पत्रकारिता का धर्म
गत सप्ताह सीनियर पत्रकार वेदप्रताप वैदिक एपिसोड पर बवाल मचा रहा। भारत के खिलाफ अप्रत्यक्ष जंग कर रहे ‘देश के दुश्मन’ और पाकिस्तान के लाडले हाफिज सईद का उन्होंने इंटरव्यू किया, इस बात को लेकर विवाद छिड़ा हुआ है। वैदिक पर कानूनी कार्रवाई करने की मांग हो रही है। इस मांग के राजनीतिक पहलुओं पर ज्यादा सोचने की जरूरत नहीं है।
सवाल यह है कि पत्रकारिता का धर्म क्या है? क्या इस देश ने कभी कोई ऐसी लकीर खींची, जिससे यह तय हो सके कि क्या सही है और क्या गलत? कानून एवं नैतिकता दोनों दृष्टि से इस मामले में हमेशा अस्पष्टता रही है। अपने को पत्रकारिता के पंडित मानने वाले स्वयंभू हमेशा कहते रहे हैं कि पत्रकार स्वतंत्र होता है, उसकी प्रतिबद्धता पत्रकारिता के प्रति होनी चाहिए। वह मानवता या देश के हितों की कीमत पर पत्रकारिता का धर्म निभा सकता है, अपना सोर्स न बताने का उसे हक है।
यह याद दिलाना जरूरी है कि दाऊद इब्राहिम और छोटा राजन जैसे बड़े गैंगस्टरों और वीरप्पन जैसे चंदन तस्कर का इंटरव्यू करने वाले पत्रकार को जर्नलिज्म के आकाओं ने बहुत बड़ा पत्रकार माना और बनाया है। अबु सलेम को गिरफ्तार करके जब पुर्तगाल से यहां लाया गया, तो मोनिका उसके साथ थी। उस मोनिका की मां का इंटरव्यू करने के लिए एक टेलिविजन चैनल की टीम स्पेन गई थी? क्या ये लोग देशद्रोही नहीं हैं? अगर देश के दुश्मन का इंटरव्यु लेना देशद्रोही है तो क्या ये सब भी देशद्रोही नही है? इंटरव्यू द्वारा इनके सच्चे झूठे बयान छापना, हमारे पुलिस महकमे को उनके सामने नीचा दिखाना क्या सही है? अमेरिका पर 9/11 हमले के बाद वहां के मीडिया ने उतना ही कवरेज दिखाया, जितना उनकी सरकार चाहती थी। 26/11 के मुंबई हमले के दौरान हमारी मीडिया ने देशहित में कितना संयम बरता? यह भी पूछा जाना जरूरी है कि हाफिज का ह्रदय परिवर्तन करना गलत है, तो बरखा दत्त का नीरा राडिया से यह कहना कि वह पोर्टफोलियो के बारे में कांग्रेसी नेताओं से बात करेंगी, क्या पत्रकारिता के धर्म के अनुरूप है? अब इन बातों पर गौर करके नियम लागू करना और नैतिकता को परिभाषित करना बहुत जरूरी हो गया है। वरना राजनीति की तरह पत्रकारिता को भी डबल स्टैंडर्ड के शिकंजे से मुक्त करना मुश्किल हो जाएगा।
नीतू सिंह