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आतंकवाद

इस्लामिक कट्टरवाद पर गहराते प्रश्न

नीरज

पिछले दिनों कर्नाटक हाईकोर्ट ने ये कहते हुए शिक्षण संस्थानों में हिजाब पहनने पर रोक लगा दी कि हिजाब इस्लामी परम्परा का हिस्सा नहीं है। फैसले के बाद मुख्य न्यायाधीश रितु राज अवस्थी को जान से मारने की धमकी दी गई। इस बारे में एक वीडियो सामने आया जिसमें धमकी देने वाले बता रहे थे कि उन्हें पता है कि जज सुबह घूमने किस पार्क में जाते हैं। धमकी के बाद तीनों तीनों जजों को Y श्रेणी की सुरक्षा दे दी गई। लेकिन ये धमकी एक बार फिर इस्लामिक कट्टरपंथियों को लेकर बहुत से सवाल खड़े करती है।
सवाल खड़ा होता है कि जब भी चीज़ें इन कट्टरपंथियों के मुताबिक नहीं होती तो वो सीधे मरने-मारने पर उतारू क्यों हो जाते हैं।
फ्रांस में कोई मैगजीन कोई कार्टून बनाती है तो आप उसके पूरे स्टाफ की हत्या कर देते हैं। कोई तस्लीमा नसरीन किताब लिखती है तो उसे देश छोड़ना पड़ जाता है। कोई सलमान रशदी मज़हब पर टीका करता है तो उसके खिलाफ फतवा जारी हो जाता है, अदालत में केस चलने के बावजूद किसी कमलेश तिवारी का दिनदहाड़े गला रेत दिया जाता है और जब फैसला तुम्हारे पक्ष में नहीं आता, तो सीधे जज को ही मारने की धमकी दे दी जाती है।

मतलब, या तो तुम मेरी बात मानो, नहीं तो मरने के लिए तैयार रहो। बीच में संवाद, सुधार या माफी की गुंजाइश ही नहीं! और फिर आप शिकायत करते हैं कि मेरे मज़हब को लेकर ‘फोबिया’ क्यों बढ़ रहा है। फोबिया कोई हवा में पैदा नहीं होता। न ही कोरोना की तरह किसी की छींक से फैलता है। फोबिया असल, जायज़ और कड़वे अनुभवों से पैदा होता है।
कुछ वक्त पहले मैं ओशो का एक ऑडियो टेप सुन रहा था जिसमें पाकिस्तान से आए एक शख्स फिरोज़ ने उनसे पूछा कि ऐसा क्यों है कि दुनिया का सबसे नया धर्म होने के बावजूद इस्लाम सबसे पुराना लगता है। इस पर रजनीश का जो जवाब था वो आज भी बहुत से लोगों के लिए सोचने का विषय है। रजनीश ने कहा, सबसे नया होने के बावजूद इस्लाम सबसे पुराना इसलिए लगता है क्योंकि उसमें टीका की इजाज़त नहीं है। दुनिया के हर धर्म ने अपने मानने वालों को ये छूट दी कि वो उसकी धार्मिक मान्यताओं पर बहस करें, उसकी धार्मिक किताबों में लिखी बातों पर तर्क करें, और हो सके तो उसमें सुधार भी करें, लेकिन इस्लाम ऐसी कोई छूट नहीं देता।
रजनीश ने आगे कहा कि यही वजह है कि मैं हर मज़हब और सम्प्रदाय पर टिप्पणी करता हूं लेकिन इस्लाम पर बहुत कम, क्योंकि मैं जानता हूं कि जिन लोगों से मैं मुखातिब हो रहा हूं उनका रवैया क्या है।
हिजाब विवाद के दौरान एक दलील अक्सर दी गई कि बच्चियों पर हिजाब कोई थोप थोड़ा रहा है। अगर कोई अपनी मर्ज़ी से पहनना चाहता है, तो उसे रोका क्यों जा रहा है! ‘अपनी मर्जी’…क्या आप मज़ाक कर रहे हैं।
सोचिए, जब मर्जी का फैसला न आने पर आप जजों तक को जान से मारने की धमकी दे देते हैं। अबू आज़मी जैसे जनप्रतिनिधि तक जजों की समझ पर ही सवाल खड़े कर देते हैं। मौलानाओं द्वारा जजों की लानत-मलानत हो रही है। तो आपको लगता है कि इन लोगों के दायरे में जो औरतें आती होंगी ये उन्हें ‘अपनी मर्ज़ी’ से कुछ करने की छूट मिलती होगी?
चुनावों में तो हर किसी को अपने हिसाब से वोट देने की छूट होती है। यहां तक कि आप किसी से पूछ भी नहीं सकते कि उसने किसको वोट दिया। मगर दो दिन पहले बरेली में एक मुस्लिम महिला ने मीडिया में आकर बताया कि यूपी चुनावों में बीजेपी को वोट करने के कारण उसके तलाक की नौबत आ गई है। महिला ने बताया कि बीजेपी सरकार ने महिलाओं के लिए जो योजनाएं चलाई हैं उससे प्रभावित होकर वोट दिया था। जब अपने कहे के मुताबिक वोट न करने पर एक शौहर अपनी बीवी को तलाक तक दे देता है तो उस समाज में ‘औरतों की मर्ज़ी’ के क्या मायने हैं आप अच्छे से समझ सकते हैं?
ईरान में तो महिलाओं ने हिजाब के खिलाफ इतने कैंपेन चलाए। इसके लिए उन्होंने अपनी मूल ‘आर्यन पहचान’ तक हवाला दिया। इतने विरोध सहे। जेल गईं। सार्वजनिक तौर पर ज़लील हुईं। पर हुआ क्या? क्या इस सबसे कट्टरपंथी झुक गए। उन्हें अपनी मर्ज़ी चलाने दी?
और यही बड़ा सवाल है कि आप अपनी मज़हबी नाइत्तेफाकी से कैसे डील करते हैं। जो आपके हिसाब से धर्म सम्मत नहीं है उससे कैसा सुलूक करते हैं। खुद से जो अलग है, उससे कैसे एडजस्ट करते हैं। यही बताता है कि एक बहुधर्मी समाज में रहने के लिए आप कितने फिट हैं। एक बहुसांस्कृतिक समाज में रहने के लिए आप कितने तैयार हैं?
एक ऐसा समाज जहां लोगों की आपसे सांस्कृतिक असहमतियां भी होंगी, सुधार का दबाव भी होगा, आधुनिक होने का आग्रह भी होगा। लेकिन हर बार अगर आप इन असहमतियों, दबावों और आग्रहों पर हिंसक हो जाएंगे, तो सवाल पर उस समाज पर नहीं, बल्कि न बदलने की आपकी ही ढिठाई पर उठेंगे।
कश्मीर को लेकर एक वर्ग अक्सर ये बात बार-बार दोहराता है कि वहां जनमत संग्रह करवा लो। लोगों से पूछ लो कि उनकी मर्ज़ी क्या है? वो भारत के साथ रहना चाहते हैं, पाकिस्तान के साथ मिलना चाहते हैं या खुद को आज़ाद मुल्क बनाना चाहते हैं? इस दलील का सबसे बड़ा Selling Point यह है कि हम ‘लोगों की बात’ कर रहे हैं। ‘उनकी मर्ज़ी’ से फैसला लेना चाहते हैं!
अब इस मर्ज़ी की हकीकत जान लीजिए। 80 के दशक में जब कश्मीर में चुन-चुनकर पंडितों को निशाना बनाया गया तो उसकी सबसे बड़ी वजह ये थे कि वहां इस्लामी निजाम कायम करने की हसरत पालने वाले लोगों को पंडितों का ‘भारत प्रेम’ पसंद नहीं था। कश्मीरी पंडित उन्हें भारत सरकार के मुखबिर लगते थे।अपनी इस्लामी निजाम की हसरत में वो उन पंडितों को सबसे बड़ा रोड़ा मानते थे।

मैं कहता हूं कि आप हिंदुस्तानी सरकार को भाड़ में जान दीजिए। उसे अपना दुश्मन मानिए। लेकिन जब आप दिन-रात कश्मीरियों की ही मर्ज़ी की दुहाई देते हैं, दिन-रात कश्मीरियत की बात करते हैं, तो क्या वो ‘पंडित’ कश्मीरी नहीं थे। और जब आपने एक बार उनको कश्मीर से भगा दिया, तो फिर उस ‘जनमत संग्रह’ या कथित ‘जनता की मर्ज़ी’ या ‘कश्मीर के लोगों’ की राय के क्या मायने रह गए?
इसी महीने की दो तारीख को कश्मीर के कुलगाम के सरांदू इलाके में आतंकियों ने मोहम्मद याकूब नाम के एक कश्मीरी मुस्लिम की गोली मारकर हत्या कर दी। जानते हैं उसका कसूर क्या था? उसका कसूर था कि वो पंचायत चुनाव लड़कर मुख्यधारा का हिस्सा बनना चाहता था। और कश्मीर में पंचायत चुनाव लड़ते ही मारे जाने वाले मोहम्मद याकूब कोई पहले कश्मीरी मुस्लिम और न ही आखिरी। याकूब की हत्या से एक दिन पहले ही आतंकियों ने बटमालू में मस्जिद के बाहर खड़े एक पुलिसवाले को गोली मारकर ज़ख्मी कर दिया था। इससे पहले पिछले साल 7 नवम्बर को बटमालू में ही आतंकियों ने गोली मारकर एक पुलिसवाले की हत्या कर दी थी।
मतलब साफ है। चाहे वो कश्मीरी पंडित हो, चाहे चुनाव लड़कर मुख्यधारा का हिस्सा बनने वाले कश्मीरी मुसलमान हो या फिर कश्मीर के ही पुलिसवाले…ऐसा हर वो शख्स, ऐसा हर वो वर्ग, जो कश्मीर में इस्लामी निजाम की स्थापना में रोड़ा बनेगा, वो मार दिया जाएगा। फिर इस देश के बुद्धिजीवी, कश्मीर के अलगाववादी, अरुंधति राय जैसे पेशेवर असंतुष्ट, कश्मीर में जनमत संग्रह करवाकर वहां की आवाम की राय जानने का दावा करते हैं। अरे भाई, ऐसे हर इंसान को तो आप चुन चुनकर मार डालते हैं जो आपसे नाइत्तेफाकी रखता है तो फिर इस ‘जनमत संग्रह करवा लो’ वाले ढोंग का क्या मतलब?
एक बात आपको समझनी होगी कि किसी भी फिल्म या राजनीतिक पार्टी की इतनी हैसियत नहीं होती कि वो लोगों को आपस में बांट पाए। आम से आम आदमी किसी भी कौम या वर्ग को लेकर अपनी राय अपने खुद के अनुभवों पर बनाता है। वो अनुभव जो उसने उन लोगों के साथ रहकर First hand हासिल किए हैं, अलग-अलग मुद्दों पर उनकी राय, प्रतिक्रिया जान सुनकर बनाए हैं। इसलिए बार-बार ये बचकानी दलील देकर आम आदमी की कॉमन सेंस और उसकी निष्ठा पर सवाल मत खड़े कीजिए कि वो इतना गधा है कि एक फिल्म देखकर अपने असल अनुभवों को ताक पर रखकर खुद को ख्वामख्वाह ज़हर से भर लेगा।
ये समझना होगा कि कश्मीर से लेकर ईरान तक. और बरेली से लेकर कर्नाटक तक जिन तमाम घटनाओं का ज़िक्र मैंने ऊपर किया है ये मंगल ग्रह पर नहीं, इसी धरती पर घटी हैं। यहां के लोगों के बीच घटी हैं। यहीं के लोगों ने उसे देखा है और उस आधार पर अपने अनुभव बनाए हैं।
अंत में यही कहूंगा कि लोग बदलें, तो उनसे जुड़े अनुभव भी बदल जाते हैं। पर सवाल यही है…क्या वो बदलेंगे? शायद ये बदलाव देखने के लिए हमें ओशो से तो ज़्यादा आशावादी होना पड़ेगा!

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