जब पृथ्वीराज चौहान का तेजोमयी पुण्य प्रताप मां भारती के लिए अपना बलिदान देकर मां के श्री चरणों में विलीन हो गया, और जब ‘जयचंदी-छलप्रपंचों’ के कारण कई दुर्बलताओं ने मां केे आंगन में विदेशी आक्रांता को भीतर तक
‘गुलाम’ ने बनाया गुलाम?
कई इतिहासकारों ने इस बात के लिए कुतुबुद्दीन का विशेष गुणगान किया है कि वह एक गुलाम होकर भी भारत को ‘गुलाम’ बनाने में सफल रहा। इस बात का अर्थ कुछ यूं प्रकट किया जाता है कि जैसे भारत तो ‘गुलामों का भी गुलाम’ रहा है। ऐसी मान्यता या अवधारणा को आरोपित करने के पीछे का मंतव्य केवल हमें अपने ही विषय में हीन भावना से भर देना है।
‘तबकात’ के अनुसार-‘‘वह (कुतुबुद्दीन) एक बहादुर और उदार राजा था,…..पूर्व से पश्चिम तक उस समय उसके समान कोई राजा नही था। जब भी सर्वशक्तिमान खुदा अपने लोगों के सामने महानता और भव्यता का नमूना पेश करना चाहते हैं, वे वीरता और उदारता के गुण अपने किसी एक गुलाम में भर देते हैं…. अत: यह शासक दिलेर और दरियादिल था।’’
कुतुबुद्दीन ऐबक अपने प्रारम्भिक जीवन में कई हाथों में बिका। वह कई स्वामियों का सेवक रहा। अंत में जब वह गौरी का गुलाम बनकर उसकी सेवा में पहुंचा तो उसने अपने स्वामी के भारत विजय अभियान में और यहां मूर्ति पूजक हिंदुओं के विनाश कराने में विशेष रूचि दिखाई। जिसका स्वामी ही घोषित क्रूर और निर्दयी शासक रहा हो, उसके सेवक से आप दयाुलता या दरियादिली की अपेक्षा कैसे कर सकते हैं? यदि वह स्वयं क्रूर और निर्दयी ना होता, या हिंदू विनाशक ना होता तो वह सत्य है कि मौहम्मद गोरी जैसे शासक का वह कभी भी प्रिय ना रहा होता।
आतंक और अत्याचार का पर्याय
‘तबकात’ के उपरोक्त कीर्तिमान को असत्य सिद्घ करने के लिए हसन निजामी जैसे मुस्लिम लेखकद्वारा लिखित इतिहास ताजुलमा-आसीर (पृष्ठ 229 इसलिए एण्ड डाउसन) का यह उद्घरण ही पर्याप्त है। वह लिखता है-‘‘कुतुबुद्दीन ऐबक इस्लाम और मुसलमान का स्तम्भ है…..काफिरों का विध्वंसक है, उसने अपने आपको धर्म और राज्य के शत्रुओं (जिसका सीधा सा अथ हिन्दुओं से है) को उखाड़ फेंकने में लगा दिया, उसने हिंद की जमीन को उन लोगों के कलेजे के रक्त से इतना सराबोर कर दिया कि कयामत के दिन मोमिनों को खून का दरिया नावों से ही पार करना होगा…..जिस भी दुर्ग और गढक़र उसने धावा किया उसे अपने कब्जे में कर लिया, उसकी नींव और खम्भों…..हाथियों के पैरों के तले रौंदकर धूल में मिला दिया। ताजधारी रायों का सिर काटकर उसे सूलियों का ताज बना दिया। अपनी तलवार के दमदार पानी से मूर्ति पूजकों के सारे संसार को जहन्नुम की आग में झोंक दिया।’’
इन ‘महान कृत्यों’ से प्रसन्न होकर ही ‘तबकात’ ने कुतुबुद्दीन ऐबक को ‘दरियादिल’ कहा है। अब प्रश्न ये है कि यदि इतनी वीभत्स क्रूरता दरियादिली है तो फिर निर्दयता क्या होगी? क्या उसके लिए किन्हीं अन्य शब्दों की खोज करनी पड़ेगी?
अपनी स्वतंत्रता के लिए हिंदू का सतत संघर्ष
हसन निजामी के इसी कथन पर थोड़ा और विचार किया जाना चाहिए कि इतनी क्रूरताओं के मध्य भी (जबकि ताजधारी हिन्ंदू राजाओं के सिर काटकर उन्हें सूलियों का ताज बनाया जा रहा था, तब) हिंदू अपने देश धर्म की रक्षा के लिए तथा अपनी स्वतंत्रता के लिए सतत संघर्षशील रहा। उसने जहन्नुम की आग की परवाह नही की और धड़ाधड़ कटते सिरों को देखकर कभी आह नही की। उसकी चाह देशधर्म की बलिवेदी पर शीश चढ़ाना थी, और उसकी राह मां के लिए स्वतंत्रता का मार्ग प्रशस्त करना थी। उसे परवाह थी मां की स्वतंत्रता की, आह निकली तो मां के लिए बलिदान होते समय केवल इसलिए किअभी मैं मां की सेवा और क्यों नही कर सका? उत्कृष्ट देशभक्ति के इस भाव ने हिन्दू को उस आवारा बादल का सा रूप दे दिया था जो आकाश में ऊपर घूमता रहता है, पर जब उसे अपने शत्रु का नाश या संहार करना होता है तो उस पर बिजली भी गिराता है और फटकर उसे बहा ले जाने का कारण भी बनता है। देशभक्ति के इस बादल ने कुतुबुद्दीन को पहले दिन से ही चुनौती देने का कार्य किया।
हमने पूर्व पृष्ठों में उन युद्घों का वर्णन किया है, जो कुतुबुद्दीन ऐबक ने सुल्तान बनने से पूर्व किये थे और जिनमें हिंदू शासकों ने अपने शौर्य और पराक्रम का परिचय देकर विदेशी आक्रांता की इस देश में ‘साम्प्रदायिक राज्य’ स्थापित करने की रणनीति का पूर्ण सामथ्र्य से विरोध किया था। इन युद्घों में हांसी के जाटों के साथ किया गया संघर्ष, कन्नौज तथा अजमेर से रह-रहकर मिलने वाली चुनौती, गुजरात के अहिलवाड़ा का युद्घ, वीर मेढों के द्वारा दी गयी चुनौती, कालिंजर का युद्घ इत्यादि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
तुर्क साम्राज्य का संस्थापक
कुतुबुद्दीन ऐबक भारत में तुर्क सल्तनत का संस्थापक माना जाता है। उसने भारत में इस्लामिक साम्प्रदायिक राज्य की स्थापना की। वास्तव में इसी इस्लामिक साम्प्रदायिक राज्य की स्थापनार्थ ही पिछले पांच सौ वर्षों से विभिन्न मुस्लिम आक्रांता भारत पर आक्रमण करते आ रहे थे, जिनका सफलतापूर्वक प्रतिकार भारत के स्वतंत्रता प्रेमी राजाओं और उनकी प्रजा के द्वारा किया जा रहा था। इस प्रतिकार के विषय में रामधारी सिंह दिनकर अपनी पुस्तक ‘संस्कृति के चार अध्याय’ के पृष्ठ 237 पर लिखते हैं-‘‘इस्लाम केवल नया मत नही था। यह हिन्दुत्व का ठीक विरोधी मत था। हिंदुत्व की शिक्षा थी कि किसी भी धर्म का अनादर मत करो। मुस्लिम मानते थे कि जो धर्म मूर्ति पूजा में विश्वास करता है, उसे विनष्ट कर देना धर्म का सबसे बड़ा काम है।’’
इस मौलिकमतभेद के कारण इस्लाम और हिन्दू में संघर्ष होना निश्चित था।
जयचंद से युद्घ की तैयारी
कुतुबुद्दीन ऐबक ने जब भारत में प्रवेश किया तो उसने भी इसी परंपरा का निर्वाह किया और भारतीय धर्म का सर्वनाश कर इस्लाम का परचम फहराना अपना उद्देश्य घोषित किया। अपने इस उद्देश्य की प्राप्ति में उसे जयचंद बाधा दिखाई दिया, तो उसके नाश के लिए उसने गोरी के आदेशानुसार योजना बनानी आरंभ की। गोरी ने उसकी योजना से सहमत होकर एक सेना जयचंद के नाश के लिए भेजी। कन्नौज का शासक जयचंद उस समय कन्नौज से लेकर वाराणसी तक शासन कर रहा था। वाराणसी की पवित्र भूमि के रजकणों की देश और धर्म के प्रति पूर्णत: निष्ठावान धूलि भी उस पापी जयचंद का हृदय परिवर्तन नही कर पायी थी, और वह देश धर्म के प्रति कृतघ्नता कर गया था। मां भारती का श्राप उसे लगा और उसे अपने किये गये पापकर्म का दण्ड देने के लिए क्रूर काल ने अपने पंजों में कसना आरंभ कर दिया। कुतुबुद्दीन ऐबक अपनी सैन्य टुकड़ी के साथ भारत के कई नगरों और बहुत से गांवों को लूटता और मारकाट करता हुआ तेजी से कन्नौज की ओर बढ़ता आ रहा था।
जयचंद की सुखानुभूति और युद्घ में समाप्ति
जयचंद पृथ्वीराज चौहान को समाप्त कराने के पश्चात ये सुखानुभूति कर रहा था कि संभवत: मुस्लिम आक्रांता उसके साथ तो सदा ही दयालुता का व्यवहार करेंगे। पर जब उसने देखा कि कुतुबुद्दीन ऐबक जैसे गुलाम और उसके स्वामी मौहम्मद गोरी ने उसके विरूद्घ उसके विनाश की योजना बना ली है, और उसी पर काम करते हुए कुतुबुद्दीन ऐबक उसके राज्य की ओर बढ़ता आ रहा है तो वह पूर्णत: अचम्भित और आश्चर्यचकित रह गया। कुतुबुद्दीन ऐबक से युद्घ करना उसकी विवशता थी, और उसकी सेना व प्रजा भी उससे यही अपेक्षा करती थी कि उनका राजा भागे नही , अपितु शत्रु से युद्घ करे।
फलस्वरूप कुतुबुद्दीन ऐबक और जयचंद के मध्य भयंकर युद्घ हुआ। युद्घ के समय किसी मुस्लिम सैनिक का विषयुक्त बाण जयचंद को लगा और वह अपने हाथी से नीचे आ गिरा। नीचे गिरते ही उसका पापक्षय हो गया और शत्रु की जय हो गयी।
श्री पी.एन. ओक महोदय अपनी पुस्तक ‘भारत में मुस्लिम सुल्तान’ के पृष्ठ 132 पर किसी मुस्लिम लेखक को उद्घृत करते हुए लिखते हैं-‘‘भाले की नोंक पर उसके (जयचंद के) सिर को उठाकर सेनापति के पास लाया गया, उसके भीतर को घृणा की धूल में मिला दिया गया।… तलवार के पानी से बुतपरस्ती के पाप को उस जमीन से साफ किया गया और हिंद देश को अधर्म और अंधविश्वास से मुक्त किया गया।’’
बढ़ गयीं काशी की चिंताएं
इस प्रकार जयचंद को अपने किये का परिणाम मिल गया। पर उसकी मृत्यु ने देश की धार्मिक राजधानी के नाम से विख्यात रही काशी की चिंताएं बढ़ा दीं। हर देशभक्त भारतीय अब इस नगरी की सुरक्षा को लेकर चिंतित था। मुस्लिम सेना ने कुतुबुद्दीन ऐबक के नेतृत्व में अब इस धार्मिक नगरी की ओर प्रस्थान कर दिया। जहां, पवित्र प्यारा भगवाध्वज फहरा रहा था और अपने यश एवं कीर्ति की गाथा गा रहा था। उसे नही पता था कि नियति का दुष्चक्र कितनी तेजी से घूम रहा है और अगले ही क्षण अब क्या होने वाला है?
पलक झपकते ही विदेशी आक्रांता ऐबक का दुष्ट-दल इस ऐतिहासिक पावन धार्मिक नगरी में प्रवेश कर गया। यह तो निश्चित रूप से ज्ञात नही है कि यहां जनहानि कितनी हुई, परंतु इतना निश्चित है कि व्यापक जनहानि के पश्चात यहां के एक हजार मंदिरों को तोडक़र वहां मस्जिदें बना दी गयीं। व्यापक जनहानि का अनुमान आप इसी बात से लगा सकते हैं कि जहां एक हजार हिंदू मंदिर तोड़े गये हों, वहां कितने लोगों का संहार करना पड़ा होगा? धर्म पर अधर्म का, आस्था पर अनास्था का, श्रद्घा पर अश्रद्घा का और नैतिकता पर अनैतिकता का आक्रमण था यह। जिसे कुछ इतिहासकारों ने एक सहज सी बात कहकर उपेक्षित किया है।
एक हजार हिन्ंदू मंदिरों की लूट और व्यापक जनसंहार के फलस्वरूप भारत की यह पवित्र धार्मिक नगरी देशभक्तों की लाशों से पट गयी होगी, जो कि गिद्घों का भोजन बनी होंगी और काशी का आध्यात्मिक परिवेश उस समय मानव लाशों की दुर्गंध से दुर्गंधित हो उठा होगा। यह एक मौन प्रतिकार था, जिसमें जनता हथियारों से नही लड़ी पर शत्रु के सामने ‘सत्याग्रह’ के हथियार से अवश्य लड़ी। इस सत्याग्रह को जब गांधी जी ने अपना हथियार बनाकर प्रयोग किया तो उसे गांधी का स्वतंत्रता आंदोलन के लिए ‘अदभुत हथियार’ कहकर महिमामंडित किया गया। पर यह बात सच नही है, परंतु यह हथियार भारत की जनता का परंपरागत हथियार था, जिसे भारत के 1235 वर्षीय स्वतंत्रता आंदोलन में देश की जनता ने एकाधिक बार अपनाया। वाराणसी की जनता ने इसी हथियार से युद्घ किया और अपने मंदिरों की सुरक्षार्थ बड़ी संख्या में बलिदान दिये।
आज उन सत्याग्रहियों के मौन बलिदान निश्चय ही स्वतंत्र भारत के लोगों से अपना सम्मान चाहते हैं।