दिव्येन्दु राय
बनारस जिसके बारे में कहा जाता है कि यह हिन्दू धर्म की प्राचीन और जागृत नगरी है। बनारस के बारे में बचपन से ही सुनता था और उम्र बढ़ने के साथ ही बनारस से अपनापन बढ़ता चला गया जो शायद ताउम्र बना रहेगा।
बनारस का ज़िक्र पूजा करते समय “काशी क्षेत्रे” और गोत्र का नाम लेकर संकल्प लेते समय ही हो जाता था और बनारस को लेकर तमाम तस्वीरें मनो मस्तिष्क में तैरने लगती थीं।
जैसे-जैसे उम्र बढ़ती गई बनारस आना जाना भी होने लगा और 2008 में तो कई महीने बनारस में ही रहना हुआ, उस दौरान बनारस के घाटों से लगायत मंदिरों तक में दर्शन करने की चाहत पूरी हो गई सिवाय काशी विश्वनाथ मंदिर में दर्शन करने की। उसकी सबसे बड़ी वजह दर्शन के लिए उमड़ने वाली हज़ारों लोगों की संख्या और संकरी गालियाँ थीं।
उन दिनों बनारस में विकास अपनी रफ्तार पकड़ रहा था लेकिन कैण्ट रेलवे स्टेशन से लंका तक जाने में जाम का जो सिलसिला शुरू होता था वह बढ़ते साल की तरह बढ़ता ही रहा था, हालात तो इतने तक बुरे हो गए थे कि ऑटो ड्राईवरों को रूट बदलकर चलना पड़ता था। रास्तों में गंदगी ऐसे फैली रहती थी जैसे उसे यूं ही रहने का संविधान की किसी अनुसूची में स्थान मिला हो।
बदलते वक्त के साथ बनारस के रेलवे स्टेशन और बस स्टेशन से कभी नाता नहीं टूटा लेकिन अगर किसी से नाता टूटा तो बनारस के जाम से और बनारस की गंदगी से। पिछले 10 दिनों से बनारस में हूँ लेकिन वर्तमान समय में जाम वाली स्थिति अब नाम मात्र ही है, बनारस में अब न तो बहुत तार का जंजाल देखने को मिल रहा और न ही बहुत गन्दगी देखने को मिल रही। मंडुवाडीह रेलवे स्टेशन मेट्रो स्टेशन से भी सुन्दर होकर बनारस के नाम से अपनी एक अलग पहचान बता रहा है।
काशी विश्वनाथ जी का मन्दिर जब बन रहा था तो उसी वक्त से दर्शन करने का जो सिलसिला शुरू हुआ वह लगातार चलता ही जा रहा, इन दिनों आसानी से कम समय में ही दर्शन भी हो जा रहा है।
सभी बातों का मतलब यह है कि इस अति प्राचीन नगरी ने भी बदलते वक्त के साथ खुद को बदला है जिसके चलते काशी सुन्दर और साफ हुई है जो कि बेहद ही महत्वपूर्ण है।