मोदी का मनमोहनी बजट
नरेंद्र मोदी सरकार का पहला बजट आ गया। हर बजट में हर आदमी क्या देखना चाहता है? सबसे पहले वह यह देखना चाहता है कि इस बजट में मेरे लिए क्या आ रहा है और मेरे पास से क्या जा रहा है? बजट की इस भाषा को समझने वाले लोग भारत में कितने होंगे? मुश्किल से 10-15 करोड़ लोग! इन 10-15 करोड़ लोगों के लिए यह बजट सचमुच मनमोहक है। इसे हम मनमोहक इसलिए भी कह सकते हैं कि यह मनमोहन-बजटों का ही विस्तार है। इसमें कोई चमत्कारी जलवा नहीं है।इस मोदी-बजट की आलोचना करते हुए सोनिया गांधी ने ठीक ही कहा है कि इसमें नया क्या है। शायद इसीलिए वित्तमंत्री अरुण जेटली के बजट से वे लोग निराश हैं, जिन्होंने यह समझ लिया था कि नरेंद्र मोदी के हाथ में कोई जादू की छड़ी है, जिसे वे प्रधानमंत्री बनते ही घुमाएंगे और देश से गरीबी, बेरोजगारी और अशिक्षा समाप्त हो जाएगी।
सिर्फ डेढ़ माह पहले बनी मोदी सरकार से आप क्या-क्या उम्मीदें कर सकते हैं? पिछले छह हफ्तों में सबसे ज्यादा चर्चा और चिंता का विषय रही है, अचानक बढ़ी महंगाई! इस महंगाई पर काबू पाने के लिए जमाखोरों पर सरकार हमला बोलेगी ही, लेकिन यह बजट का विषय नहीं है। जो बजट ने किया है, वह यह कि लगभग तीन-चार करोड़ करदाताओं के हाथ में कुछ ज्यादा नोट रख दिए हैं ताकि वे मंहगाई की मार को झेल सकें। आयकर में छूट की सीमा 50 हजार रुपए बढ़ाकर मध्यम वर्ग और युवा व्यवसायियों को खुश कर दिया गया है। धारा 80सी के तहत टैक्स फ्री निवेश की सीमा भी 50 हजार से बढ़ाकर डेढ़ लाख कर दी गई है। नौजवानों के लिए रोजगार के नए अवसर पैदा करने के लिए 10 हजार करोड़ रुपए का कोष भी बनाया गया है। इसी प्रकार कर्मचारी भविष्य निधि की न्यूनतम मासिक पेंशन बढ़ाकर एक हजार रुपए प्रतिमाह कर दी गई है। इससे 28 लाख पेंशनभोगियों को सीधा लाभ मिलेगा।
प्रतिरक्षा, बीमा और भवन-निर्माण में विदेशी विनिवेश को 49 प्रतिशत तक की छूट देने से अर्थव्यवस्था में काफी उछाल आने की संभावना है। प्रतिरक्षा-उत्पादन का प्रबंधन भारतीय हाथों में होने से न केवल रोजगार बढ़ेगा बल्कि फौजी साजो-सामान की तकनीक का भी स्वदेशीकरण होगा। विदेशी पूंजी बड़े पैमाने पर आएगी तो अपने साथ कुछ खतरे भी लाएगी, लेकिन भारत को सबसे बड़ा दूरगामी लाभ यह होगा कि विदेशी फौजी साज-सामान पर होने वाला बेतहाशा खर्च घटेगा। फौजी खरीद में होने वाली रिश्वतखोरी पर भी काबू पाया जा सकेगा। इस बजट में भ्रष्टाचार-नियंत्रण पर वित्तमंत्री ने अपना मुंह नहीं खोला है जबकि यह सरकार इसी मुद्दे के कारण सत्तारूढ़ हुई है, लेकिन जो प्रस्तावित योजनाएं हैं, उनके लागू होने पर भ्रष्टाचार अपने आप घटेगा। शिक्षा, स्वास्थ्य, पेयजल और सड़क निर्माण की महत्वाकांक्षी योजनाओं पर यदि ठीक से अमल हुआ तो जनसाधारण को उसका सीधा लाभ मिलेगा।
इस बजट को किसी विचारधारा के खांचे में फिट करना जरा मुश्किल है। यह पूंजीपतियों का बजट है भी और नहीं भी है। पिछली सरकारों की तरह ‘निगमों’ को जरूरी रियायतें दी गई हैं। हमारे वामपंथी भाइयों का कहना है कि उन्हें पांच लाख करोड़ से ज्यादा की कर-छूट मिलती है, लेकिन क्या वे यह बताएंगे कि लाखों करोड़ का जो खर्च भारत सरकार करती है, वह कहां से आता है? वह किसानों, मजदूरों और दुकानदारों से तो नहीं आता है। सरकार ने इस बजट में बड़े निगमों के लिए यदि मैदान साफ कर दिया होता तो सेंसेक्स का जो हाल हुआ है, वह नहीं होता। किसान लोगों का माल सड़ने से बचे और मंडियों तक आसानी से पहुंच सके और उसे सारे देश में पहुंचने की निर्बाध सुविधा मिले, इस हेतु भी इस बजट में 500 करोड़ की राशि रखी गई है। हालांकि यह राशि अपर्याप्त है, लेकिन शुरुआत अच्छी है। अनुसूचित जातियों और जनजातियों के विकास के लिए काफी राशि तय की गई है। 82 हजार करोड़ की इस राशि का उपयोग अगर ठीक ढंग से हुआ तो हमारे समाज के इस वंचित वर्ग को आगे बढ़ने का अच्छा मौका मिलेगा। मोदी सरकार ने अपने बजट में टुकड़ों-टुकड़ों में अनेक वर्गों का हित संपादन किया है। कश्मीर से विस्थापित पंडित समुदाय के लिए 500 करोड़ रुपए, वाराणसी के हथकरघा उद्योग में काम करने वाले मुसलमानों के लिए 50 करोड़, मदरसों के आधुनिकीकरण के लिए 100 करोड़, धार्मिक पर्यटन के लिए पांच यात्रा-तंत्र बनाने के लिए 500 करोड़, गंगा और नदियों की सफाई के लिए 2000 करोड़, पूर्वोत्तर में रेलवे के लिए 1000 करोड़, ग्रामीण विकास के लिए 80,093 करोड़ रु. का प्रावधान किया गया है। जाहिर है कि इन राशियों का उपयोग लोगों को थोकबंद फायदा पहुंचाने के लिए किया जाएगा। यदि यह बजट मुट्ठीभर पूंजीपतियों के फायदे के लिए होता तो महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार योजना बंद कर दी जाती। बेरोजगार ग्रामीण मजदूरों को साल में 100 दिन काम देने की इस योजना को बेगार बढ़ाने वाली योजना भी कहा गया है, लेकिन मोदी सरकार ने इसे खत्म करने की बजाय इसकी राशि में 990 करोड़ रुपए की बढ़ोतरी कर दी है। पिछली सरकार की अनेक लोक-मंगलकारी योजनाओं को इस सरकार ने न केवल स्वीकार किया है बल्कि उन्हें बेहतर बनाने का वादा भी किया है। वित्तमंत्री ने कई वस्तुओं के करों पर छूट दी है और कई पर कर बढ़ा दिया है। इससे कुछ लोग खुश होंगे और कुछ नाराज, लेकिन ऐसी पैंतरेबाज़ी तो हर बजट में होती है। असली बात तो यह है कि चिदंबरम के बजट की तरह इस बजट में भी राजकोषीय घाटे को सकल घरेलू उत्पाद का 4.1 प्रतिशत रखने का संकल्प दोहराया है। प्रतिरक्षा खर्च 12.5 प्रतिशत बढ़ाया गया है, जो कि शिक्षा, स्वास्थ्य आदि के खर्च से दुगुना है।
सवाल यह है कि वित्तमंत्री ने कालेधन पर मौन क्यों साध रखा था? हमारी सफेद धन की अर्थव्यवस्था से भी बड़ी है, काले धन की अर्थव्यवस्था! यदि इस समानांतर व्यवस्था पर काबू पाया जा सके और विदेशों में जमा काला धन वापस लाया जा सके तो राजकोषीय घाटा शून्य किया जा सकता है। कालाधन विरोधी आंदोलन ने मोदी की हवा बनाने में जो मदद की, क्या उसे वित्तमंत्री भूल गए? यह ठीक है कि देश में बुलेट ट्रेनों, 100 नए शहरों, सर्वसुलभ इंटरनेट, आईआईटी और मेडिकल इंस्टीट्यूटों की कतारें लग जाएंगी, लेकिन इन सब कतारों में सबसे पीछे खड़े आदमी का क्या होगा? यह आदमी वही है, जिसका रोजाना खर्च 32 रुपए और 28 रुपए बताया जाता है और जिसकी ताज़ा संख्या 36 करोड़ मानी जा रही है। यह आंकड़ा बनावटी है, नकली है, कागजी है। भारत में गरीबों की संख्या लगभग 100 करोड़ है। ये ऐसे लोग हैं, जिन्हें रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, चिकित्सा और मनोरंजन उचित मात्रा में उपलब्ध नहीं है। मैं पूछता हूं, क्या किसी भी बजट में इन लोगों का भी यथेष्ट ध्यान रखा जाता है? इन्हें तो हमारी सुविधाओं की थाली से गिरी जूठन चाटने के लिए मजबूर होना पड़ता है। न ये हमारे बजट को समझते हैं और न हमारा बजट इनको समझता है। चाहे वह बजट हमारे लिए कितना ही मनमोहक हो!