मुझे बहुत सारे रंग याद आते हैं
चाँद, सूरज की तरह सिंदूरी हो जाता है
रात कुछ बैंगनी हो जाती है
और तारे सफेद नाग चम्पा के फूलों से
महकने लगते हैं
की-बोर्ड पर नाचती हैं हमारी उँगलियाँ
किसी रक्कासा सी
उस वक्त हम सिर्फ विश्वास लिखते हैं
हम अक्सर अतीत की पोथियों में लिखा
अपना भाग्य बाँचते हैं
वह पूछती है
सीता या दौपदी के दुख का कारण
मैं कहता हूँ
उन्हें मत खोजो अपने भीतर
वह उदास हो जाती है राधा की तरह
और गुनगुनाने लगती है
कोई विरह गीत
मैं धीरे से पौंछता हूँ
उसकी आँखों के कोर पर चिपका
एक सुनहरी मोती
कुछ देर के लिए रुक जाता है संवाद
किसी भुतहा सफेदी में लिपट जाती है रात
किसी झूठी हँसी की तोप दागते हुए
वह तोड़ती है मौन का अभेद्य किला
लिखती है….. तुम्हें तंग कर रही थी यूँ ही
यह तो किसी फिल्म की कहानी थी
मैं चुपचाप कैनवस पर
पोतने लगता हूँ स्याह रंग
उभरती है एक धुँधली सी तस्वीर
सोचता हूँ…
फिल्में भी तो
ज़िंदगी से ही निकलती हैं मेरे दोस्त
हम बाय कहते हुए विदा करते हैं
एक थके हुए बेनूर दिन को
मुझे याद आते हैं कई चटख रंग
जो बह रहे हैं
निरंतर मेरे और तुम्हारे बीच
किसी अलौकिक विश्वास की साक्षी में!
——– राजेश्वर वशिष्ठ
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