20 वीं शताब्दी के आरंभ में हमारे देश में न केवल आज़ादी के लिए संघर्ष हुआ अपितु सामाजिक सुधार के लिए भी बड़े-बड़े आन्दोलन हुए। इन सभी सामाजिक आन्दालनों में एक था शिक्षा का समान अधिकार। प्रसिद्द समाज सुधारक स्वामी दयानंद द्वारा अमर ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश में उद्घोष किया गया कि राजा के पुत्र से लेकर एक गरीब व्यक्ति का बालक तक नगर से बाहर गुरुकुल में समान भोजन और अन्य सुविधायों के साथ उचित शिक्षा प्राप्त करे एवं उसका वर्ण उसकी शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात ही निर्धारित हो और जो अपनी संतान को शिक्षा के लिए न भेजे उसे राजदंड दिया जाये। इस प्रकार एक शुद्र से लेकर एक ब्राह्मण तक सभी के बालकों को समान परिस्थियों में उचित शिक्षा दिलवाना और उसे समाज का एक जिम्मेदार नागरिक बनाना शिक्षा का मूल उद्देश्य था।
स्वामी दयानंद के क्रांतिकारी विचारों से प्रेरणा पाकर बरोदा नरेश शयाजी राव गायकवाड ने अपने राज्य में दलितों के उद्धार का निश्चय किया. आर्यसमाज के स्वामी नित्यानंद जब बड़ौदा में प्रचार करने के लिए पधारे तो महाराज ने अपनी इच्छा स्वामी जो को बताई की मुझे किसी ऐसे व्यक्ति की आवश्यकता हैं जो शिक्षा सुधार के कार्य को कर सके। पंडित गुरुदत विद्यार्थी जो स्वामी दयानंद के निधन के पश्चात नास्तिक से आस्तिक बन गए थे से प्रेरणा पाकर नये नये B.A.बने आत्माराम अमृतसरी ने अंग्रेजी सरकार की नौकरी न करके स्वतंत्र रूप से कार्य करने का निश्चय किया। स्वामी नित्यानंद के निर्देश पर अध्यापक की नौकरी छोड़ कर उन्होंने बरोदा जाकर दलित विद्यार्थियों को शिक्षा देने का निश्चय किया। एक पक्की सरकारी नौकरी को छोड़कर गुजरात के गाँव गाँव में दलितों के उद्धार के लिए धुल खाने का निर्णय स्वामी दयानंद के सच्चा भक्त ही कर सकता था।
आत्माराम जी बरोदा नरेश से मिले तो उनको दलित पाठशालाओं को खोलने विचार महाराज ने बताया और उन्हें इन पाठशालाओं का अधीक्षक बना दिया गया। मास्टर जी स्थान तलाशने के लिए निकल पड़े। जैसे ही मास्टर आत्माराम जी किसी भी स्थान को पसंद करते तो दलित पाठशाला का नाम सुनकर कोई भी किराये के लिए उसे नहीं देता। अंत में विवश होकर मास्टर जी ने एक भूत बंगले में पाठशाला स्थापित कर दी। गायकवाड महाराज ने कुछ समय के बाद अपने अधिकारी श्री शिंदे जी को भेजकर पाठशाला का हाल चाल पता कराया। शिंदे जी ने आकर कहाँ महाराज ऐसा दृश्य देख कर आ रहा हूँ जिसकी कोई कल्पना भी नहीं कर सकता।
दलितों में भी अति निम्न समझने वाली जाति के लड़के वेद मंत्रो से ईश्वर की स्तुति कर रहे थे और दलित लड़कियां भोजन पका रही थी जिसे सभी स्वर्ण-दलित बिना भेदभाव के ग्रहण कर रहे थे। सुनकर महाराज को संतोष हुआ। पर यह कार्य ऐसे ही संभव नहीं हो गया। मास्टर जी स्वयं अपने परिवार के साथ किराये पर रहते थे, जैसे ही मकान मालिक को पता चलता की वे दलितों के उत्थान में लगे हुए हैं वे उन्हें खरी खोटी सुनाते और मकान खाली करा लेते। इस प्रकार मास्टर जी अत्यंत कष्ट सहने रहे पर अपने मिशन को नहीं छोड़ा। महाराज के प्रेरणा से मास्टर जी ने बरोदा राज्य में ४०० के करीब पाठशालाओं की स्थापना करी जिसमे 20,000 के करीब दलित बच्चे शिक्षा ग्रहण करते थे। महाराज ने प्रसन्न होकर मास्टर जी के सम्पूर्ण राज्य की शिक्षा व्यस्था का इंस्पेक्टर बना दिया। मास्टर जी जब भी स्कूलों के दौरों पर जाते तो सवर्ण जाति के लोग उनका तिरस्कार करने में कोई कसर नहीं छोड़ते पर मास्टर जी चुपचाप अपने कार्य में लगे रहे। सम्पूर्ण गुजरात में मास्टर आत्माराम जी ने न जाने कितने दलितों के जीवन का उद्धार किया होगा इसका वर्णन करना कठिन हैं।
अपने बम्बई प्रवास के दौरान मास्टर जी को दलित महार जाति का बीए पास युवक मिला जो एक पेड़ के नीचे अपने पिता की असमय मृत्यु से परेशान बैठा था। उसे पढने के लिए 25 रूपए मासिक की छात्रवृति गायकवाड महाराज से मिली थी जिससे वो बीए . कर सका था। मास्टर जी उसकी क़ाबलियत को समझकर उसे अपने साथ ले आये। कुछ समय पश्चात उसने मास्टर जी को अपनी आगे पढने की इच्छा बताई। मास्टर जी ने उन्हें गायकवाड महाराज के बम्बई प्रवास के दौरान मिलने का आश्वासन दिया।
महाराज ने 10 मेघावी दलित छात्रों को विदेश जाकर पढने के लियें छात्रवृति देने की घोषणा करी थी। उस दलित युवक को छात्रवृति प्रदान करी गयी जिससे वे अमरीका जाकर आगे की पढाई पूरी कर सके। अमरीका से आकर उन्हें बरोदा राज्य की 10 वर्ष तक सेवा करने का कार्य करना था। अपनी पढाई पूरी कर वह लगनशील युवक अमरीका से भारत आ गए और उन्होंने महाराजा की अनुबंध अनुसार नौकरी आरंभ कर दी। पर सवर्णों द्वारा दफ्तर में अलग से पानी रखने, फाइल को दूर से पटक कर टेबल पर डालने आदि से उनका मन खट्टा हो गया। वे आत्माराम जी से इस नौकरी से मुक्त करवाने के लियें मिले। आत्माराम जी के कहने पर गायकवाड महाराज ने उन्हें 10 वर्ष के अनुबंध से मुक्त कर दिया। इस बीच आत्माराम जी के कार्य को सुन कर कोहलापुर नरेश साहू जी महाराज ने उन्हें कोहलापुर बुलाकर सम्मानित किया और आर्यसमाज को कोल्हापुर का कॉलेज चलाने के लिए प्रदान कर दिया। आत्माराम जी का कोहलापुर नरेश से आत्मीय सम्बन्ध स्थापित हो गया।
आत्माराम जी के अनुरोध पर उन दलित युवक को कोहलापुर नरेश ने इंग्लैंड जाकर आगे की पढाई करने के लिए छात्रवृति दी जिससे वे Phd करके देश वापिस लौटे। उन दलित युवक को आज के लोग डॉ अम्बेडकर के नाम से जानते हैं जो कालांतर में दलित समाज के सबसे लोक प्रिय नेता बने और जिन्होंने दलितों के लिए संघर्ष किया। मौजदा दलित नेता डॉ अम्बेडकर से लेकर पंडिता रमाबाई तक (जिन्होंने पूने में 15000 के करीब विधवाओं को ईसाई मत में सम्मिलित करवा दिया था) उनसे लेकर ज्योतिबा फुले तक (जिन्होंने सत्य शोधक समाज की स्थापना करी और दलितों की शिक्षा के लिए विद्यालय खोले) का तो नाम बड़े सम्मान से लेते हैं पर सवर्ण समाज में जन्मे और जीवन भर दलितों का जमीनी स्तर पर शिक्षा के माध्यम से उद्धार करने वाले मास्टर आत्माराम जी अमृतसरी का नाम नहीं लेते। सोचिये अगर मास्टर जी के प्रयास से और स्वामी दयानंद की सभी को शिक्षा देने की जन जागृति न होती तो डॉ अम्बेडकर महार जाति के और दलित युवकों की तरह एक साधारण से व्यक्ति ही रह जाते। मास्टर जी के उपकार के लिए दलित समाज को सदा उनका ऋणी रहेगा ।