नेहरू की अचकन का गुलाब बनाम कश्मीर का केसर
1947 में देश की स्वाधीनता के समय अंग्रेजों ने बड़ी चालाकी दिखाते हुए भारत को खंड – खंड करने का लक्ष्य अपने समक्ष रखा। अपने इस गुप्त उद्देश्य की पूर्ति के लिए तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने भारत की सभी रियासतों के समक्ष यह प्रस्ताव रख दिया था कि वे चाहें तो भारत के साथ सम्मिलित हो सकती हैं और चाहें तो पाकिस्तान के साथ जा सकती हैं । इसके अतिरिक्त यदि वे अपना स्वतंत्र अस्तित्व भी बनाए रखना चाहती हैं तो वह ऐसा भी कर सकती हैं। अंग्रेजों ने भारत के टुकड़े -टुकड़े करने का जो यह प्रस्ताव देसी रियासतों के समक्ष रखा था, उसे बड़ी सावधानी से सरदार वल्लभभाई पटेल ने असफल कर दिया। उन्होंने सभी देशी रियासतों का भारत संघ के साथ विलय करने में सबसे महत्वपूर्ण योगदान दिया। इसके उपरांत भी जूनागढ़, हैदराबाद और जम्मू कश्मीर जैसी रियासतें रह गईं जो अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाए रखना चाहती थीं। इनमें से भी जूनागढ़ और हैदराबाद को सरदार वल्लभ भाई पटेल देश की स्वाधीनता के पश्चात भारत के साथ मिलाने में सफल हो गए थे, परंतु एक जम्मू कश्मीर की रियासत ऐसी रह गई थी जिसे वह चाहकर भी भारत के साथ नहीं मिला पाए थे, क्योंकि इस रियासत के बारे में पंडित जवाहरलाल नेहरू ने उनसे स्पष्ट मना कर दिया था कि इसके बारे में वह स्वयं निर्णय लेंगे।
पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अदूरदर्शिता का परिचय देते हुए जम्मू कश्मीर की रियासत को देश के लिए नासूर बना दिया। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अपने व्यक्तिगत पूर्वाग्रह के चलते महाराजा हरिसिंह को नीचा दिखाने का हर संभव प्रयास किया और कश्मीर को लेकर शेख अब्दुल्लाह का साथ देते रहे। शेख अब्दुल्ला के साथ कश्मीर के अधिकांश वे मुसलमान थे जो पिछले कई सौ वर्ष से कश्मीर में हिंदू के अस्तित्व को या तो मिटाने में लगे रहे थे या उसके शासन को किसी भी स्थिति में स्वीकार करने को तैयार नहीं थे। जबकि महाराजा हरि सिंह के साथ भारत की वह चेतना शक्ति कार्य कर रही थी जो भारत के मुकुट कहे जाने वाले कश्मीर को हर स्थिति – परिस्थिति में भारत के साथ लगाए रखना चाहती थी और जिसने इस कार्य के लिए सैकड़ों वर्ष तक संघर्ष किया था। इस प्रकार महाराजा हरि सिंह देश की सभी राष्ट्रवादी शक्तियों के प्रतीक बन गए थे। वह राष्ट्रीय चेतना का साकार रूप दिखाई देते थे।
कश्मीर की समस्या को 1947 या उसके बाद की घटनाओं के साथ जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए। इसे मुसलमानों के इस स्वभाव के साथ जोड़कर देखना चाहिए कि वे कश्मीर को सैकड़ों वर्ष से अपने हाथ में रखने षड़यंत्र रचते रहे थे । यहां पर उठने वाली हिंदू शक्तियों का दमन करने का कोई भी विकल्प उन्होंने छोड़ा नहीं था। कश्मीर को लेकर इस्लाम का दृष्टिकोण उसे लूटने और मिटाने का था। कश्मीर से हिंदू अस्तित्व को समाप्त करने का था । कश्मीर का पूर्ण इस्लामीकरण कर देने का था। वास्तव में मुसलमानों की इस सोच और स्वभाव की परिणति ही शेख अब्दुल्लाह था। जिसे पंडित जवाहरलाल नेहरू का आशीर्वाद प्राप्त होना बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण था। देश के नेता के रूप में पंडित जवाहरलाल नेहरू को कश्मीर के इतिहास को समझकर उस समय महाराजा हरिसिंह के साथ खड़ा होना चाहिए था।
महाराजा हरि सिंह यह भली प्रकार जानते थे कि उनके नेतृत्व में यदि कश्मीर का विलय पाकिस्तान के साथ हो गया तो वहां पर हिंदुओं को बहुत शीघ्रता के साथ समाप्त कर दिया जाएगा । महाराजा यह भी जानते थे कि जिस कश्मीर को लेकर उनके पूर्वजों ने लंबे समय से संघर्ष किया था उसका हिंदू स्वरूप समाप्त हो जाएगा। वह कश्मीर के प्राचीन वैदिक इतिहास से भी भली प्रकार परिचित थे। यही कारण था कि उनके हृदय में भारत के प्रति प्रेम का सागर लहराता था। परंतु नेहरू की हठधर्मिता के चलते और कश्मीर की भौगोलिक स्थिति के कारण वह स्वयं भी उस समय दुविधा में फंस गए थे। जम्मू कश्मीर से भारत आने का रास्ता केवल पठानकोट से ही था। शेष सारे मार्ग पाकिस्तान की ओर ही जाते थे। रावलपिंडी और स्यालकोट के मुख्य मार्ग अब पाकिस्तान के पास थे।
महाराजा की जड़ों को काटने और उन्हें शक्तिहीन कर समाप्त करने के नेहरू के षड़यंत्रों को उस समय भारत के वायसराय माउंटबेटन का आशीर्वाद भी प्राप्त था। वह स्वयं भी पीछे से ऐसा हर कार्य कर रहा था जो कश्मीर को पाकिस्तान की गोद में डालने में सहायक हो सकता था। डॉक्टर गौरी नाथ रस्तोगी ने लिखा है कि — ‘माउंटबेटन जानते थे कि यदि जम्मू कश्मीर राज्य का विलय भारतीय संघ में हो गया तो सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण गिलगित का क्षेत्र आंग्ल अमेरिकी गुट के प्रभाव से निकल जाएगा और सोवियत संघ की सैनिक घेराबंदी की योजना साकार नहीं हो सकेगी। इसके विपरीत पाकिस्तान में कश्मीर का विलय होने से उन्हें यह सुविधा उपलब्ध होती रहेगी। माउंटबेटन एक कुशल सेनाधिकारी के साथ ही साथ कुशल कूटनीतिज्ञ भी थे। उन्होंने जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन प्रधानमंत्री रामचंद्र काक की अंग्रेजी पत्नी के माध्यम से काक को, काक के माध्यम से महाराजा हरि सिंह को काफी समय तक भारतीय संघ में शामिल होने से रोकने में सफलता प्राप्त की।’
उधर जिन्नाह भी महाराजा हरिसिंह पर दबाव बना रहा था कि जैसे भी हो वह एक बार पाकिस्तान के साथ आ जाएं । जिन्नाह महाराजा हरि सिंह को ही नहीं बल्कि कश्मीर की हिंदू जनता को भी मिटा देने के सपने संजो रहा था ।जिसे महाराजा भी भली प्रकार जान रहे थे। जिन्नाह की योजना के बारे में मेहरचंद महाजन ने कहा है कि — ‘जिन्नाह की योजना के अनुसार कश्मीर उसका होना था। मुगल सम्राटों की तरह वह कश्मीर को पाकिस्तान के हिस्से के रूप में देखना चाहता था और वहां की खुशनुमा आबोहवा का वह पाकिस्तान के गवर्नर जनरल की हैसियत से पूरा-पूरा लुत्फ उठाना चाहता था। वह उसे अपनी जेब में रखा हुआ सा मानता था चाहे वह मर्जी से शामिल हो या जबरदस्ती से।’
महाराजा हरिसिंह का प्रधानमंत्री रामचंद्र काक उस समय पाकिस्तान, जिन्नाह, माउंटबेटन और राष्ट्रद्रोही शक्तियों का मोहरा बन चुका था । उसकी मानसिकता को समझने में प्रधान महाराजा हरिसिंह को देर नहीं लगी । जैसे ही उन्होंने यह समझ लिया कि रामचंद्र काक देशद्रोही मानसिकता से ग्रस्त है तो उन्होंने उसे उसके पद से हटाकर जनरल जनकसिंह को अपना अंतरिम प्रधानमंत्री नियुक्त कर लिया। इस समय तक पाकिस्तान ने कबायली घुसपैठियों को भारत के कश्मीर में भेजना आरंभ कर दिया था। इसके पश्चात महाराजा ने मेहरचंद महाजन को अपना स्थायी प्रधानमंत्री बना लिया । जिसे नेहरू और शेख अब्दुल्लाह दोनों ही अच्छा नहीं मान रहे थे। यद्यपि सरदार पटेल महाराजा के निर्णय से सहमत थे।
पाकिस्तान के मोहम्मद अली जिन्नाह, लॉर्ड माउंटबेटन और शेख अब्दुल्लाह की तिक्कड़ी के साथ-साथ देश के प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की हठधर्मिता के चलते देश विरोधी शक्तियों ने उस समय महाराजा हरिसिंह और उनके प्रधानमंत्री मेहरचंद महाजन का अपहरण करने तक की योजना बनाई थी।
मेहरचंद महाजन ने अपनी पुस्तक ‘कश्मीर का कड़वा सच’ में इस बात की जानकारी देते हुए लिखा है कि :- ‘ मुझे और महाराजा साहब को अपहृत कर बंदूक की नोक पर जबरदस्ती विलय करा लेने की योजना थी। हमारी गतिविधियों की खबरें तुरंत पाक अधिकारियों को पहुंचा दी जाती थीं। इसी कारण सीमा पर हमारे दौरे का कार्यक्रम बनते ही पाकिस्तान के हाथों में पहुंच गया था । जम्मू का पुलिस अधीक्षक पाकिस्तान का जासूस था। उसकी योजना थी कि जब हम भिम्बर डाक बंगले पर भोजन कर रहे हों तब हमें कैद कर लिया जाए। भिम्बर गुजरात की ओर पाकिस्तानी सीमा के किनारे पर है और मुगलों के प्रसिद्ध कश्मीर मार्ग पर पड़ता है।
…….. एक अप्रत्याशित घटना लचक्र ने हमें बचा लिया। 20 की सुबह जब हम कठुवा की ओर पहुंचे तो एक चौराहा आया। जिससे एक सड़क कठुवा की ओर जाती थी और दूसरी अखनूर भिम्बर की ओर । महाराजा ने जीप चालक को कठुवा जाने की बजाए भिम्बर चलने के लिए हुक्म दिया । मैंने इस आधार पर प्रतिरोध किया कि कठुआ में और बीच के सारे पड़ावों पर अफ़सर लोग महाराजा का इंतजार कर रहे होंगे । जबकि भिम्बर की तरफ हमने अभी तक कार्यक्रम नहीं भेजा है और कोई इंतजाम नहीं हुए हैं। महाराजा ने मेरे प्रतिरोध को टाल दिया और कहा मैं किसी कार्यक्रम में बंधा नहीं हूं और शायद ही कभी उसके मुताबिक चलता हूं। चुनांचे हम अखनूर और भिम्बर गए और बहुत देर हो जाने के कारण मीरपुर न पहुंच पाए। सारी सीमा पर पाक हमलावर सक्रिय थे और दूर-दूर तक पूरा शमशान दिखाई देता था। हिंदू जनता सुरक्षित स्थानों में जा रही थी । हमसे जो बना हमने उसे आश्वासन दिया और रक्षा के कुछ प्रबन्ध किए। हमने दोपहर का खाना भिम्बर डाक बंगले में खाया। शहर की सुरक्षा के लिए निर्देश दिए और रात 10 बजे तक जम्मू लौट आए। जम्मू वापसी में सारे रास्ते सड़क के दोनों किनारों पर जलते घर दिखाई दिए । सेना अपनी छोटी सी संख्या से व्यवस्था फिर से कायम करने और लोगों की सहायता में लगी हुई थी। चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ मौके पर मौजूद था और कत्लेआम और व्यापक अग्निकांड को रोकने के लिए जो कुछ हो सकता था कर रहा था और तब जैसी योजना थी 21 अक्टूबर को गुजरात से संसद पर हमला आयोजित हुआ और झुंबर डाक बंगला जलाकर खाक कर दिया गया। हम भी उसके साथ जल मरे होते अगर हम महाराजा द्वारा निर्देशित पहले कार्यक्रम के अनुसार चलते। परंतु हमें महाराजा की भीतरी प्रेरणा ने पाकिस्तानी हाथों उस भयंकर मौत के फंदे से बचा लिया।’
महाराजा अपने सीमित संसाधनों के माध्यम से अपनी सेना के द्वारा पाकिस्तान के इस भयंकर आक्रमण का सामना कर रहे थे। भारत भक्त महाराजा की आत्मा रो रही थी और उनसे बार-बार पूछ रही थी कि देश का नेतृत्व उनके साथ क्यों नहीं सहयोग कर रहा है ? परंतु वह इस सारी स्थिति के समक्ष छंटपटाकर रह जाते थे। उधर पाकिस्तानी शासक महाराजा हरिसिंह और पंडित जवाहरलाल नेहरू के बीच के मतभेदों का लाभ इस रूप में उठा लेना चाहते थे कि कश्मीर यथाशीघ्र उनके हाथों में आ जाएगा। पंडित जवाहरलाल नेहरू विलय पत्र में भी अड़ंगा डालने का प्रयास कर रहे थे।
अंग्रेज भारत भक्तों को दंड और देशद्रोही को पुरस्कार दिया करते थे । उनकी इस प्रकार की नीति का समर्थन गांधी जी ने किया। जब देश स्वाधीन हुआ तो गांधी के शिष्य नेहरू ने भी इसी नीति को जारी रखा। उसी नीति के चलते कश्मीर में महाराजा हरि सिंह का शोषण और मानसिक दोहन किया जा रहा था । जबकि देशद्रोही शेख अब्दुल्ला को प्रोत्साहित किया जा रहा था। नेहरू ने महाराजा हरिसिंह के विलय पत्र को भी तब स्वीकार किया था जब महाराजा हरि सिंह ने इस बात पर अपनी सहमति दे दी थी कि वह शेख अब्दुल्ला को सत्ता सौंपने में किसी प्रकार की हिचक नहीं करेंगे और साथ ही अपने आप जम्मू कश्मीर छोड़ कर बाहर चले जाएंगे।
इस प्रकार एक देशभक्त को ‘देश निकाला’ दे दिया गया और एक गद्दार को जम्मू कश्मीर की गद्दी दे दी गई। कांग्रेस अपने इस प्रकार के कुसंस्कार को आज तक भी अपनाए हुए है। 27 अक्टूबर 1947 को जब महाराजा हरि सिंह ने विलय पत्र पर हस्ताक्षर कर जम्मू कश्मीर को भारत के साथ विलय किया तो उस विलय पत्र के साथ भारत जीता नहीं था । नेहरू की मूर्खता के कारण भारत हार गया था । क्योंकि जिस कश्मीर को अपने हाथों में रखने के लिए हमने सदियों तक संघर्ष किया था उस कश्मीर को नेहरू ने सोने की थाली में सजाकर उसी मानसिकता के शेख अब्दुल्ला को सौंप दिया जो कश्मीर में सदियों से लोगों का खून बहाती रही थी और हिंदुओं को चुन – चुनकर मारते रहने का कारण रही थी।
उर्दू दैनिक ‘मिलाप’ ने अप्रैल 1952 में लिखा था – ‘क्या यह महाराजा हरिसिंह का दोष था कि उसने कश्मीर को भारत में विलय करने की घोषणा की? उसकी विलय संबंधी घोषणा के अभाव में हमारे पास आज भी कश्मीर को भारत का अंग मानने का कोई आधार नहीं है। …… अन्य बड़े भारतीय राजाओं की भांति कश्मीर के महाराजा को भी एक संवैधानिक शासक बनाया जा सकता था। उसकी उपस्थिति कश्मीर की एकता की गारंटी होती । इस गारंटी को अब खत्म कर दिया गया है और उन्हें कश्मीर को झगड़े और गड़बड़ी के हवाले कर दिया गया है।’
यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि देशभक्त महाराजा हरिसिंह को जम्मू कश्मीर से देश निकाला देकर मुंबई रहने के लिए मजबूर किया गया और जब वह संसार से विदा हुए तो उससे पहले उन्हें अपनी प्यारी कश्मीर की मिट्टी देखने तक का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ। जबकि निजाम हैदराबाद जैसे गद्दार को नेहरू एक करोड़ वार्षिक वेतन देते रहे थे। महाराजा हरि सिंह देशभक्त था, इसलिए उसे तिरस्कार मिला और निजाम हैदराबाद देश का गद्दार था, इसलिए उसको पुरस्कार मिला। वाह री कांग्रेस ! तेरी नीतियां क्या कमाल की रही हैं ?
कांग्रेस के नेताओं की सहमति से उस समय शेख अब्दुल्लाह ने सत्ता संभालते ही ‘मुकम्मल आजादी’ की वैसे ही घोषणा की थी जैसे अभी कुछ समय पहले जेएनयू के कुछ देशद्रोही विद्यार्थियों ने ‘मुकम्मल आजादी’ को लेकर नारे लगाए थे। इस प्रकार पता चलता है कि हमारे देश में एक मानसिकता है जो देश विरोधी कार्यो में लगी रहती है। वास्तव में महाराजा हरी सिंह को सत्ता से हटाने के पश्चात शेख अब्दुल्लाह जम्मू कश्मीर का बादशाह बन जाना चाहता था। वह कश्मीर को वैसे ही उपभोग करना चाहता था जैसे उससे पहले के मुस्लिम शासकों ने कश्मीर का उपभोग किया था। नेहरू और उनके जैसे कांग्रेसी मानसिकता के लोगों ने कश्मीर को शेख अब्दुल्ला को सौंपकर अपने राष्ट्रभक्त लोगों की भावनाओं का अपमान तो किया ही साथ ही सैकड़ों वर्ष तक जो हिंदू वीर कश्मीर को लेने के लिए संघर्ष करते रहे थे, उनके बलिदान को भी उन्होंने एक झटके में भुला दिया। नेहरू की इस प्रकार की भूलों के चलते वर्तमान कश्मीर का नया दर्दनाक दौर आरंभ हुआ।
समय रहते शेख अब्दुल्ला की मूर्खतापूर्ण और देशद्रोही सोच की जानकारी मुख्य कमांडर जनरल परांजपे ने पंडित जवाहरलाल नेहरू को दी थी। जिस पर नेहरू ने उनसे कड़े शब्दों में कह दिया था कि ‘जो शेख अब्दुल्लाह वही करो।’
इसका अभिप्राय था कि देश के एक महत्वपूर्ण प्रदेश को एक देशद्रोही की सोच के हवाले करने की मूर्खता पर नेहरू को कोई पश्चाताप अभी तक नहीं था। देश के कांग्रेसी चाहे नेहरू के कोट पर लगे गुलाब के फूल की जितनी प्रशंसा क्यों न करें ? पर सच यह था कि नेहरू जी ने अपने इस गुलाब की कीमत पर कश्मीर के केसर को हिंदुओं के खून के गारे में लथपथ कर दिया था।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
मुख्य संपादक, उगता भारत