एक अंग्रेज़ी अख़बार ने खोजबीन की तो पता चला कि जिस कर्मचारी के मुँह में रोटी ठूँसी गई थी वह मुसलमान था । जिस सांसद ने रोटी ठूँसी थी वह हिन्दू था । नई कहानी की पटकथा के दो पात्र तो बिलकुल सटीक फ़िट बैठते थे । तेल और रुई का बन्दोबस्त इस खोज से ही हो गया था । लेकिन अभी दियासलाई की खोज बाक़ी थी । लेकिन जब कोई पटकथा को पूरी करने के लिये आमादा ही हो तो वह दियासलाई भी ढूँढ ही लेगा । लेकिन इस पटकथा में उस अख़बार को दियासलाई खोजने के लिये बहुत दूर जाना नहीं पड़ा । बिल्ली के भागों छींका टूटा । यह तो रमज़ान का महीना चल रहा था । इस महीने में बहुत से मुसलमान व्रत रखते हैं जिसे फ़ारसी भाषा में रोज़ा कहते हैं । इसका अर्थ हुआ कि जिस दिन रोटी ज़बरदस्ती मुँह में ठूँसी गई थी , उस दिन वह मुसलमान कर्मचारी व्रत रखे हुये था । अब कुल मिला कर डाक्युमैंटरी बनी कि एक हिन्दू सांसद ने एक मुसलमान के मुँह में रमज़ान के दिनों में ज़बरदस्ती रोटी का टुकड़ा ठूँस कर इस्लाम का अपमान किया है । यानि जो कुल मिला कर जो साधारण बदसलूकी का मामला था वह हिन्दुओं द्वारा इस्लाम के अपमान में बदल गया । पंचतंत्र की इस कथा का यह दूसरा अध्याय भी यहाँ पर पूरा हो गया ।
अख़बार में पटकथा छपी और वह भी एक अंग्रेज़ी के अख़बार में तो उसका संसद में पढ़ा जाना निश्चित ही था । लेकिन इस पटकथा को सुन कर सचमुच सभी की सोई हुई नक़ली पंथनिरपेक्षता जाग उठी । कहा भी गया है एक पंथनिरपेक्षता जो भारतीय संस्कृति का प्राण है और दूसरी नक़ली पंथ निरपेक्षता जो राजनैतिक पार्टियों की जान है । इतना हल्ला मचा कि मछली बाज़ार का दृश्य उपस्थित हो गया । सभी लोग ख़तरे में पड़े इस्लाम को बचाने के लिये कटिबद्ध हो गये । शिव सेना का वह सदस्य जिसने रसोई के कर्मचारी के मुँह में रोटी का टुकड़ा ठूँसा था , उसने मुआफ़ी माँग ली । उसने कहा मुझे क्या पता कि वह कर्मचारी मुसलमान था ? बात उस सांसद ने ठीक ही कहीं थी । किसी के मुँह पर तो लिखा नहीं होता कि वह मुसलमान है या अहमदिया ? यदि लिखा भी हो तो क्या किसी को सपना आयेगा कि आजकल अरब के पंचांग में रमज़ान का महीना चल रहा है ? लेकिन सांसद कहाँ मानने वाले थे । उनका ग़ुस्सा सातवें आसमान पर था । वे इस्लाम को ख़तरे में पड़ता नहीं देख सकते थे । यहाँ आकर पंचतंत्र का तीसरा अध्याय समाप्त हुआ ।
अब चौथा अध्याय । जिस अंग्रेज़ी अख़बार ने यह पटकथा प्रचारित प्रसारित की थी उसने बीच बाज़ार में अपनी बाक़ायदा पीठ थपथपाई । देखा मेरी पटकथा कितनी हिट हो रही है ? यदि इस पटकथा पर कोई छोटा मोटा दंगा भी हो जाता तो अख़बार अपनी ख़बर को साल की सर्वश्रेष्ठ ख़बर घोषित कर देता ।
यह कथा सुनाने के बाद आचार्य विश्वनाथ ने उस राजा के मूर्ख पुत्रों से पूछा- एक साधारण बदसलूकी के मामले को देश के उन अख़बारों ने जो निष्पक्ष पत्रकारिता का ढोंग करती नहीं थकतीं और उन विद्वानों एवं जन जन की इच्छाओं को पहचान लेने का दावा करने वाले प्रतिनिधियों ने मज़हबी रंग क्यों दिया ? राजा के वे मूर्ख पुत्र भी अब तक चतुर सुजान बन चुके थे । उन्होंने उत्तर दिया कि वे सभी लोग या तो आम जन चेतना से कट चुके थे या फिर वे शुद्ध रुप से वोटों के लालच में बदसलूकी के साधारण मामले को हिन्दू मुसलमान का विवाद बना कर अपनी राजनैतिक रोटियाँ सेंक रहे थे ।
इसके बाद इस कथा का पाँचवा और अंतिम अध्याय शुरु हुआ । पता चला कि उधर श्रीनगर में जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री इस घटना से अत्यन्त व्यथित हो गये । वैसे वे यदा कदा व्यथित होते रहते हैं । लेकिन जब वे व्यथित होते हैं तो ट्वीट यानि चीं चीं करने लगते हैं । इस बार भी उग्र हो गये । उन्होंने कहा यदि कोई शाकाहारी के मुँह में ज़बरदस्ती माँस ठूँस दे तो लोगों को कैसा लगेगा ? यदि उन्हें इस घटना का उत्तर ही देना था तो वे कह सकते थे कि यदि कोई मुसलमान उस हिन्दू के मुँह में जिसने व्रत रखा हुआ हो तो आपको कैसा लगेगा ? लेकिन रोटी इत्यादि उमर अब्दुल्ला की नज़र में तुच्छ चीज़ है । जम्मू कश्मीर का मुख्य मंत्री बात करेगा तो माँस तक तो जायेगा ही । लेकिन शायद उन का भाव यह था कि यदि किसी शाकाहारी हिन्दू के मुँह में कोईँ मुसलमान माँस डाल दे तो आपको कैसा लगेगा ? वैसे तो देश को उमर अब्दुल्ला का आभारी होना चाहिये कि उन्होंने माँस का ज़िक्र करते हुये यह नहीं बताया कि किस पशु का माँस मुँह में डाल दिया जाये ? यदि वे यह भी कर देते तब भी उनका कोई क्या बिगाड़ सकता था ?
अब एक ही ख़तरा अभी भी बना हुआ है । कहीं अंग्रेज़ी अख़बारों की शैली को देखते हुये कल कोई उर्दू का अख़बार यह ललकार न लगा दे कि क्या मुसलमान मर चुके हैं कि एक दीनी मुसलमान का रमज़ान का रोज़ा एक हिन्दू द्वारा ज़बरदस्ती खुलवाने के बाद भी वे चुपचाप बैठे हुये हैं ? इससे पटकथा तो पूरी हो जायेगी लेकिन दो समुदायों में खाई और गहरी हो जायेगी । लेकिन मुझे पूरी आशा है कि यदि कोई उर्दू अख़बार ललकार छाप भी दे तो सामान्य मुसलमान उमर अब्दुल्ला की तरह उत्तेजित नहीं होगा क्योंकि अब तक वे इतना तो समझ ही गये हैं कि कौन दरारों को चौड़ा कर उन्हें अपने राजनैतिक हितों के लिये केवल और केवल इस्तेमाल कर रहा है । यहाँ तक नव महाराष्ट्र सदन के एक रसोइये के साथ बदसलूकी का सवाल है उसकी सभी निन्दा करते हैं लेकिन किसी के खेत से गोभी का फूल चुरा लेने की सज़ा मौत तो नहीं हो सकती ? ये नक़ली सेक्युलर यही माँग रहे हैं ।