डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा
सोशल मीडिया के प्लेटफार्मों के चलते पोस्टकार्ड ही नहीं अपितु अब तो ईमेल भी बेमानी होती जा रही है। ईमेल तो अब दस्तावेजों के आदान-प्रदान का माध्यम बनती जा रही है। हालांकि ईमेल का अपना महत्व आज भी बरकरार है।
बात भले ही अजीब लगे पर अब मनोविज्ञानी भी मानने लगे हैं कि सोशल मीडिया लोगों को तेजी से डिप्रेशन की ओर ले जा रहा है। देश-दुनिया में डिप्रेशन के आगोश में आने वाले लोगों की संख्या दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती जा रही है। पहली बात तो यह है कि क्या बड़े और क्या बालक और क्या पुरुष और क्या महिलाएं सभी का तेजी से रुझान सोशल मीडिया के किसी ना किसी माध्यम की ओर हो रहा है। दरअसल सोशल मीडिया अपनी बात कहने का प्लेटफार्म बन गया है तो लोगों को अपनी बात पोस्ट करते ही उस पर रिएक्शन की चाह भी तत्काल होने लगी है। किसी को भी एक क्षण की भी प्रतीक्षा नहीं रहती। ट्वीटर, फेसबुक, वाट्सएप, इंस्टाग्राम, मैसेंजर, शेयर चेट, कू, स्नैप चेट, हाईक, टेलीग्राम, मैसेज, रेडईट और ना जाने कितने ही सोशल मीडिया प्लेटफार्म दुनिया के देशों में चल रहे हैं। इनमें से कुछ केवल और केवल मात्र मनोरंजन के माध्यम हैं तो कुछ प्लेटफार्म अपना संदेश आसानी से पहुंचाने का प्रमुख माध्यम बन रहे हैं।
सोशल मीडिया के इन प्लेटफार्म के चलते पोस्टकार्ड ही नहीं अपितु अब तो ईमेल भी बेमानी होती जा रही है। ईमेल तो अब दस्तावेजों के आदान-प्रदान का माध्यम बनती जा रही है। हालांकि ईमेल का अपना महत्व आज भी बरकरार है। सोशल मीडिया के कारण ही साधारण मोबाइल का स्थान अब एंड्राइड व कैमरा वाले मोबाइलों ने ले लिया है। इससे मोबाइल मार्केट में भी तेजी से विस्तार हुआ है तो नेटवर्क प्रदाता कंपनियों की बल्ले बल्ले का कारण भी बन गया है। हालांकि डेटा देने के नाम पर कंपनियों में प्रतिस्पर्धा भी बढ़ी है तो बाजार में अधिक से अधिक पकड़ के लिए नित नए प्रयोग भी होने लगे हैं। सेल्फी और फोटो के लिए कैमरों की क्वालिटी और मोबाइल में स्टोरेज कैपेसिटी को भी ग्राहकों को लुभाने का माध्यम बनाया जा रहा है। हालांकि सोशल मीडिया के दुरुपयोग के मामले जिस तेजी से सामने आ रहे हैं वह भी एक नई चुनौती बनती जा रही है। पिछले तीन साल में कोरोना ने भी बहुत कुछ बदल कर रख दिया है। स्कूलों के बंद होने से ऑनलाइन पढ़ाई का जो दौर चला है उसके सकारात्मक परिणामों की तुलना में दुष्परिणाम भी सामने आ रहे हैं।
दरअसल सोशल मीडिया के बढ़ते प्रयोग के साथ लोगों की सहनशीलता, संवेदनशीलता तेजी से कम होने लगी है। लोगों का धैर्य जवाब देता जा रहा है। दरअसल ज्यों ही आपने सोशल मीडिया के किसी भी माध्यम पर कोई पोस्ट अपलोड की तो दूसरे ही क्षण आप उस पर प्रतिक्रिया को लेकर व्यग्र हो जाते हैं। एक नए तरह का टेंशन दिलो दिमाग में छा जाता है। पहला यह कि जो पोस्ट की है उसे संबंधित व्यक्ति या समूह ने देखा या नहीं, देख लिया तो उसकी प्रतिक्रिया व्यक्त हुई या नहीं। यदि प्रतिक्रिया नकारात्मक है तो अलग तरह की भावना पोस्टकर्ता के मन में आती है तो सकारात्मक रिएक्शन पर अलग तरह की भावना सामने आती है। पर सबसे पहले तो सोशल मीडिया पर पोस्ट करते ही टेंशन का दौर शुरू हो जाता है और इसका अंदाज इसी से लगाया जा सकता है कि बिना समय गंवाए बार-बार यह देखने का प्रयास करते हैं कि कितने लोगों ने देखा, फलां ने अभी तक क्यों नहीं देखा, अमुक ने मेरी पोस्ट को लाईक क्यों नहीं किया। अमुक की प्रतिक्रिया क्यों नहीं आई। खासतौर से जन्मदिन की विश या इसी तरह की पोस्टों पर बार-बार यही देखने की कोशिश की जाती है कि अब तक कितने लोगों ने अपनी प्रतिक्रिया दी है। यहां तक कि फलां व्यक्ति ने फलां की पोस्ट पर तत्काल प्रतिक्रिया दी और मेरी पोस्ट को अनदेखा कर दिया, यही तनाव का कारण बन जाता है।
सोशल मीडिया को अपनी विचारों की अभिव्यक्ति का माध्यम भी बनाया जा रहा है। खासतौर से फेसबुक पेज पर लंबी लंबी पोस्ट अपलोड होती है और फिर उस पर प्रतिक्रियाओं का दौर शुरू होता है। यहां तक तो सब ठीक है पर अधिकांश लोग अप्रिय प्रतिक्रियाओं को पचा नहीं पाते और यह व्यक्तिगत द्वेष का कारण बनता जा रहा है। उसके बाद फ्रेंड अनफ्रेंड करने का दौर शुरू हो जाता है। इसी तरह से इंस्टाग्राम या अन्य प्लेटफार्म पर पोस्ट अपलोड करते ही किसने लाइक किया किसने नहीं किया, इसका अंतहीन दौर शुरू हो जाता है और यह लगातार तनाव बनाए रखने का कारण बन जाता है।
सोशल मीडिया आज के जमाने में एक दूसरे के नजदीक आने और जुड़ाव का बड़ा माध्यम है पर परिणाम इसके उलट ही देखने को मिल रहे हैं। सूचनाओं का आदान-प्रदान तो हो रहा है पर यही सूचनाएं आपसी विवाद का कारण भी बनती जा रही हैं। बल्कि अब तो यहां तक होने लगा है कि सोशल मीडिया पर प्रतिक्रियाओं के आधार पर रिश्तों का ताना-बाना बुना जाने लगा है। कौन किसके नजदीक है इसका फैसला भी प्रतिक्रियाओं के आधार पर किया जाने लगा है। सोशल मीडिया के कारण जहां दिन रात इससे जुड़े रहने लगे हैं वहीं अनावश्यक तनाव भी बढ़ा रहे हैं। ऐसे में मनोविज्ञानियों के सामने नई चुनौती आने लगी है। लोग तेजी से डिप्रेशन का शिकार हो रहे हैं। मानवीय रिश्तों में मिठास के लिए आरंभ सोशल मीडिया खठास का कारण बनता जा रहा है। लगातार मानसिक दबाव के चलते लोग कुंठित और व्यग्र होते जा रहे हैं। रिश्तों का नए सिरे से विश्लेषण होने लगा है। इसे किसी भी तरह से समाज के लिए शुभ संकेत नहीं माना जा सकता। ऐसे में चिकित्सकों, समाज विज्ञानियों, मनोविश्लेषकों और चिंतकों को समय रहते कोई हल निकालना होगा नहीं तो डिप्रेशन का विस्तार रुकने वाला नहीं है। एक अच्छे उद्देश्य से शुरू किया गया सोशल मीडिया प्लेटफार्म अपनी राह से भटक चुका है और यही कारण है कि लोगों के दिलोदिमाग पर नकारात्मक असर डालने लगा है। ऐसे में समय रहते समाधान खोजना ही होगा।
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