आर्यसमाज और महात्मा गांधी — भाग 2
लेखक- पं० चमूपति जी, प्रस्तोता- प्रियांशु सेठ, #डॉ_विवेक_आर्य
•अनजाने में मिथ्याकथन
महात्मा कहते हैं ऋषि ने अनजाने में मिथ्या कथन किया है। ‘अनजाने में मिथ्या कथन’ से महात्मा का तात्पर्य क्या है? क्या ऋषि ने इन मत मतान्तरों का भाव अशुद्ध समझा? यह सम्भव है! अन्ततोगत्वा ऋषि भी मनुष्य थे। दूसरा यह कि समझा तो ठीक किन्तु स्वभाव से बाधित होकर उनको अशुद्ध रूप में पेश किया, यह बात ऋषि के स्वभाव से इतनी ही दूर थी जितनी कि महात्मा गांधी के स्वभाव से मत मतान्तरों की सत्यासत्य निर्णायक समालोचना। ऋषि को यदि अहिन्दू मतों की धज्जियां उड़ानी होती तो उनसे पहले ऐसी पुस्तकें विद्यमान थीं। उनमें से किसी एक का प्रचार करते। सबसे पहिले ऋषि ने हिन्दू मत की बुराइयों का वर्णन किया। यह समुल्लास सत्यार्थप्रकाश का सबसे लम्बा समुल्लास है। जैसे महात्मा गांधी को हिन्दुओं से विशेष प्यार है। हिन्दुओं को कारण निष्कारण दोषी ठहराते हैं। उन्हीं को झाड़ते हैं, दूसरों को नहीं। ऋषि भी हिन्दू घराने में पैदा हुए थे। हिन्दुओं के रीतिरिवाज देखा करते थे। उनकी त्रुटियों से अधिक परिचित थे, इसलिए उनकी पुस्तकों की अधिक समीक्षा की। अन्य मत मतान्तरों को नमूने के तौर पर थोड़ा-थोड़ा परखा। महात्मा इसे मिथ्या वर्णन बताते हैं और कहते हैं कि अनजाने से हो गया होगा। महात्मा के लेख का बड़ा भाग हिन्दू-मुस्लिम के झगड़ों के विषय में मिथ्याकथन है। मुसलमानों के अत्याचारों से वे अच्छी तरह परिचित हैं। हिन्दुओं पर अत्याचारों की उनके पास शिकायतें की गई हैं। इस डर से कि कहीं यह शिकायतें सत्य सिद्ध न हो जाएं, महात्माजी ने उनके विषय में खोज करने की आवश्यकता नहीं समझी। एक भी घटना ऐसी नहीं लिखी जिसे सिद्ध या सत्य कहा जा सके। यही खोज न करना ही अनजाने की मिथ्यावादिता है, स्वामी दयानंद ने ऐसी अनजाने की मिथ्यावादिता नहीं की।
ऋषि ने जो किया, इसका परिणाम यह है कि सब मत मतान्तरों ने अपना संशोधन किया है। कुरान के भाष्य बदल गये। जिस आयत में औरतों को उजरत (उजूरहुन्न) देकर उनसे व्यभिचार करने की शिक्षा दी, जिसके आधार पर आज भी ईरानी खुला ‘मुता’ करते हैं, मजहब के नाम पर सतीत्व का विक्रय होता है, आज उस आयत का मतलब बदल गया है ‘उजूरहुन्न’ के नए अर्थ हैं हक्कमेहर (स्त्रीधन)। यह अर्थ केवल नये भाष्य में आते हैं, पुराने भाष्यों में नहीं।
ऋषि का ‘मिथ्या वर्णन’ भारत ही में रहा और इसका प्रभाव यह है कि इस्लाम शुद्ध हो रहा है। परमात्मा इसे ईरान में ले जावे। वहां की औरतों पर से भी इस्लामी अत्याचार (शाप) हट जाएगा। महात्मा कुछ कहें, संसार भर की औरतों के रोम रोम से ऋषि के उपकारों के लिए धन्यवाद की ध्वनि उठ रही है। स्थानाभाव अन्य मतों के उदाहरण उद्धृत करने में बाधक है।
•सत्यवादिता का प्रभाव
अब जरा महात्मा गांधी के सत्य वर्णन का प्रभाव देखना। ख्वाजा हसन निजामी की ‘दावते इस्लाम’ से गैर मुस्लिमों के अन्तःपुर सुरक्षित नहीं। लज्जा और सतीत्व सुरक्षित नहीं। नवयुवकों का सदाचार खतरे में है। महात्मा की “सत्यवादिता” यह है कि उस महात्मा का नाम तक नहीं लेते। संकेतों में बात करते हैं। उस हज़रत का नाम रखा है- रसूल के महान् सन्देश का अशुद्ध अनुवादक। रियासत हैदराबाद में इस अशुद्धानुवाद से प्रतिपादित हुई ‘शुद्ध’ प्रचार प्रणाली पर काम होना शुरू हो गया है। दिल्ली से समाचार आ रहे हैं कि वहां यह इस्लामी नीति अपना फल दिखा रही है। भला यह अशुद्ध अनुवाद कैसे हुआ? एक भी मुसलमान है? कोई मौलाना? कोई प्रचारक? कोई राजनैतिक नेता? जिसने इस अशुद्ध अनुवादक के विरुद्ध आवाज उठाई है। कहा हो कि यह इस्लाम का मन्तव्य नहीं। सब देख रहे हैं और दिल खुश हो रहे हैं कि इस्लाम अपने वास्तविक रूप में फैल रहा है। यह है अरबी रसूल का महान् सन्देश जिसने तड़पती दुनिया को शान्ति प्रदान की है।
यदि यह सत्यवादिता है तो ऐसी लाखों सत्यवादिताएँ ऋषि की एक “असत्यवादिता” पर न्योछावर है, जिसने स्त्री जाति की रक्षा की, जिसने केवल हिन्दू स्त्रियों का ही नहीं किन्तु मुसलमान महिलाओं का भी मान रख लिया।
•शुद्धि
महात्मा का कथन है कि प्रत्येक नर-नारी अपने धर्म में पूर्णता प्राप्त करे यह सच्ची शुद्धि है। एक मुसलमान अवश्य मुसलमान रहे, अगर उसे आर्य बनने में अपनी आत्मा का कल्याण नजर आवे तो उसे सुना दिया जाए कि महात्मा गांधी अपने विशालतम और उदारतम धर्म में तुझे दाखिल नहीं होने देते। इस्लाम के कुर्बानी के सिद्धान्त को ले लो। महात्मा अहिंसा के धर्म प्रचारक हैं। उनकी दृष्टि में किसी पशु को सताना सबसे बड़ा अपराध है। दूसरी ओर एक धर्म जो निरपराध जानवरों का वध करना न केवल विहित किन्तु आवश्यक बतलाता है, धार्मिक कर्तव्य ठहराता है। एक मुसलमान है, उसे अहिंसा का सिद्धान्त पसन्द आता है, वह क्या करे? कुर्बानी न करे तो वह मुसलमान नहीं। महात्मा के पास आये तो उनका उपदेश ही यह हुआ कि अपने धर्म में पूर्णता प्राप्त करो, अर्थात् खूब ‘कुर्बानी’ करो। आखिर यह कैसा तर्क है।
महात्मन्! आंखें मीच लेने का नाम सत्यवादिता नहीं। दुनियाँ में मजहब हैं। हां, मजहब हैं जो दुराचार पर बल देते हैं, बुरे से बुरे आचरण से मनुष्यों का उद्धार बतलाते हैं। इनमें पूर्णता प्राप्त करें- यह अच्छी शुद्धि है।
क्या सत्यार्थप्रकाश इसलिए निराशाजनक है कि ऐसी शुद्धि का विधान नहीं करता है? संसार के लोगों के सामने एक धर्मपद्धति रखता है जिसके मानने और आचरण में लीन होने से ही आत्मा का कल्याण होता है। सत्यार्थप्रकाश की दृष्टि में वाममार्ग की पराकाष्ठा शुद्धि नहीं। इस्लाम की पराकाष्ठा शुद्धि नहीं। सचाई की पराकाष्ठा ही शुद्धि है। सदाचार की पराकाष्ठा ही शुद्धि की पराकाष्ठा है। वैदिक धर्म की पराकाष्ठा ही शुद्धि की पराकाष्ठा है।
•अन्तरात्मा की आवाज
महात्मा ने एक बात बड़े पते की कही है। लिखते हैं- शुद्धि यदि आर्यसमाजियों की अन्तरात्मा की आवाज है तो उसे रोका न जायेग। महात्मा को हम कैसे विश्वास कराएं कि शुद्धि हमारे अन्तरात्मा की आवाज है? महात्मा किसी आर्यसमाजी का दिल चीर कर देखें तो पता लगे कि उसमें किन आकांक्षाओं का दरिया ठाठें मार रहा है। सत्यार्थप्रकाश आर्यसमाजी का हृदय है। इससे महात्मा को निराशा हुई। वेद आर्यसमाजी का प्राण है- महात्मा ने उसे ‘बुत’ कहा। तोड़ा इसलिए नहीं कि महात्मा ‘मूर्तिभञ्जक’ नहीं। अब और क्या प्रमाण है जो महात्मा के आगे प्रस्तुत करें? लेखराम की लाश? जिसने शुद्धि की छुरी पर अपना कलेजा रक्खा, कटार खा ली और उफ न की। मारने वाले को मारना तो दूर रहा, उसके लिए एक अपशब्द भी न कहा। तुलसीराम का खून? जो अहिंसा धर्म के अवतारों, जैनियों के हाथों बलिदान हो गया। रामचन्द्र का ठिठुरा हुआ शरीर? जिसे माघ मास की ठिठुराती शाम को लाठियों की बौछार ने सर्वदा के लिए चुप करा दिया। ये सब शुद्धि के मतवाले थे। यदि उनकी तड़पती लाशें बोलें और अपनी आवाज महात्मा गांधी के कानों तक पहुंचाएं तो पता लगे कि उनकी तड़प शुद्धि की उत्कण्ठा की तड़प है। उनकी मृत्यु शुद्धि का जीवन है। यही लोग आर्यसमाज की अन्तरात्मा हैं। जो उनकी साक्षी है वही आर्यसमाज की साक्षी है।
एक बात शेष रह गई है। महात्मा गांधी शुद्धि की आज्ञा दे सकते हैं पर कैसे? आर्य धर्म की चार कसौटियां हैं- सबसे मुख्य वेद, फिर स्मृति, फिर सदाचार। ये तीनों महात्मा गांधी की अदालत में प्रमाणिक नहीं। चौथी और सबसे छोटी कसौटी है ‘स्वस्य च प्रियमात्मन:’ इसी को दूसरे शब्दों में अपने अन्तरात्मा की आवाज कह सकते हैं। इसी के आधार पर महात्माजी शुद्धि की आज्ञा दिये देते हैं। इतना ही सही- फिर गनीमत है। अब आक्षेप है तो शुद्धि के ढंग पर। इसमें हमें कोई आपत्ति नहीं। हम ढंग बदल देंगे, जब महात्माजी वर्तमान ढंग से कोई उत्तम ढंग पेश करेंगे तो हम उसी का अनुसरण करेंगे।
•ईसाइयों की नकल
पर प्रश्न यह है कि वर्तमान ढंग में दोष क्या है? महात्माजी फरमाते हैं कि यह ईसाइयों से ढंग की नकल है। ईसाइयों के ढंग में क्या दोष है- यह नहीं बताया। क्या कोई काम इसलिए भी दूषित हो सकता है कि वह ईसाइयों का है? लो! महात्माजी खुद फैसला फरमायें। स्वामी दयानन्द का हृदय संकुचित हुआ या महात्मा गांधी का? स्वामीजी तो लिखते हैं कि मैं सब मतों के गुण ग्रहण करता और बुराइयाँ छोड़ता हूँ। पर यहां तो कोई चीज दूषित ही इसीलिए है कि वह ईसाइयों की है। महात्मा गांधी को ईसाइयों से भी न्याय का बर्ताव करना चाहिए। वे भी तो परमात्मा के पुत्र हैं, केवल मुसलमान नहीं। क्या जो दोष ईसाइयों के प्रचार में हैं वे दोष आर्यसमाज के प्रचार में हैं भी! सिद्ध करना होगा! दावा बे दलील बे शहादत मानने योग्य नहीं।
•वेद विहीन हिन्दू
महात्मा का कथन है कि शुद्धि की कसौटी सदाचार होना चाहिए। हम महात्मा के इस कथन की प्रशंसा करते हैं परन्तु स्वयं सदाचार की कसौटी क्या है। शुद्धि के औचित्य अनौचित्य पर विचार करते हुए हमने निवेदन किया था कि जिस शुद्धि की आत्मा वेद में है, स्मृति में है, जिसके उदाहरण पुराण में है, और जिसके क्रियारूप में आने की साक्षी इतिहास देता है, वह महात्मा की दृष्टि में उचित नहीं। महात्मा की व्यवस्था अपनी होती तो हानि न थी। महात्मा कहते हैं कि शुध्दि का हिन्दू मत में विधान नहीं। हमने पूछा था कि किस हिन्दू मत में?
महात्माजी की आशा सत्यार्थप्रकाश ने पूरी नहीं की। क्या वेद करते हैं? महात्मा का कथन है कि वेद के प्रत्येक शब्द पर विश्वास रखना एक सूक्ष्म प्रकार की मूर्तिपूजा है। यह खूब रही! आखिर वेद का अपराध क्या है? यही कि आपकी मांग पूरी नहीं करता।
आप किसी अहिन्दू को अपना धर्मभाई नहीं बनाना चाहते और वेद बनाता है। अब सदाचार के विषय में भी कठिनता है। इसकी कसौटी क्या है?
हमें स्वामी श्रद्धानंद की चिंता नहीं, आर्यसमाज की चिंता नही, स्वामी दयानंद की चिंता नहीं। यह न रहे तो क्या? इनका नाम मिट गया तो क्या? महात्मा तो वेद को ही मिटाने पर कमर कसे हुए हैं। ले देकर आर्यजाति की यही पूंजी रह गई है। महात्मा को वह भी एक आंख नहीं भाती। हिन्दू मुस्लिम संगठन की वेदी पर सब कुछ कुर्बान करते। दयानंद का सिर हाजिर! आर्यसमाज की जान हाजिर! लेकिन परमात्मा का वास्ता! एक वेद की बलि न चढ़ाना। किसी की मांग हो यह पूरी न होगी। ब्रह्मा से लेकर दयानन्द पर्यन्त सब ऋषियों ने वेद को परम प्रमाण माना है। हिन्दुओं के दर्शनों में, साहित्य में, कलाओं में सब तरह के मतभेद हैं लेकिन वेद के आगे सिर झुकाती हैं तो इतिहास वेद की पूजा के गीत गाते हैं।
आश्चर्य यह है कि महात्मा ने वेद को पढ़ा ही नहीं। क्या उसके पढ़ने में भी मूर्तिपूजा का डर है? आखिर वह हिन्दू मजहब कौनसा है जिसमें वेद को ही तिलाञ्जलि दे दी जाय।
मुसलमानों के कुरान को भी ‘बुत’ कह देते। हिन्दू वेद छोड़ते, मुसलमान कुरान को जवाब देते- और इस अश्रद्धा व विश्वासहीनता का नाम होता हिन्दू मुस्लिम संगठन। परन्तु नहीं। इस हिन्दू मुस्लिम संगठन में तो हिन्दुओं को देना ही देना है और मुसलमानों को लेना ही लेना। हिन्दुओं की आखिरी पूंजी वेद है, इसपर भी महात्मा के किसी मित्र की नजर होगी।
•दोष! महादोष!! परन्तु झूठा
हां! एक दोष बताया और वह ईसाइयों का नहीं, मुसलमानों और आर्यसमाजियों का। वह क्या? वह यह कि वे दोनों औरतों को बहका कर ले जाते और उन्हें शुद्ध करने का यत्न करते हैं। यह झूठ है जो महात्मा के किसी भक्त ने महात्मा से कहा है। यह झूठ उस भक्ति से कहीं बड़ा है, जो महात्मा के लिए उस भक्त के हृदय में है। महात्मा ने उस पर विश्वास करके उसे और भी बड़ा बना दिया है। हिन्दुओं पर इतनी आपत्तियाँ तोड़ी ही थीं, कहे सुने के आधार पर काल्पनिक अत्याचारों का दोष लगाया ही था। ‘मुझसे कहा गया है’ कि आखिर कोई हद्द! कोई उदाहरण दिया होता, कोई घटना पेश की होती। आर्यसमाजी पापी हैं, दोषी हैं, अपराधी हैं। एक बाल ब्रह्मचारी का नाम जपते हैं और उनमें से अकसर में ब्रह्मचर्य नाम को नहीं। आदित्य के चेले हैं और उनमें अकसर तेजोहीन हैं। लाख निर्बलताओं के शिकार होंगे लेकिन औरतें बहकाने का इल्जाम! यह इनसे इतना ही दूर है जितना महात्मा से पड़ताल का परिश्रम। आर्यों की जल्दबाजी इसी में है कि जरा से अपराध पर बड़े से बड़े मनुष्य को आर्यसमाज से बाहर कर देते हैं। जरा जरा सी बात पर तिलमिला उठते हैं। परमात्मा करे इस इल्जाम से और तिलमिला उठें और बाल ब्रह्मचारी के समाज को वस्तुतः ब्रह्मचारियों का समाज बनायें।
•अन्तिम निवेदन
महात्मन्! अन्त में आपसे एक निवेदन है। आज के हिन्दू दो बरस पहिले के हिन्दू नहीं हैं। वे दिन गये जब यह रोटी उठा ले जाने वाले कुत्ते के पीछे घी की प्याली लेकर दौड़ते थे कि ‘रूखी न खाइयो प्रभु! रूखी न खाइयो।’ उन्हें चोर और मेहमान में विवेक है। वेद और शास्त्र तो क्या छोड़े, ये तो अब सांसारिक सम्पत्ति भी नहीं छोड़ने के। आखिर आप मुसलमानों को कब तक मेहमान समझेंगे। हम तो उन्हें अपना भाई जानते हैं। उन्हें भारत में बसते सदियां हो गईं। बच्चा घर संभालने के योग्य हुआ। मेहमान ने अपना घर बसा लिया। अब उनका हमारा बराबर का पड़ोस है, हम आपस में लड़ेंगे, झगड़ेंगे, हाथ मिलायेंगे और गले मिलेंगे। हमेशा कौन आतिथ्य कर सकता है? और जिसने प्रलय तक अतिथि रहने की कसम खा ली हो वह भी तो आदरणीय अतिथि नहीं। कवि ने कहा है-
‘मक्खी बनकर पड़ा रहे वह अतिथि प्रतिष्ठा खोता है।’ फिर अतिथि के भी तो कर्तव्य हैं। जितना शील गृहपति के लिये आवश्यक है उससे कम अतिथि के लिये नहीं। आप हिन्दुओं को कहते हैं कि तुम मुसलमानों पर छोड़ दो कि वे जो अधिकार चाहें तुम्हें दें। क्यों? इसलिए कि हिन्दुओं की संख्या अधिक है। बहुत अच्छा, पंजाब की अवस्था इससे ठीक उलटी है। जरा यहां के मुसलमानों से कह दीजिये कि तुम अपने अधिकरों से हाथ उठा लो और हिंदुओं को फैसला करने दो कि तुम्हें क्या मिले और उन्हें क्या? मुस्लिम लीग से पूछिए, वह क्या उत्तर देती है? लीग का तो प्रस्ताव ही है कि यहां हमें अधिक अधिकार चाहियें कि हम अधिक हैं और दूसरे प्रान्तों में इसलिए कि हम वहां कम हैं।
ना!! क्या भोलापन है। यह हैं परमात्मा के सरल सूधे बच्चे!
मगर नहीं, हम तो यहां भी न्याय चाहते हैं और वहां भी। आपके शील से डर इसलिये होता है कि अब आप धर्म तक की बलि देने को तैयार हो गये हैं। यह हम नहीं होने देंगे। आपका हिन्दूधर्म जो हो, हमारा तो वेद का, शास्त्र का, ऋषियों और मुनियों का आर्य धर्म है।
साभार प्रस्तुति