क्षमावान का भी कोई, बैरी पनप न पाय
गतांक से आगे….
जो राजा डरपोक हो,
और संन्यासी बनै कांप।
इनको भूमि निगलती,
ज्यों चूहे को निगलै सांप।। 653 ।।
‘संन्यासी बनै कांप’ से अभिप्राय है-जो ज्ञानवान संत हैं, किंतु नदी के रेत की तरह एक ही स्थान पर पड़े हैं।
दुष्टों की पूजा नही,
बोलै न वचन कठोर।।
संतों का आदर करै,
यश फेेले चहुं ओर।। 654 ।।
समर्थ क्षमा का दान दे,
और निर्धन धन का दान।
ऐसे जनों को स्वर्ग में,
मिलता ऊंचा स्थान ।। 655 ।।
प्रमादी जो दरिद्र हो,
और धनी न देवे दान।
शिला बांध जल में डुबा,
ऐसा वेद विधान ।। 656 ।।
उद्घरण :-द्र. अपघ्नन्तो अराव्ण: (ऋ 9/ 63/5)
तृण रहित स्थान पर,
अग्नि नही जलाय।
क्षमावान का भी कोई,
बैरी पनप न पाय ।। 657 ।।
बिन अग्नि जलता रहै,
जो क्षमा से रहै विहीन।
प्रतिशोध प्रतिघात तो,
लें जीवन का सुख छीन ।। 658 ।।
क्षमाशील का दोष ये,
जन समझें बलहीन।
ये तो दौलत दैव की,
क्या समझें मतिहीन ।। 659 ।।
समर्थ का भूषण क्षमा,
निर्बल का गुण होय।
चित्त को देती चैन है,
और शत्रुता को खोय ।। 660 ।।
जिसके कर में शोभती,
क्षमा रूपी तलवार।
उसके आगे दुष्टजन,
डाल देंय हथियार ।। 661 ।।
उदाहरण :-भगवान गौतमबुद्घ ने जब अंगुलिमाल डाकू की उद्दण्डता क्षमा कर दी, तो वह शर्मिंदा होकर भगवान गौतमबुद्घ के चरणों में गिर पड़ा, और अपने अभद्र व्यवहार पर अश्रुपूर्ण नेत्रों से पश्चात करने लगा, तथा अपने हथियार फेंककर साधु हो गया।
स्त्री, बाल और दास का,
धन अपना नही होय।
इनका धन तो उन्हीं का,
जो इनका स्वामी होय ।। 662 ।।
पर धन और पर नार को,
बुरी नजर मत देख।
एक दिन सब कुछ नष्ट हो,
ऐसे मिलते लेख ।। 663 ।।
‘ऐसे मिलते लेख’ से अभिप्राय है-ऐसे एक नही अनेक किस्से-कहानियां पढऩे और सुनने को मिलते हैं।
ज्ञान अनुभव में अल्प हो,
और हो चाटुकार।
बुद्घिमान को चाहिए,
करे ना इनसे विचार ।। 664 ।।
काबिल की जहां उपेक्षा,
और सत्ता में चण्डाल।
रोके से भी ना रूकै,
भय, मरण और अकाल ।। 665 ।।
काम, क्रोध और लोभ हैं,
तीनों नरक के द्वार।
इनके त्याग से होत है,
आत्मा का परिष्कार ।। 666 ।।
क्रमश: