मैं सोच रहा था कि जिस देश में नालंदा जैसे हजारों विश्वविद्यालयों की परंपरा रही हो, और जिनके उत्तम आचरणशील आचार्यों की विद्वत्ता से प्रेरित और आकर्षित होकर विदेशों से हजारों विद्यार्थी प्रवेश पाने के लिए प्राचीनकाल से ही इस देश में आते रहे हों, उस ‘विश्वगुरू’ भारत में आज विद्यालयों में प्रवेश के लिए आचार्यों का कोई मूल्य क्यों नही रहा? उनकी विद्वत्ता और आचरण हमारे लिए प्रेरणा का स्रोत नही रहा, यह कैसा दुर्भाग्य है-इस देश का? हमने अपने मन को वासना का ‘गिद्घ क्षेत्र’ बनने के लिए खुला छोड़ दिया, जबकि हम तो सुशिक्षा और सुसंस्कार पाकर विद्यालयों से जब बाहर निकलते थे, तो लोग हमें ‘स्नातक’ अर्थात स्नान किया हुआ पवित्र और द्विज अर्थात वासना आदि के क्षुद्र संस्कारों को मिटाकर आचार्य के गर्भ (विद्यालय) से दूसरा जन्म लेकर आने वाला कहकर हमारा सम्मान बढ़ाया करते थे। अत: प्राचीनकाल से ही हमारे देशवासी मन को ‘बुद्घक्षेत्र’ बनाने के उपासक रहे हैं। क्या ही अच्छा होता कि उक्त विज्ञापन में जहां उक्त लडक़ी का चित्र लगा था वहां उक्त संस्था के किसी आचार्य का, अध्यापक का, प्रोफेसर का, संस्था के प्राचार्य/प्रिंसीपल का चित्र लगा होता?
हमने नारी को ‘बाजार की वस्तु’ बना दिया और फिर उसके प्रति सम्मान की बात करते हैं, तो ये कैसे हो सकता है?
ऐसा ही एक और उदाहरण है। फेसबुक पर डी.पी.एस. स्कूल का प्रोफाइल फोटो देखकर मैं दंग रह गया। जिसमें अश्लीलता परोसी गयी है, एक महिला ही दूसरी महिला के स्तनों को सहला रही है। ऐसी अश्लीलता को देखकर हमारे युवा वर्ग का मन ‘गिद्घ क्षेत्र’ ही बनेगा। दु:ख की बात ये है कि ये दोनों विज्ञापन या प्रोफाइल फोटो किसी और के ना होकर शिक्षण संस्थाओं के हैं। जिनसे नारी के सम्मान को बढ़ाने और मनुष्य को ‘नर से नारायण’ बनाने की अपेक्षा की जाती है, वहीं से यदि मनुष्य के मन को ‘बुद्घक्षेत्र’ के स्थान पर ‘गिद्घक्षेत्र’ बनाने का कार्य किया जाएगा, तो राष्ट्र निर्माण कैसे होगा?
वास्तव में नारी के प्रति उसके बाजारू होने का जो भाव आज युवा मन में या समाज में भरा गया है, उसके लिए आज की शिक्षा प्रणाली ही अधिक उत्तरदायी है। एक अध्यापक, टीचर, प्रोफेसर, साहित्यकार या कलमकार से अपेक्षा की जाती है कि उसकी भाषा में व्याकरण, जीवन में आचरण और देश में जागरण के उच्चतम भाव परीलक्षित होने चाहिए। परंतु देखा ये जा रहा है कि अध्यापक आदि के जीवन से ये तीनों चीजें आज ‘डायनासोर’ की तरह लुप्त हो चुकी हैं। अपवादों को नमन है, परंतु ‘गिद्घ क्षेत्र’ बने मानव मन में इन गुणों का कोई मूल्य नही रह गया है। भाषा में सरलता के नाम पर और नेहरूवादी ‘हिंदुस्तानी खिचड़ी भाषा’ बनाने की जिद में देश में कोई भाषा नाम की चीज ही नही रही है। इसलिए भाषा में व्याकरण लुप्त हो चुकी है। हिंदी कविता में भी ‘डायनासोर’ के जीवाश्म के अवशेषों की भांति व्याकरण को खोजना पड़ रहा है। इसे देश के मरने का संकेत कहें या कुछ और? जहां तक जीवन में आचरण की या देश में जागरण की बात है तो उस स्थिति को तो उपरोक्त दोनों उदाहरण ही स्पष्टकर देते हैं।
जिस देश की शिक्षा ने देशी गन्ना, देशी टमाटर, देशी धर्म, देशी संस्कृति और देशी आदमी तक से घृणा करना सिखाया हो, उससे देश में आचरण और जागरण की अपेक्षा करना नितांत मूर्खता होगी। देशी आदमी को आज देशी अंग्रेजों की पॉश कालोनियों में या सोसाइटीज में झाड़ू पोंछा के लिए भी नही घुसने दिया जाता। ठेली लगाकर सब्जी बेचने के लिए भी उसे प्रतिबंधित कर दिया जाता है, वह लाचार और बेबस होकर केवल बाहर से उन कालोनियों या सोसाइटीज को ललचाई नजरों से देख भर सकता है, उनमें घुस नही सकता। उसे आचरण और जागरण से दूर रखा जाएगा और जो अपने आपको सभ्य कह रहे हैं, या एक जिम्मेदार नागरिक कह रहे हैं, यदि वे ही उस देशी आदमी से नफरत करेंगे, तो देश निर्माण कैसे होगा? इन परिस्थितियों में उत्तर प्रदेश के राज्यपाल यदि ये कह जाते हैं कि भगवान भी धरती पर आ जाएं, तो वह भी दुष्कर्मों को रोक नही पाएगा, तो इस कथन को यदि सही संदर्भ में लिया जाए तो उन्होंने गलत ही क्या कहा है? क्या नपुंसक और उत्तरदायित्वों से मुंह फेरे खड़े कथित सभ्य समाज के मुंह पर चांटा नही है, उनकी ये टिप्पणी?
नारी स्वयं जागे और स्वयं को ‘बाजारू’ बनाने से रोके। लज्जा उसका भूषण है और यही उसकी मर्यादा है। वह गिद्घ समाज के मन बहलाव की वस्तु नही है, अपितु वह भटकते मानव समाज को राह दिखाने वाली दिव्य शक्ति है। नारी के रूप में जितनी भी देवी पूजी जाती हैं उनके पूजन का उद्देश्य यही है, पर शर्त ये है कि उसे अपना ‘बुद्घक्षेत्र’ स्वयं विकसित करना होगा, समाज के ‘गिद्घ क्षेत्र’ से वह कोई अपेक्षा ना करे।
लेखक उगता भारत समाचार पत्र के चेयरमैन हैं।