उगता भारत चिंतन
बात उस समय की है कि जम्मू-कश्मीर में लागू दो विधान, दो प्रधान और दो निशान की राष्ट्रघाती व्यवस्था के समूलोच्छेदन के लिए श्यामाप्रसाद मुखर्जी कश्मीर जाने की तैयारी कर रहे थे, और उनके व पंडित नेहरू के मध्य हुए पत्राचार से यह स्पष्ट हो गया था कि नेहरू अपनी जिद को छोडऩे वाले नही हैं, उनकी नजरों में शेख अब्दुल्ला की ‘गद्दारी’ मुखर्जी की ‘देशभक्ति’ से बड़ी है। तब नेहरू जी ने देश की संसद में वक्तव्य दे दिया कि कश्मीर के भाग्य का निर्णय वहां की जनता करेगी।
तब 3 अप्रैल को श्री मुखर्जी ने कहा-‘‘पंडित नेहरू की संसद में की गयी यह घोषणा चौंका देने वाली है कि कश्मीर के भाग्य का निर्णय वहां की जनता करेगी। जम्मू और लद्दाख को भी उसी निर्णय के अनुसार भारत में विलय होना पड़ेगा या भारत से बाहर जाना पड़ेगा। इसके लिए उक्त प्रदेशों की जनता तैयार नही है और यह हमारे आंदोलन का मुख्य कारण है।’’
नेहरू जी की उक्त घोषणा से देशभक्त विचारकों के तन-बदन में आग लग गयी थी। सभी का नेहरू पर दबाव था कि कश्मीर की जनता पर कश्मीर का और अपने भाग्य का निर्णय करना न छोड़ा जाए, अपितु स्वतंत्र भारत की ‘भाग्यविधाता’ बनी नेहरू सरकार राष्ट्रहितों के अनुरूप समस्या का समाधान करे।
डा. हृदय नाथ कुंजरू एक मंजे हुए राष्ट्रवादी विचारक सांसद थे। 10 अप्रैल को उन्होंने नेहरू से संसद में टक्कर ली और कश्मीर विषयक थोथी विचारधारा को लेकर चल रहे नेहरू को अपने तर्क बाणों से न केवल निरूत्तर किया बल्कि घायल भी कर दिया। नेहरू ‘हृदयनाथ’ के बाणों से ‘हृदय-घात’ झेलकर रह गये।
बात यूं थी कि राज्यसभा सदस्य एस. महन्ती के एक प्रश्न पर प्रधानमंत्री नेहरू ने उत्तर दिया कि-‘‘भारत सरकार का विचार है कि जम्मू और कश्मीर की जनता अपने भविष्य का निर्णय स्वयं करे और हम उसमें हस्तक्षेप ना करें।’’
रामशंकर अग्निहोत्री इस घटना का रोचक वर्णन करते हुए अपनी पुस्तक ‘कश्मीर: अलगाव बनाम जुड़ाव’ में कहते हैं कि इस पर पं. हृदयनाथ कुंजरू ने पूछा-‘‘क्या प्रधानमंत्री को मालूम है कि नेशनल कांफ्रेंस ने जम्मू-कश्मीर की जनता को वही आधारभूत अधिकार सौंपने का निश्चय किया है जिन्हें वह तैयार कर रही है?’’
श्री नेहरू-‘नही, मैं इस बात में कोई तर्क नही समझता।’
पंडित कुंजरू-‘यदि यह बात ठीक है, तो क्या यह स्पष्टनही है कि कश्मीर की जनता को आधारभूत अधिकारों की गारंटी वैसी प्राप्त नही होगी, जैसी कि भारत के अन्य राज्यों की जनता को प्राप्त है?’’
श्री नेहरू-‘यह बहुत संभव है।’’
पं. कुंजरू : ‘‘तब इस विषय में भारत सरकार की क्या स्थिति है?’’
प्रधानमंत्री श्री नेहरू अपने ही बुने जाल में फंस चुके थे। बात ये थी कि कश्मीर के लिए जो अलग संविधान बनाया जा रहा था, उसमें नागरिकों के मौलिक अधिकारों का हनन किया गया था, एक वर्ग को अधिक अधिकार दिये जा रहे थे, तो दूसरे को उनसे वंचित किया जा रहा था, जबकि शेष भारत में नागरिकों को समान मौलिक अधिकार प्रदान किये गये थे। जिनके रहते लोगों को स्वतंत्र आत्मनिर्णय करने का आत्मनिर्णय की अपेक्षा नही की जा सकती थी। इसलिए नेहरू को श्री कुंजरू ने बड़ी सावधानी से लपेटा और पूरे सदन के बीच उन्हें निरूत्तर कर ‘घायल’ कर अपनी बात का कायल कर दिया। श्री नेहरू के पास श्री कुंजरू के इस सवाल का कोई जवाब नही था कि कश्मीर का संविधान यदि आधारभूत अधिकारों की गारंटी देने से पीछा रहा है तो उस अवस्था में देश की सरकार की क्या स्थिति है।’’ नेहरू के श्री कुंजरू से बहस से उलझने और फिर से कुछ न बोलने ही नेहरू की भूलों का खुलासा कर दिया कि वह एक ‘हृदयहीन सरकार’ के सामने बेबस जनता से आत्मनिर्णय करने की कैसीबचकानी अपेक्षा कर रहे थे? दिल्ली के सभी दैनिक समाचार पत्रों ने दूसरे दिन छापा कि ‘पंडित नेहरू निरूत्तर थे।’’