक्स अपनी मौजूदगी और मजबूती में निर्णायक बढ़त हासिल की है।
भारत को बढ़त
उदाहरण के तौर पर, जाफना के 3 द्वीपों नैनातिवु, नेदुन्तिवु और अनालाईतिवु पर हाइब्रिड विद्युत परियोजनाएं शुरू करने को लेकर हुए समझौते का जिक्र किया जा सकता है। आपको याद होगा कि इन्हीं तीन द्वीपों पर ठीक ऐसी ही परियोजनाओं के लिए साल की शुरुआत में श्रीलंका ने चीन के साथ सहमतिपत्र पर हस्ताक्षर किए थे। तब भारत ने यह कहते हुए इस पर एतराज दर्ज कराया था कि भारत भूमि से निकट के इन इलाकों में चीन की मौजूदगी उसकी ‘चिंताएं बढ़ाने वाली’ है । इसके बाद श्रीलंका ने इन परियोजनाओं को निरस्त कर दिया था। अब चूंकि यही परियोजनाएं भारत के सहयोग से शुरू हो रही हैं तो भारत की बढ़त को लेकर चर्चाएं स्वाभाविक हैं।
वैसे भी पिछले कुछ समय में दोनों देशों में संबंध और सहयोग के क्षेत्र में खासी प्रगाढ़ता आई है। पिछले एक पखवाड़े में पहले श्रीलंकाई वित्त मंत्री बासिल राजपक्षे की भारत यात्रा और अब भारतीय विदेश मंत्री की श्रीलंका यात्रा ने कई महत्वपूर्ण आर्थिक, राजनयिक और सामरिक सहमतियां कायम की हैं। इनकी अहमियत इसलिए बढ़ जाती है क्योंकि बीते एक दशक से भी ज्यादा समय से श्रीलंका में चीन का वर्चस्व अधिक रहा है। वर्ष 2009 में तमिल अलगाववादी आंदोलन खत्म होने के बाद अपनी खराब वित्तीय स्थिति को ठीक करने के लिए श्रीलंका ने चीन की ओर कदम बढ़ाया था। कर्ज और मदद की मिली-जुली पेशकशों के बीच 2014 में शी चिनफिंग ने श्रीलंका का दौरा भी किया था। उस वक्त भी यह आशंका जताई गई थी कि यह सब चीन की श्रीलंका को कर्ज के जाल में फंसा कर रणनीतिक फायदे उठाने की कूटनीति है। यह आशंका 2017 में तब सच साबित हुई, जब कर्ज न चुका पाने के कारण श्रीलंका को सामरिक दृष्टि से बेहद अहम हंबनटोटा बंदरगाह चीन को 99 साल की लीज पर दे देना पड़ा। यह पहला बड़ा मौका था, जब श्रीलंका में प्रायः सभी स्तरों पर चीनी मदद के पीछे असली खेल को लेकर चिंताएं मुखर हुईं और इसे लेकर भविष्य में सतर्क और संतुलित रुख अपनाने की जरूरत महसूस की गई।
लेकिन एक के बाद एक कई वजहों से श्रीलंका अभूतपूर्व आर्थिक बदहाली की ओर बढ़ता चला गया। स्थिर आय स्रोत के अभाव वाले इस देश की अर्थव्यवस्था काफी हद तक पर्यटन, चाय और कपड़ा उद्योग पर टिकी थी, जिसे कोविड-19 ने बुरी तरह तबाह कर दिया। विदेशी मुद्रा भंडार लगभग खाली हो गया और क्रेडिट रैंकिंग के लगातार गिरते जाने से विदेशी निवेशकों से कर्ज मिलना मुश्किल हो गया।
ऐसे मौके पर भारत ने श्रीलंका को आर्थिक सहायता देकर न केवल मानवीय बल्कि कूटनीतिक दृष्टि से भी एक निर्णायक बढ़त हासिल की। इस साल की शुरुआत से अब तक भारत श्रीलंका को 2.4 अरब डॉलर की आर्थिक सहायता दे चुका है और दोनों देशों के बीच विकास की कई अहम परियोजनाएं भी शुरू हुई हैं। इनमें जाफना के तीन द्वीपों वाले हाइब्रिड पावर प्रोजेक्ट के अलावा त्रिंकोमाली में आयल टैंक फार्म, सोलर एनर्जी प्लांट और समुद्री राहत बचाव समन्वय और निगरानी केंद्र की स्थापना प्रमुख है। भारत के अडानी समूह ने भी उत्तरी श्रीलंका में दो अक्षय ऊर्जा संयंत्रों के लिए 50 करोड़ डॉलर की परियोजना पर काम शुरू किया है।
जरूरी खाद्य पदार्थों, तेल और गैस जैसे पेट्रोलियम उत्पादों की भयंकर किल्लत के चलते अब आर्थिक संकट से मानवीय त्रासदी की ओर बढ़ रहे श्रीलंका में भारत की आर्थिक मदद की जनता और मीडिया में सराहना हुई है, लेकिन इससे श्रीलंका में चीनी हितों के लिए प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से काम करने वाली लॉबी के कान भी खड़े हो गए हैं। भारतीय विदेश मंत्री के दौरे के पहले वहां की विपक्षी पार्टियों एसजेबी और जेवीपी ने सरकार पर यह कहते हुए तीखे हमले किए कि उसने भारत से मिलने वाली आर्थिक मदद के बदले अपने सामुद्रिक और वायु संप्रभुता के साथ समझौता किया है। हालांकि त्वरित प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए 29 मार्च को श्रीलंका के रक्षा मंत्रालय ने इसका खंडन किया और कहा कि इस समुद्री सुरक्षा समझौते से श्रीलंका की राष्ट्रीय सुरक्षा और संप्रभुता पर कोई प्रतिकूल असर नहीं पड़ेगा।
मौसम बदलने का संकेत
इसमें कोई दो राय नहीं कि बीते कुछ समय में दोनों देशों के बीच बहुत कुछ ऐसा घटित हुआ है जो द्विपक्षीय संबंधों और विश्वास बहाली के नजरिए से ही नहीं, श्रीलंका में भारत की साख मजबूत करने के लिहाज से भी अहम है। फ्लोटिंग डॉक और डोर्नियर टोही विमान जैसे मुद्दों पर बातचीत 2015 से चल रही थी, पर मामला अधर में था। इस साल उसे मंजूरी मिल गई। इसके अलावा कांकेसनथुरई बंदरगाह पर हवाई अड्डे के निर्माण संबंधी भारतीय प्रस्ताव और श्रीलंकाई संविधान में तमिल अल्पसंख्यकों को और अधिक अधिकार दिए जाने संबंधी भारत के अनुरोध पर श्रीलंका ने जिस तरह सकारात्मक संकेत और आश्वासन दिया है वह भी मौसम बदलने का सूचक है। इस बदलते मौसम पर चीन की भी नजदीकी निगाह होगी लेकिन भारतीय राजनय को इसे स्थायी, निरंतरतापूर्ण और दीर्घायु बनाने की कोशिशें लगातार जारी रखनी होंगी।
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