‘द कश्मीर फाइल्स’ और छद्म-धर्मनिरपेक्षता

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15 मार्च 2022 को ‘सुदर्शन’ न्यूज़ चैनल पर ‘द कश्मीर फाइल्स’ से जुड़ी अनुपम खेर, विवेक अग्निहोत्री और पल्लवी जोशी से मिलने का अवसर मिला। निश्चित रूप से ‘द कश्मीर फाइल्स’ के माध्यम से हमको जिस वास्तविकता से अवगत कराया है उसके लिए यह सारी टीम अभिनंदन की पात्र है। प्रधानमंत्री मोदी और देश के गृह मंत्री अमित शाह ने इस टीम के कार्य की प्रशंसा की है। सचमुच उनका कार्य अभिनंदनीय है, इसकी जितनी प्रशंसा की जाए उतनी कम है। अपने इस देशभक्तिपूर्ण कार्य से उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया है कि जिन अत्याचारों को हिंदू जाति ने मुस्लिमों के शासनकाल में सदियों से झेला है उसकी करुण गाथा बहुत ही वेदनापूर्ण है। इस मूवी में अत्याचारों की जिन सच्ची घटनाओं को जिस वीरता और साहस के साथ प्रस्तुत किया गया है, उससे अब यह पूर्णतया स्पष्ट हो गया है कि भारतवर्ष में जब मुसलमानों का शासन था तो उस समय हमारे पूर्वजों ने इनके अत्याचारों को किस सीमा तक झेला होगा ? यह कहानी अब से 32 – 33 वर्ष पूर्व की नहीं है बल्कि यह सैकड़ों वर्षो की दुःखभरी कहानी की एक झलक है।
   कश्मीर के इतिहास के संदर्भ में हमें ध्यान रखना चाहिए कि 1301 ईस्वी तक कश्मीर में एक भी मुसलमान नहीं था। सूफी के वेश में शाहमीर नाम का एक पहला मुसलमान भारत में आया। जिसने अगले 5 वर्ष में ही तिब्बत से भागकर आए हुए एक रिंचन नामक राजकुमार को इस्लाम में दीक्षित कर सदरूद्दीन के नाम से उसे भारत का पहला मुस्लिम शासक बनवाने में सफलता प्राप्त कर ली। उसके पश्चात 1393 ई0 तक अर्थात 100 वर्ष से भी कम की अवधि में कश्मीर में हिंदू उत्पीड़न का जो भयानक दौर चला उसकी परिणति यह हुई कि कश्मीर में केवल 11 हिंदू परिवार ही बचे थे। शेष हिन्दुओं को या तो कश्मीर छोड़ कर भगा दिया गया था या फिर मौत के घाट उतार दिया गया था या फिर गुलाम बनाकर विदेशी आक्रमणकारी अपने साथ ले गए थे या उनका धर्म परिवर्तन कर इस्लाम में दीक्षित कर दिया गया था।
   बाद में वहां पर एक उदार मुस्लिम शासक हुआ। जिसका नाम जैनुलाब्दीन था । उसकी छाती में फोड़ा हो गया था। जिसका सफल उपचार वैद्यराज पंडित श्रीभट्ट ने किया था। सुल्तान ने वैद्यराज से कहा कि जो चाहते हो सो मांग लो । जितने हीरे जवाहरात आपको चाहिए , सब कुछ दिया जा सकता है। तब वैद्यराज ने सुल्तान के सामने 7 प्रस्ताव रखे । जिनमें उन्होंने कश्मीर छोड़ कर चले गए हिंदुओं को बुलाकर पुनः बसाने , उनसे जजिया हटाने, उनको पूरा सम्मान देने , उनको पूजा-पाठ का अधिकार देने की बातें सम्मिलित थीं। उदार जैनुलाब्दीन ने वैद्यराज के उपकार के वशीभूत होकर उन सारी शर्तों को स्वीकार कर लिया। तब बड़ी संख्या में कश्मीर छोड़ कर चले गए हिंदुओं को कश्मीर में फिर से बसाया गया। अब से पहले कश्मीर छोड़कर भागे हुए हिंदुओं की विभिन्न जातियां ,कुल, गोत्र, वंश आदि थे, परंतु वैद्यराज ने सारे कश्मीरियों को उनकी जाति , गोत्र,  वंश आदि की विषमताओं को मिटाकर सबको ‘पंडित’ कहने का अधिकार दिया।  तबसे कश्मीर का प्रत्येक हिंदू अपने आप को पंडित कहलवाता है। इसीलिए आजकल हम कश्मीर के हिंदुओं को कश्मीरी पंडित के नाम से ही जानते हैं। कश्मीरी पंडितों के इस नामकरण के पीछे वैद्यराज पंडित श्री भट्ट की देशभक्ति को हम इसलिए भूल गए हैं क्योंकि हमें इतिहास में उसका महान कार्य पढ़ाया नहीं जाता। आज जब हिंदू को विभिन्न जातियों, कुल, गोत्र, वंश आदि में बांटने का प्रयास किया जा रहा है तब श्रीभट्ट जैसे महान व्यक्तित्व के द्वारा अपनाई गई हिंदू एकता के प्रयोग की मिसाल को ध्यान में रखने की आवश्यकता है। हम सब यदि अपने मूल को पहचान कर ‘आर्य’ हो जाएं तो हमारे बहुत से झगड़े समाप्त हो सकते हैं।
   पण्डित श्रीभट्ट और जैनुलाब्दीन के पश्चात फिर से कश्मीर में धर्मांतरण, हत्या, लूट , डकैती व बलात्कार की घटनाएं उसी प्रकार तेज हो गईं जैसे उनसे पूर्व में थी।
    ‘राजतरंगिणी’ से हमें पता चलता है कि ”सुल्तान हैदरशाह ने ब्राह्मणों को पीड़ित करने का आदेश दिया। उसने अजर, अमर , बुद्ध आदि सेवक ब्राह्मणों के भी हाथ नाक कटवा दिए। इन दिनों भट्ट अपनी जाति के लुटे जाने पर, जातीय देश त्याग कर भागते हुए यह कहते थे – ‘मैं भट्ट नहीं हूं’ ,’ मैं भट्ट नहीं हूं’ –  म्लेच्छों की प्रेरणा से राजा ने प्रमुख इष्ट देवों की मूर्तियों को तोड़ने का आदेश दिया। गुण परीक्षा के कारण सुल्तान जैनुल राजा ने जिन लोगों को भूमि दी थी, उनसे उनके अधिकारियों ने अकारण ही छीन ली।”
    इसी समय कश्मीर पर मुस्लिमों की चाक्क जाति का भी कुछ समय के लिए (33 वर्ष) शासन रहा। उसके अत्याचारों के बारे में जस्टिस जियालाल कलिम ने ‘द हिस्ट्री ऑफ कश्मीरी पंडित’ में लिखा है कि –  ‘चाक्क शासकों के आदेश पर प्रतिदिन 1000 गायों की निर्विरोध हत्या होती थी । अंधकार ग्रस्त सूर्य की भांति ब्राह्मणों पर बल प्रयोग किया जाता था।….. जीवन यापन के साधन नहीं रहे इनके लिए। भस्म-वन के हिरणों की तरह ब्राह्मण भी देश में न रहे । देश त्यागने के बाद ब्राह्मणों को भी कभी तो सतर्क रहना पड़ता, कभी उपहास व तिरस्कार का पात्र बनना पड़ता। मुसलमान इतिहासकारों द्वारा पूर्णतया समर्थित यह उल्लेख एक चश्मदीद गवाह का है।’
    जब कश्मीर की धरती आग उगल रही थी और खून पी रही थी , उस समय फतहशाह नाम के एक अन्य सुल्तान ने भी अपने शासनकाल में हिंदुओं पर अनेक प्रकार के अत्याचार किए । उसी समय एक धर्म प्रचारक शमसुद्दीन इराकी भी कश्मीर आया। इसके अतिरिक्त एक मुस्लिम नेता मूसारैणा भी कश्मीर लौटा। जो सैय्यदों के साथ हुए संघर्ष में विदेश चला गया था। इन सबने भी हिंदुओं पर अप्रतिम अत्याचार किए। मूसारैणा ने अत्याचारों की सभी सीमाएं पार कर दी थीं।’
   मुहम्मद दीन फ़ाक ने ‘हिस्ट्री ऑफ़ कश्मीर’ में लिखा है कि :-  ‘शिया प्रचारक शमसुद्दीन ईराकी मूसारैणा सहित दुगनी प्रचार भावना के साथ कश्मीर में धर्म प्रचार करने लौटा। जब शांतिमय शिक्षाओं से काम ना चला तो शक्तिशाली उपायों से काम लिया गया। यद्यपि फतहशाह स्वयं एक सुन्नी मुसलमान था। कहते हैं अनेक सुन्नियों को बलपूर्वक शिया धर्म में लाया गया और कईयों को मार डाला गया , परंतु पंडित लोग उसकी कुदृष्टि के विशेष लक्ष्य बने। अनेक मार डाले गए। असंख्य पंडितों को घरबार छोड़कर कश्मीर से बाहर की ओर भागना पड़ा। लगभग 28000 पंडितों को बलपूर्वक शिया मुसलमान बनाया गया। हिंदुओं की संपत्ति जब्त कर ली गई । जिन्हें जीने की अनुमति मिली उन्हें मूसारैणा द्वारा पुनः लगाया गया जजिया देना पड़ा।’
        ये उदाहरण तो एक विशेष कालखंड के हैं, जिन्हें एक बानगी के रूप में हमने यहां प्रस्तुत किया है। इसके अतिरिक्त मुगल वंश में कश्मीर में क्या होता रहा ?- वह सब अलग है। ‘राजतरंगिणी’ और उस समय के अन्य अनेक प्रमाणिक ग्रंथों से पता चलता है कश्मीर के हिंदुओं को लंबी यातना के दौर से निकलना पड़ा है। हमें मुगल बादशाह जहांगीर के बारे में यह तो पढ़ाया गया है कि धरती पर यदि कहीं स्वर्ग है तो यहीं अर्थात कश्मीर में ही है, पर यह नहीं पढ़ाया जाता कि मुगलों और उनसे पूर्व के सुल्तानों ने कश्मीर को नर्क कैसे बना दिया था?
आजादी के बाद भी यहां क्या होता रहा ? इसे अभी पिछले  32 – 33 वर्ष पहले की ये घटनाएं बताने के लिए पर्याप्त हैं।
  कुछ घटनाएं हमारे एक मित्र ने हम तक पहुंचाईं हैं। वह कहते हैं कि 25 जून 1990 गिरिजा टिकू नाम की कश्मीरी पंडित सरकारी स्कूल में लैब असिस्टेंट का काम करती थी। आतंकियों के डर से वो कश्मीर छोड़ कर जम्मू में रहने लगी। एक दिन किसी ने उसे बताया कि स्थिति शांत हो गई है, वो बांदीपुरा आकर अपना वेतन ले जाए। वह अपने किसी मुस्लिम सहकर्मी के घर रुकी थी। मुसलमान आतंकी आए, उसे घसीट कर ले गए। वहाँ के स्थानीय मुसलमान चुप रहे, क्योंकि किसी काफ़िर की परिस्थितियों से उन्हें क्या लेना-देना ? गिरिजा का सामूहिक बलात्कार किया गया, बढ़ई की आरी से उसे दो भागों में चीर दिया गया, वो भी तब जब वह जीवित थी। ये खबर कभी अखबारों में नहीं दिखी।
    4 नवंबर 1989 को जस्टिस नीलकंठ गंजू को दिनदहाड़े हाईकोर्ट के सामने मार दिया गया। उन्होंने मुसलमान आतंकी मकबूल भट्ट को इंस्पेक्टर अमरचंद की हत्या के मामले में फाँसी की सजा सुनाई थी। 1984 में जस्टिज नीलकंठ के घर पर बम से भी हमला किया गया था। उनकी हत्या कश्मीरी हिन्दुओं की हत्या की शुरुआत थी। 7 मई 1990 को प्रोफेसर के एल गंजू और उनकी पत्नी को मुसलमान आतंकियों ने मार डाला। पत्नी के साथ सामूहिक बलात्कार भी किया। 22 मार्च 1990 को अनंतनाग जिले के दुकानदार पी0 एन0 कौल की चमड़ी जीवित अवस्था में शरीर से उतार दी गई और मरने को छोड़ दिया गया। तीन दिन बाद उनकी लाश मिली।
     उसी दिन श्रीनगर के छोटा बाजार इलाके में बी0 के0 गंजू के साथ जो हुआ वह बताता है कि सिर्फ मुसलमान आतंकी ही इस लम्बे चले धार्मिक नरसंहार की चाहत नहीं रखते थे, बल्कि स्थानीय मुसलमानों का पूरा सहयोग उन्हें मिलता रहा। कर्फ्यू हटा था तो बी0 के0 गंजू, टेलिकॉम इंजीनियर, अपने घर लौट रहे थे। उन्हें इस बात का अंदाजा नहीं था कि उनका पीछा किया जा रहा है, यद्यपि घर के पास आने पर उनकी पत्नी ने यह देख लिया। उनके घर में घुसते ही पत्नी ने दरवाजा बंद कर दिया। दोनों ही घर के तीसरे फ्लोर पर चावल के बड़े डब्बों में छुप गए।
   आतंकियों ने छान मारा, वो नहीं मिले। जब वो लौटने लगे तो मुसलमान पड़ोसियों ने उन मुसलमान आतंकियों को वापस बुलाया और बताया कि वो कहाँ छुपे थे। आतंकियों ने उन्हें बाहर निकाला, गोलियाँ मारी, और जब खून चावल में बह कर मिलने लगा, तो जाते हुए मुसलमान आतंकियों ने कहा, “इस चावल में खून को मिल जाने दो, और अपने बच्चों को खाने देना। कितना स्वादिष्ट भोजन होगा वो उनके लिए।”
   ऐसी घटनाओं को यदि आज ‘द कश्मीर फाइल्स’ के माध्यम से लोगों के सामने उनके वास्तविक स्वरूप में प्रस्तुत किया जा रहा है तो यह उचित ही नहीं बहुत आवश्यक भी है। जो लोग ‘द कश्मीर फाइल्स’ के रिलीज होने पर यह कह रहे हैं कि इससे हिंदू मुस्लिम झगड़े बढ़ेंगे, उनसे यह पूछा जा सकता है कि इसी सोच के वशीभूत होकर आजादी के बाद बनी पहली सरकार ने मुगलों और तुर्कों के अत्याचारों को इतिहास से निकालने का जो कृत्य किया था क्या वह मुसलमानों को उदार बना सका ? निश्चित रूप से उसका परिणाम यह निकला कि वे और भी अधिक देशद्रोही और हिंदू अर्थात काफिर के प्रति घृणा से भरते चले गए। आज उन्होंने कश्मीर के सैकड़ों वर्ष पुराने इतिहास को दोहराकर यह साबित कर दिया कि कश्मीर की धरती पर पहले दिन से मुसलमान जो करते आए थे उसी को करने में वह आज भी विश्वास रखते हैं।
   दोगले छद्म धर्मनिरपेक्ष और तथाकथित समाजवादी ‘द कश्मीर फाइल्स’ का विरोध कर रहे हैं। यह वही लोग हैं जो भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर मां भारती को डायन कहने वाले लोगों का समर्थन करते रहे हैं। ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे’ – कहने वाले लोगों को भी भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर उन्होंने अपना समर्थन दिया है, इसके अतिरिक्त राम को काल्पनिक मानने वाले और वेदों को ग्वालों के गीत कहने वाले लोगों को भी उनका समर्थन मिलता रहा है । हिंदू देवी देवताओं का अपमान करने वाले चित्रकारों को भी इनका समर्थन मिला है । यदि भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता उस समय बाधित नहीं हुई तो कश्मीर के सच को सामने आने देने में वह कैसे बाधित हो सकती है ?
  क्या यह सच नहीं है कि कश्मीर को जल्लादों और दरिंदों के झुंड के हवाले करके पहरे पर भी वे लोग बैठ गए जो दरिंदे थे और विधानसभा क्षेत्रों का बेतुका परिसीमन करके सत्ता भी उन लोगों के हाथों में दे दी गई जो कश्मीर के हिंदू के कभी भी शुभचिंतक नहीं हो सकते थे। यह तो वही बात हुई जैसे किसी घर में बदमाश घुसाकर बाहर भी बदमाश बैठा दिये जाएं। जब भीतर घुसे बदमाश अपना सारा काम कर लें अर्थात लूट, हत्या, डकैती व बलात्कार को अंजाम दे लें तब वे बाहर आकर कह दें कि हम तो चाय पीने के लिए गए थे, चाय पिलाने के स्थान पर इन लोगों ने उल्टा हमको मारना आरंभ कर दिया, फिर हमने आत्मरक्षा में उन पर गोली चलाई।
हमारा मानना है कि 1947 के बाद से आज तक कश्मीर में यही होता रहा है। आतंकवादी कश्मीर नाम के घर में घुसकर हमारा सर्वनाश करते रहे और बाहर धर्मनिरपेक्ष पाखंडी पहरा देते रहे और उल्टे सारे देश को समझाते रहे कि जो कुछ हो रहा है, वह ठीक हो रहा है। आज इनके पाप उजागर हो रहे हैं तो पीड़ा होनी स्वाभाविक है।
   हमारा मानना है कि देश के हिंदू समाज को जागृत करने के लिए अब मोपला कांड पर भी फिल्म बनाई जानी चाहिए । इसके अतिरिक्त चितपावन ब्राह्मणों के सामूहिक नरसंहार को लेकर भी फिल्म का निर्माण होना चाहिए। साथ ही 1947 में मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में किस प्रकार हिंदुओं को मारा गया , उसका सच भी लोगों के सामने आना चाहिए। यह आवश्यक नहीं कि इस प्रकार के कार्यों से मुसलमानों के प्रति घृणा पैदा होगी, हम तो इसमें एक बात देखते हैं कि इससे सोया हुआ हिंदू जागेगा। उसे पता चलेगा कि धर्मनिरपेक्षता की अफीम उसके लिए कितनी घातक है ? यदि उसने इसका नशा नहीं छोड़ा तो निश्चय ही यह उसका विनाश कर देगी। सरकार को चाहिए कि देश के सभी शैक्षणिक संस्थानों अर्थात सभी प्राथमिक पाठशालाओं और विद्यालयों में अब भारत के वैदिक ऋषियों के चिंतन के अनुसार पढ़ाई आरंभ होनी चाहिए। अल्पसंख्यकों की तुष्टि करते हुए उनके तथाकथित महापुरुषों और धार्मिक शिक्षाओं को पढ़ाने से होने वाली क्षति को हमने देख लिया है। अब इस प्रयोग को और अधिक देर तक लागू न रखा जाए। सच्ची मानवता केवल वैदिक विषयों के चिंतन से ही प्रकट हो सकती है। भारत की धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा कश्मीर में दम तोड़ चुकी है। ‘दा कश्मीर फाइल्स’ ने इस सच को अब सड़कों पर लाकर नंगा कर दिया है। इसलिए संभलने और समझने की आवश्यकता है।

राकेश कुमार आर्य
संपादक :  उगता भारत

 

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