“आर्यसमाज वेद प्रचारक, समाज सुधारक एवं प्राणी मात्र की हितकारी संस्था व आन्दोलन है”

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ओ३म्
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आर्यसमाज ऋषि दयानन्द द्वारा चैत्र शुक्ल पंचमी तदनुसार 10 अप्रैल, सन् 1875 को मुम्बई में स्थापित एक धार्मिक, सामाजिक, राष्ट्रवादी एवं वैदिक राजधर्म की प्रचारक संस्था वा आन्दोलन है। ऋषि दयानन्द को आर्यसमाज की स्थापना इसलिए करनी पड़ी थी क्योंकि उनके समय में सृष्टि के आदिकाल में ईश्वर से प्रादुर्भूत सत्य सनातन वैदिक धर्म पराभव की ओर अग्रसर था। यदि ऋषि दयानन्द आर्यसमाज की स्थापना कर वेद प्रचार न करते और सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि एवं आर्याभिविनय आदि ग्रन्थों की रचना न करते, तो सम्भव था कि वैदिक धर्म विलुप्त होकर इतिहास की एक स्मरणीय वस्तु मात्र बन जाता। महाभारत व ऋषि दयानन्द के जीवनकाल के मध्य ऐसा कोई मनुष्य नहीं हुआ जिसे वेदों के यथार्थस्वरूप का ज्ञान रहा हो। देश में वेदों का यथार्थ ज्ञान प्राप्त ऋषियों की परम्परा महाभारत के कुछ समय बाद जैमिनी ऋषि पर समाप्त हो चुकी थी। ऋषि दयानन्द के समय देश का वातावरण अत्यन्त निराशाजनक था। वैदिक धर्म को लोग भूल चुके थे। वैदिक धर्म अन्धविश्वासों, सामाजिक विषमताओं एवं कुरीतियों से युक्त था जिसका आधार अविद्यायुक्त मिथ्या ग्रन्थ यथा 18 पुराण, रामचरितमानस, प्रक्षिप्त मनुस्मृति, प्रक्षिप्त रामायण एवं महाभारत आदि ग्रन्थ थे। पुराण एवं रामचरित मानस अवतारवाद की वेद विरुद्ध मिथ्या मान्यता के पोषक थे व हैं। लगभग ढाई सहस्र वर्ष पूर्व बौद्ध एवं जैन मतों का प्रादुर्भाव हुआ जो नास्तिक मत थे। इन मतों के अनुयायी ईश्वर के अनादि, नित्य, अजन्मा, सनातन, सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वव्यापक, सर्वज्ञ तथा निराकार अस्तित्व को नहीं मानते थे। यह अपने आचार्यों महात्मा बुद्ध एवं महावीर स्वामी के मत व मान्यताओं के अनुयायी थे व इन्हीं को ईश्वर के समकक्ष मानकर उनकी मूर्तियों की पूजा करते थे। मूर्तिपूजा का आरम्भ इन्हीं मतों से हुआ है। स्वामी शंकराचार्य ने इन मतों का खण्डन कर इनको पराजित किया और एक नये मत अद्वैतवाद व नवीन वेदान्त का प्रचार किया। यह मत वेदानुकूल न होकर ईश्वर के सर्वव्यापक वैदिक स्वरूप में स्थान-स्थान पर अविद्या की कल्पना कर उसे अविद्या से ग्रस्त बतातें हैं। वेदों के शीर्ष विद्वान व ऋषि स्वामी दयानन्द सरस्वती ने आचार्य शंकर के मत का युक्ति व प्रमाणों से खण्डन किया है। ऋषि दयानन्द के बाद स्वामी विद्यानन्द सरस्वती तथा पं. राजवीर शास्त्री सहित अनेक विद्वानों ने भी स्वामी शंकर के मत की समालोचना करते हुए उनके अद्वैतवाद के सिद्धान्तों को अवैदिक व अव्यवहारिक सिद्ध किया है।

स्वामी शंकर के बाद अनेक अवैदिक मत अस्तित्व में आये। विदेशों में भी ईसाई एवं इस्लाम मत का आविर्भाव हुआ। यह सभी मत सनातन वेद, उनकी सत्य एवं निभ्र्रान्त शिक्षाओं व मान्यताओं से परिचित नहीं थे। इन सभी मतों में वेद विरुद्ध सहित ज्ञान-विज्ञान व युक्ति विरुद्ध मान्यतायें पाई जाती हैं। ऋषि दयानन्द ने इन सभी मतों का अध्ययन किया और वैदिक मान्यताओं एवं सिद्धान्तों के आधार पर सभी मतों की समालोचना करते हुए उनमें विद्यमान अविद्यायुक्त मान्यताओं का सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ के उत्तरार्द्ध के चार समुल्लासों में उल्लेख वा प्रकाश किया है। इससे यह अनुमान किया जा सकता है कि ऋषि दयानन्द ने वेदमत को सत्य, ज्ञान एवं विज्ञान से युक्त पाये जाने के कारण ही स्वीकार किया और इससे सभी मनुष्यों को लाभान्वित करने के लिये इसका देश-देशान्तर में अपने मौखिक प्रवचनों व ग्रन्थों के द्वारा प्रचार किया।

वैदिक धर्म में सबसे महत्वपूर्ण सिद्धान्त ईश्वर, जीव व प्रकृति के यथार्थस्वरूप का ज्ञान है। चार वेद एवं वैदिक ऋषियों के ग्रन्थों दर्शन तथा उपनषिद आदि में ईश्वर, जीव व प्रकृति का जो स्वरूप मिलता है वैसा संसार के किसी मत व पन्थ के ग्रन्थ में प्राप्त नहीं होता। हम ऋषि दयानन्द द्वारा आर्यसमाज के दूसरे नियम में वर्णित ईश्वर के स्वरूप का यथावत्् उल्लेख कर रहे हैं। वह लिखते हैं ‘‘ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान्, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। उसी (ईश्वर) की उपासना करनी योग्य (आवश्यक एवं उचित) है।” ईश्वर सर्वज्ञ है। वह जीवों को उनके कर्मों का सुख व दुःख रूपी फल अनेक जन्मों व अनेक योनियों में देकर उन कर्मों का भोग कराता है। ईश्वर ही जीवात्मा को उसके कर्मानुसार जन्म व सुख-दुःख आदि भोगों की व्यवस्था करता है। ईश्वर मनुष्य की आत्मा सहित उसके हृदय एवं अंग-प्रत्यंग में व्यापक है। वह हमारी आत्मा में प्रेरणा भी करता है। मनुष्य जब ईश्वरोपासना, परोपकार अथवा कोई अच्छा काम करता है तो उसकी आत्मा में सुख, आनन्द व उत्साह उत्पन्न होता है और जब कोई अशुभ वा बुरा काम करता व करने का विचार करता है तो उसकी आत्मा में भय, शंका व लज्जा आदि उत्पन्न होते हैं। यह आनन्द व सुख तथा भय, शंका व लज्जा आदि ईश्वर द्वारा अनुभव कराये जाते हैं। ईश्वर का स्वरूप जान लेने पर मनुष्य का कर्तव्य होता है कि सर्वोपकारी ईश्वर से हमें जो सुख व सुविधायें प्राप्त हुई हैं, उसका प्रतिदान हम उसकी स्तुति, प्रार्थना व उपासना को करके करें। यदि ऐसा नहीं करेंगे तो हम कृतघ्न होंगे। ऐसा न करने पर हम ईश्वर के आनन्द व अपनी आत्मा सहित ईश्वर के साक्षात्कार से भी वंचित रहेंगे। इस ईश्वर साक्षात्कार से मनुष्य को अनेक लाभ होते हैं। इससे धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति होती है। मोक्ष का अर्थ जन्म व मृत्यु के बन्धन से छूटना होता है। मोक्ष प्राप्त कर लेने पर मनुष्य कर्मानुसार मिलने वाले जन्मों से बहुत लम्बी अवधि के लिये मुक्त हो जाता है। जन्म नहीं होता तो मृत्यु भी नहीं होती। ऐसी अवस्था में जीवात्मा ईश्वर के सान्निध्य में रहकर ईश्वरीय आनन्द से युक्त रहता है जिसे किसी प्रकार का किंचित भी दुःख नहीं होता। यही मनुष्य वा जीवात्मा का प्रमुख व श्रेष्ठ लक्ष्य है। अनुमान कर सकते हैं कि हमारे ऋषियों व मुनियों को मोक्ष प्राप्त हुआ करता था। ऋषि दयानन्द में जो ज्ञान था तथा उन्होंने ईश्वरीय ज्ञान वेद के प्रचार के लिये जो पुरुषार्थ किया, उससे अनुमान होता है कि उन्हें भी मोक्ष की प्राप्ति हुई होगी। मोक्ष के स्वरूप व उसकी प्राप्ति की विधि को जानने के लिये सत्यार्थप्रकाश का नवम् समुल्लास पठनीय है। पूरा सत्यार्थप्रकाश पढ़कर और सत्याचरण करके मनुष्य मोक्ष प्राप्ति के मार्ग में आगे बढ़ सकता है।

आर्यसमाज वेद विहित पंचमहायज्ञों की प्रचारक संस्था है। यह पंचमहायज्ञ हैं, सन्ध्या वा ईश्वरोपासना, दैनिक अग्निहोत्र, पितृयज्ञ, अतिथियज्ञ एवं बलिवैश्वदेव-यज्ञ। यह पांचों यज्ञ दैनन्दिन करने होते हैं। इसे करने से अनेक लाभ होते हैं। आर्यसमाज मत-मतान्तरों की अविद्यायुक्त असत्य मान्यताओं का खण्डन भी करती है। इसका कारण लोगों को असत्य व अज्ञानपूर्ण कार्यों को करने से रोकना एवं सत्य कर्मों सहित ईश्वर की उपासना में प्रवृत्त कर उन्हें पापों व उनके दुःखरूपी फलों व भोगों से बचाना है। आर्यसमाज समाज-सुधारक संस्था व आन्दोलन भी है। समाज में अनेक कुरीतियां एवं मिथ्या परम्परायें हैं जिन्हें दूर करना आवश्यक है। जड़-मूर्तिपूजा, अवतारवाद, फलित ज्योतिष, मृतक श्राद्ध, बालविवाह, बेमेल विवाह, जन्मना-जातिवाद, ऊंच-नीच आदि भेदभाव को आर्यसमाज निषिद्ध बताती है। इसके स्थान पर वैदिक विधानों की महत्ता बताकर आर्यसमाज उन्हें आचरण में लाने का प्रचार करती है। मनुष्य का आचरण वेदानुकूल ही होना चाहिये तभी वह मनुष्य जीवन के उद्देश्य व लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। आर्यसमाज गुण-कर्म-स्वभाव पर आधारित वर्णव्यवस्था की पोषक है। आर्यसमाज की दृष्टि में न केवल मनुष्य अपितु सभी जीव योनियां परमात्मा की सन्तानें हैं। सभी योनियों के प्राणी हमारे भाई व बन्धु हैं तथा ईश्वर हम सब का माता व पिता है। उन सबके प्रति हमारे भीतर सद्भाव व उपकार की भावना होनी चाहिये। मांसाहार को आर्यसमाज मनुष्यों के लिये निषिद्ध सिद्ध करता है। मांसाहार बहुत बड़ा पाप है जिसका फल ईश्वर से महादुःख के रूप में प्राप्त होता है। मदिरापान भी मनुष्य व उसकी आत्मा की उन्नति में बाधक एवं हानिकारक है। आर्यसमाज ब्रह्मचर्य व्रत के पालन का भी पक्षधर है। वह भ्रष्टाचार व लोभ से युक्त परिग्रह की प्रवृत्ति को मनुष्य के पतन का कारण मानता है। आर्यसमाज वेद एवं ऋषियों के ग्रन्थों के स्वाध्याय को अधिक महत्व देता है जिससे मनुष्य की शारीरिक, आत्मिक एवं सामाजिक उन्नति होने के साथ अविद्या का नाश तथा विद्या की वृद्धि होती है। ऐसा मनुष्य विद्वान, निरोग, सुखी एवं दीर्घायु होता है और मृत्यु के बाद उसकी उत्तम गति अर्थात् मनुष्य योनि में उत्तम परिवेश में जन्म होता है।

आर्यसमाज वैदिक राजधर्म का प्रचार भी करती है। सत्यार्थप्रकाश के छठे समुल्लास का शीर्षक ‘राजधर्म की व्याख्या’ है। इस राजधर्म को ऋषि दयानन्द ने वेदों पर आधारित प्राचीन वेदानुकूल एवं उपादेय ग्रन्थ मनुस्मृति, शतपथ ब्राह्मण, शुक्रनीति, रामायण एवं महाभारत के आधार पर प्रस्तुत किया है। देश की स्वतन्त्रता के बाद आर्यसमाज का कर्तव्य था कि वह अपना राजनीतिक दल बनाकर सत्यार्थप्रकाश एवं राजधर्म विषयक वैदिक ग्रन्थों के आधार पर राजनीति में सक्रिय भाग लेता और देश की व्यवस्था को वेद व वैदिक ग्रन्थों के आधार पर चलाने के लिये पुरुषार्थ करता। आर्यसमाज ने इसकी उपेक्षा की जिस कारण देश में पाश्चात्य देशों मुख्यतः इग्लैण्ड आदि की व्यवस्था के अनुसार नियम बनाये गये। ऐसे अनेक नियम, विधान व व्यवस्थायें भी की गईं जिससे देश कमजोर हो रहा है। आर्यसमाज ने शिक्षा विषयक उत्तम विचार भी दिये हैं जिसका उल्लेख सत्यार्थप्रकाश के तीसरे सम्मुल्लास में मिलता है। आर्यसमाज गुरुकुलीय शिक्षा प्रणाली की पोषक है। इस प्रणाली में संस्कृत सहित कुछ अन्य भाषाओं एवं ज्ञान विज्ञान से संबंधित विषयों सहित आधुनिक चिकित्सा एवं अभियांत्रिक विद्या, कम्प्यूटर आदि की समयानुकूल शिक्षा भी दी जा सकती है। विद्यार्थी जीवन में मनुष्य को धर्मशास्त्र भी अवश्य पढ़ना चाहिये तभी मनुष्य नैतिक गुणों को धारण कर व उनका आचरण कर सभ्य मनुष्य बन सकता है। वैदिक धर्मशास्त्रों की शिक्षा का अभाव मनुष्य को चारित्रिक पतन सहित भ्रष्टाचारी एवं नास्तिक बनाता है। यही कारण है कि आजकल शिक्षित व्यक्ति प्रायः नास्तिक होते हैं। वह ईश्वर व आत्मा के स्वरूप सहित मनुष्य के धार्मिक कर्तव्यों के प्रति विज्ञ, उत्साही व आचरणशील नहीं होते।

आर्यसमाज एक राष्ट्रवादी संस्था भी है। वेद में पृथिवी को माता कहकर उसका स्तवन किया गया है। हमें अपने देश के लिये अपना सर्वस्व समर्पित करने की भावना से ओतप्रोत रहना चाहिये। ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम्” की भावना भी वैदिक संस्कृति की देन है। ‘सत्यमेव जयते’ वैदिक संस्कृति का ही एक ध्येय वाक्य है। वैदिक धर्म सरलता का प्रतीक है। इसमें भड़कीले पहनावों वा वेशभूषा सहित अप्राकृतिक सौन्दर्य प्रसाधनों के प्रयोग की अनुमति नहीं है। यह बातें मनुष्य के व्यक्तित्व व जीवन की उन्नति में साधक न होकर बाधक होती हैं। संक्षेप में यही कहना है कि महर्षि दयानन्द ने आर्यसमाज की स्थापना वैदिक धर्म के प्रचार-प्रसार, नास्तिकता को दूर कर आस्तिक जीवन का निर्माण करने, अविद्या को दूर कर विद्या की वृद्धि करने, असत्य, अन्याय व शोषण को दूर करने तथा मनुष्य का सर्वांगीण विकास करते हुए वैदिक धर्म एवं संस्कृति की रक्षा के लिये की थी जिसमें समाज सुधार भी मुख्य अंग व उद्देश्य था। विचार करने पर निष्कर्ष निकलता है कि वैदिक जीवन ही सुखों का आधार है जहां मृत्यु के बाद भी सुख व मोक्ष-आनन्द की प्राप्ति की सम्भावना है। आर्यसमाज द्वारा वेद प्रचार, समाज सुधार सहित प्राणी मात्र की सर्वांगीण उन्नति का कार्य होता है। आर्यसमाज की शिक्षायें सार्वकालिक व सर्वहितकारी होने से यही भविष्य का सर्वसम्मत धर्म हो सकता है। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

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