गांधी के एकपक्षीय चिंतन के कारण हुई हिंदी की दुर्दशा
डॉ. विवेक आर्य
महात्मा गाँधी के जीवन को मैं जितना पढ़ता जाता हूँ। उतना मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचता हूँ कि वर्तमान में देश की जितनी भी समस्याएं है। उन सभी की जड़ में उनका एकपक्षीय चिंतन है। अति-अहिंसावाद और मुस्लिम तुष्टिकरण की उनकी विचारधारा में देश के विभाजन होने एवं लाखों हिन्दुओं की हत्या होने के बाद भी कोई परिवर्तन न होना। केवल उनकी हठधर्मिता को सिद्ध करता है। राष्ट्रभाषा हिन्दू और उसकी लिपि देवनागरी को लेकर भी उनकी यही स्थिति थी। 17 जुलाई 1947 को भारतीय विधान परिषद की सभा में बहुमत से हिंदी को राष्ट्रभाषा और देवनागरी लिपि को राष्ट्रलिपि के रूप में घोषित करने का प्रस्ताव पारित हो गया। आश्चर्य तब हुआ जब प्रजातन्त्र के सभी नियमों का उल्लंघन करते हुए गाँधी जी ने कांग्रेस द्वारा स्वीकृत इस प्रस्ताव को अगले अधिवेशन में नहीं आने दिया। हिंदी या हिंदुस्तानी शीर्षक लेख में 3 अगस्त को ‘हरिजन सेवक’ में उन्होंने लिखा कि ‘राष्ट्रभाषा का सवाल करीब दो माह के लिए मुल्तबी (स्थगित) हो गया है। जब विधानसभा फिर मिलेगी तब इस चीज का फैसला होगा। इससे से लोगों को ठण्डे दिल और साफ़ दिमाग से सोचने का मौका मिलेगा।’
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गाँधी जी ने एक भी प्रबल युक्ति इस सन्दर्भ में नहीं दी कि क्यों हिंदी को राष्ट्रभाषा और देवनागरी को लिपि न बनाया जाए और क्यों एक कृत्रिम और कल्पित हिंदुस्तानी को राष्ट्रभाषा घोषित किया जाए। उनके अनुसार न तो देवनागरी लिपि में लिखी हुई और संस्कृत शब्दों में भरी हुई हिंदी और न फारसी लिपि में लिखी हुई फारसी लफ्जों से भरी हुई उर्दू ही हिंदुस्तान की दो या ज्यादा जातियों को एक दूसरी से बांधने वाली जंजीर बन सकती है। यह काम तो दोनों के मेल से बनी हुई हिंदुस्तानी ही कर सकती है जो दोनों से ज्यादा स्वाभाविक है और देवनागरी या फारसी लिपि में लिखी आती है। … जिस तरह में उर्दू भाषा और लिपि सिख रहा हूँ उसी तरह मेरा मुसलमान भाई भी मेरी भाषा और लिपि सिखने-समझने की कोशिश करता है या नहीं। … करीब-करीब सब मौलवी हिंदी या हिंदुस्तानी नहीं जानते। उस में नुकसान उनका है, इत्यादि। 10 अगस्त के ‘हरिजन सेवक’ में ‘गरविला गुजरात भी’ इस शीर्षक लेख में महात्मा जी ने यह स्वीकार किया है कि -‘ मैं यह कबूल करता हूँ कि हिंदुस्तानी पर मेरा जोर मुसलमान भाइयों के खातिर है। यहाँ में गुजरात के मुसलमानों की बात नहीं करता। वे तो उर्दू जानते ही नहीं। वे बहुत मुश्किल से उर्दू सीखते है। इत्यादि। ‘
इन विचारों से स्पष्ट है कि गाँधी जी अपनी चिर परिचित मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति के चलते मुसलमानों को प्रसन्न करने के लिए उर्दू मिश्रित हिंदी को अपनाने पर जोर दे रहे थे। उन्होंने एक अन्य कथन दिया कि -‘ मुझे तो दिल्ली में रोज हिन्दू और मुसलमान मिलते रहते हैं। इनमें से ज्यादातर हिन्दुओं की भाषा में संस्कृत के शब्द कम से कम रहते हैं, फारसी के हमेशा ज्यादा। नगरी लिपि तो वे जानते ही नहीं। उनके खत या तो उर्दू में या टूटी-फूटी अंग्रेजी में होते हैं। अंग्रेजी में लिखने के लिए मैं उन्हें डांटता हूँ तो वे उर्दू लिपि में लिखते हैं। अगर राष्ट्रभाषा हिंदी लिपि नागरी, तो इन सबका क्या हाल होगा? (हरिजन सेवक 10-8-47)
गाँधी जी के विचारों का प्रति उत्तर देते हुए धर्मदेव जी विद्यामार्तण्ड ने सार्वदेशिक पत्रिका के सम्पादकीय में लिखा कि-
‘गाँधी जी ने यहाँ केवल कुतर्क किया। उत्तर भारत में रहने वाला हिन्दू विगत शताब्दियों में मुसलमानों के संग से उर्दू-फारसी का अधिक प्रयोग करने लग गया है। तो इस आधार पर बंगाल, गुजरात, उड़ीसा, महाराष्ट्र आदि प्रान्त निवासियों जिनकी संख्या बहुतायत हैं। उनके ऊपर उर्दू-फारसी को जबरदस्ती लादना कहाँ तक उचित है? इन प्रदेशों एवं उनकी प्रान्तीय भाषाओं में संस्कृतनिष्ठ आर्यभाषा के शब्द बहुतायत में पाए जाते हैं। इसलिए उन पर उर्दू-फारसी लादना अत्याचार नहीं तो क्या है? जो देवनागरी लिपि और हिन्दू नहीं जानते उन्हें इसका अभ्यास करवाने की आवश्यकता है अथवा उनके ऊपर कृत्रिम हिंदुस्तानी लादने की आवश्यकता है। जैसे गुजरात के मुसलमान उर्दू नहीं जानते वैसे अन्य प्रांतों के मुसलमान भी उर्दू नहीं जानते। फारसी लिपि लादना भी अव्यावहारिक है। इसलिए यह सभी के ऊपर अत्याचार हैं। संस्कृतनिष्ठ हिंदी और देवनागरी लिपि से सम्पूर्ण राष्ट्र को एक सूत्र में पिरोया जा सकता हैं। ‘
इतिहास इस बात का साक्षी है कि देश की भाषा की समस्या को 1947 में सरलता से सुलझाया जा सकता था। उसे सुलझाने के स्थान पर भाषावाद, प्रान्तवाद, क्षेत्रवाद आदि में इस प्रकार से उलझा दिया गया कि देश की अखण्डता और अस्मिता को चुनौती मिलने लगे। इस समस्या की जड़ में खाद डालने का काम गाँधी जी ने किया। यह अतिशयोक्ति नहीं कटु सत्य है।