इमरान खान पर छाए संकट के बादल
हर्ष सिन्हा
अपने वक्त के जुझारू क्रिकेटर रहे पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान इस समय अपने राजनीतिक करियर का सबसे मुश्किल मैच खेल रहे हैं। मैच की मुश्किलें और जटिलताएं उनके बयानों और उनकी बॉडी लैंग्वेज से साफ समझी जा सकती हैं। खासकर तब जबकि यह मैच अपने अंत के करीब आ पहुंचा है। उनकी सारी उम्मीदें अपनी गठबंधन सरकार के सहयोगियों पर जा टिकी हैं, जिनके बूते वह अपने ‘एक इन स्विंग यॉर्कर’ से विपक्ष के तीनों विकेट (शाहबाज शरीफ, आसिफ अली जरदारी और मौलाना फजलुर रहमान) उड़ा देने का दावा कर रहे हैं।दिलचस्प बात यह है कि इमरान खान के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने वाले विपक्षी मोर्चे को भी मदद की उम्मीद गठबंधन के इन्हीं सहयोगियों से है। जिस गेंद से इमरान विकेट लेना चाहते हैं, विपक्ष उन्हीं गेंदों से वह 10 रन (वोट) लेना चाहता है, जो अविश्वास प्रस्ताव की कामयाबी के लिए कम पड़ रहे हैं।
सेना ने पत्ते नहीं खोले
इसीलिए मैच के आखिरी ओवरों में उत्तेजना हावी है और मर्यादाएं टूट चुकी हैं। हाल के वर्षों में दक्षिण एशिया के किसी भी देश में राजनेताओं ने अपने विरोधियों के खिलाफ इतनी असंसदीय शब्दावली का इस्तेमाल नहीं किया, जितना इस वक्त पाकिस्तान में हो रहा है। शनिवार को यह मुठभेड़ सत्तारूढ़ गठबंधन के भीतर भी नजर आई, जब सरकार के एक वाचाल मंत्री शेख रशीद और सहयोगी पार्टी पीएमएल क्यू के नेता चौधरी मूनिस इलाही आपस में भिड़ गए। पीएमएल के एक और नेता कामिल अली आगा ने भी इमरान खान के एक बयान पर कड़ी टिप्पणी कर दी।
दक्षिण एशिया के लोकतांत्रिक देशों में छोटे दलों के लिए सबसे सुनहरा वक्त तब होता है, जब सरकारें मुश्किल में हों। पाकिस्तान में भी इस वक्त ऐसी ही परिस्थितियां हैं। 342 सदस्यों वाली नेशनल असेंबली में अविश्वास प्रस्ताव पास होने के लिए 172 मतों की जरूरत है। फिलहाल तीन प्रमुख विपक्षी नेताओं द्वारा बनाए गए मोर्चे पाकिस्तान डेमोक्रेटिक मूवमेंट (पीडीएम) के पास 162 सदस्यों का समर्थन है। सत्तारूढ़ गठबंधन में इमरान की पार्टी पीटीआई की 155 सीटें हैं। इसके अलावा एमक्यूएम के 7, बलूचिस्तान अवामी पार्टी (बीएपी) के 5, ग्रैंड डेमोक्रेटिक अलायंस जीडीए के 3, मुस्लिम लीग क्यू के 5 और अवामी मुस्लिम लीग जैसी छोटी पार्टियों को मिलाकर कुल 178 सीटें हैं। विपक्ष भी इन्हीं सहयोगियों से मदद की उम्मीद कर रहा है और उसका दावा है कि उसे नेशनल असेंबली में 190 से ज्यादा सदस्यों का समर्थन हासिल है।
दरअसल, शुरू में विपक्ष को सबसे ज्यादा उम्मीदें इमरान की अपनी पार्टी के असंतुष्ट समूह से थी, जिसकी अगुआई 2 साल पहले तक इमरान के सबसे निकट रहे जहांगीर तरीन और अब्दुल अलीम खान कर रहे हैं। कुछ अरसा पहले खान ने दावा किया था कि वह 40 सांसदों के संपर्क में हैं। तब इस दावे ने सरकार के मैनेजरों में हड़कंप मचा दिया था। उसी के बाद शाह मोहम्मद कुरैशी जैसे मंत्रियों के यह बयान सामने आए कि जनता ऐसे धोखेबाजों का घर घेर लेगी। उन्हें वोटिंग के लिए जाने नहीं देगी और यह भी कि ऐसे सांसदों के वोट गिने ही नहीं जाएंगे। 10 मार्च को जिस तरह नेशनल असेंबली के लॉज में जमीयत के वॉलंटियर और कुछ सांसदों के खिलाफ सुरक्षाबलों की कार्यवाही हुई, उसने सरकार की इस सोच को जाहिर भी किया था।
इसी के चलते अब विपक्षी दलों को गठबंधन में शामिल छोटे दलों से उम्मीद है। 5 सांसदों वाली पीएमएल क्यू खुद भी इस स्थिति का लाभ उठाने की जुगत में है। वह राजनीतिक दृष्टि से पंजाब प्रांत के मुख्यमंत्री पद की कुर्सी पर काबिज इमरान के नजदीकी उस्मान बुजदार को हटाकर चौधरी परवेज इलाही को लाना चाहती है। माना जाता है कि इस प्रश्न पर वह सरकार और विपक्ष दोनों से बातचीत कर रही है। इसी तरह मौके का फायदा मुत्ताहिदा कौमी मूवमेंट (एमक्यूएम) भी उठाना चाहती है, जिसकी निगाहें सिंध प्रांत के गवर्नर पद पर हैं।
इस बार अनिश्चय और संशय की स्थिति इसलिए भी बनी हुई है क्योंकि सेना ने अपने पत्ते नहीं खोले हैं। सभी को पता है कि अरसे से पाकिस्तान की राजनीति और सरकार के चेहरे को तय करने में सेना अनिवार्यतः दिलचस्पी लेती है। मौजूदा प्रधानमंत्री इमरान खुद भी इसी समर्थन का लाभ लेकर सत्तारूढ़ हुए थे, लेकिन बीते एक साल से सेना के साथ उनके संबंध लगातार खराब हुए हैं। पिछले साल अक्टूबर में नए आईएसआई प्रमुख के रूप में नदीम अंजुम की नियुक्ति पर इमरान और सेना प्रमुख कमर जावेद बाजवा के मतभेद सामने आए थे और कुछ समय पहले बाजवा के दूसरे कार्यकाल की संभावना पर इमरान की ठंडी प्रतिक्रिया ने इसे और प्रभावित किया है।
पाकिस्तान में राजनीतिक दल फैसला लेने से पहले पिंडी (रावलपिंडी- जहां सेना मुख्यालय है) के सिग्नल को देखने के अभ्यासी रहे हैं, जो इस बार अब तक खामोश है। इससे बेचैनी इमरान को भी है, जो अपने मंत्रियों के जरिए ‘सरकार को सेना के समर्थन’ की बात लगातार दोहराते रहे हैं, लेकिन अब वह भी धैर्य खो रहे हैं। शनिवार को खैबर पख्तूनख्वा की एक सभा में उनके इस बयान को कि ‘तटस्थता केवल पशुओं में होती है’ इसी से जोड़कर देखा जा रहा है।
आगे क्या होगा?
शुरू में सरकार द्वारा अविश्वास प्रस्ताव पर टालमटोल भरा रवैया अपनाया गया था और उसके लिए संसद के कमरों की मरम्मत जारी होने और 23 मार्च को प्रस्तावित इस्लामिक देशों के सम्मेलन के चलते नेशनल असेंबली न बुला पाने की बात कही गई थी, लेकिन अब सरकार को भी एहसास हो गया है कि इस आंधी को टालना कठिन है। विपक्ष तयशुदा वक्त पर होने वाले चुनाव का इंतजार करने से पहले ही सरकार को उखाड़ फेंकना चाहता है। इसलिए अब इमरान भी आर पार की जंग के लिए बाध्य है।
बढ़ती महंगाई, बेरोजगारी और अमेरिकी बेरुखी तथा अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं की सिकुड़ती मदद के चलते बढ़ रही अलोकप्रियता के बोझ से टूटने के कगार पर खड़ी अपनी सरकार के गिर जाने से पहले वे तीखे हमले करेंगे और अपने वही पुराने आरोप दोहराएंगे कि भ्रष्टाचार के आरोपी विपक्षी नेताओं ने अपने खिलाफ कार्रवाई रोकने के लिए उनकी सरकार गिरा दी। ऐसा करके शायद वह अगले चुनाव में अपने लिए एक भावनात्मक समर्थन जुटाने की कोशिश करेंगे, जिसकी उपयोगिता इस उपमहाद्वीप की राजनीति में हमेशा से अहम रही है।
साभार प्रस्तुति