आर्यसमाज के विशिष्ट भजनोपदेशक स्वामी भीष्म जी महाराज
सहदेव समर्पित
स्वामी भीष्म जी का जन्म 7 मार्च 1859 ई0 में कुरुक्षेत्र जिले के तेवड़ा ग्राम में श्री बारूराम पांचाल के गृह मेें हुआ था। बचपन में इनका नाम लाल सिंह था। इनकी बचपन से ही अध्ययन में रूचि थी। आपने 11 वर्ष की आयु में गाना शुरु कर दिया था और उस समय उपलब्ध नवीन वेदान्त की बहुत सी पुस्तकों का अध्ययन किया था। प्रबल वैराग्य के कारण 1881 में इन्द्रिय छेदन की कड़ी शर्त का पालन करके एक पौराणिक साधु से संन्यास लिया। उन्होंने इनका नाम आत्मप्रकाश रखा, पर आप को भीष्म के नाम से जाना गया। इनकी आर्यसमाजी बनने की कथा बड़ी रोचक है। आर्यसमाज को आप धर्म विरोधी समझते थे और आर्यसमाज का नाम सुनना भी पसन्द नहीं करते थे।
एक बार बली ग्राम के डेरे में कोई नया नया आर्यसमाजी इनको साधु समझकर सत्यार्थ प्रकाश के किसी प्रकरण को समझने के लिये आया। स्वामी जी ने सत्यार्थप्रकाश का नाम सुनकर अपनी घृणा प्रकट की। जिज्ञासु के बार बार आग्रह करने पर स्वामी जी ने सत्यार्थप्रकाश को देखा तो उसके अन्दर डूबते चले गए। जिज्ञासु को समझाते समझाते वे स्वयं ही समझ गए और उनका जीवन पूरी तरह से बदल गया। उस समय स्वामीजी की आयु 37 वर्ष की थी। उसके बाद तो स्वामी जी आर्यसमाज के प्रचारक बन गए। उन्होंने दिल्ली को अपना केन्द्र बनाया और देश भर में आर्यसमाज का प्रचार प्रसार किया। उन्होंने राष्ट्रीय आन्दोलन में भी बढ़-चढ़ कर भाग लिया और अनेक क्रांतिकारियों से उनके आत्मीय संबंध रहे। स्वामी श्रद्धानन्द जी के अछूतोद्धार व शुद्धि के कार्यों में उनका अप्रतिम योगदान रहा। यहाँ तक कि स्वामी जी स्वामी श्रद्धानन्द जी के आदेश से विधर्मियों द्वारा अपहृत हिन्दू कन्याओं को छुड़ाकर लाते थे और उनको पुनः वैदिक धर्मी बनाते थे।
स्वामी भीष्म जी पूरे देश में विशेषकर उत्तर भारत में बहुत प्रभावशाली भजनोपदेशक के रूप में जाने गए। उनके प्रभाव का यह आलम था कि दिल्ली में एक बार एक पौराणिक साधु ने उनका भजनोपदेश सुना तो वह आर्यसमाजी हो गए। वे स्वामी रामेश्वरानन्द थे जो अनेक बार सांसद रहे। उनकी भजन पार्टी का अनेक बार सांगियों से मुकाबला हुआ। उनके शिष्य स्व0 पं0 चन्द्रभानु आर्य के अनुसार एक बार उ0 प्र0 के एक गांव में स्वामी जी की भजन मण्डली और वहाँ के मशहूर सांगी होशियारा का एक साथ ही एक गांव में जाना हो गया। कई दिन तक सांग और भजनों का आमना सामना होता रहा। सांग में हाजरी रोज घटती रही और स्वामी जी के प्रचार में बढ़ती रही। आखिर सांग पार्टी वहाँ से प्रस्थान कर गई और स्वामीजी ने जमकर प्रचार किया।
स्वामी भीष्म जी ने 124 वर्ष की दीर्घायु पाई। उन्होंने बहुत दीर्घकाल तक गाया और बहुत कुछ लिखा। डाॅ0 भवानीलाल भारतीय जी ने स्वामी जी द्वारा लिखित पुस्तकों की सूची स्वामी भीष्म अभिनन्दन ग्रंथ में दी है। खेद है कि उनका सम्पूर्ण साहित्य अभी तक पुनप्रकाशित नहीं हो पाया है। उनके भजनोपदेशक शिष्यों की सूची भी बहुत लम्बी है। हरियाणा में जन्मे उनके प्रमुुख शिष्य स्वामी विद्यानन्द, स्व. चौधरी नत्थासिंह, स्व0 पं0 ताराचन्द वैदिक तोप, स्व. पं. चन्द्रभान, स्व. पं. ज्योति स्वरूप, स्व पं. हरलाल, स्वामी रुद्रवेश आदि ने विशेष यश प्राप्त किया। 24 मई 1981 को कुरुक्षेत्र में भारत के गृहमंत्री ज्ञानी जैलसिंह की अध्यक्षता में आपका सार्वजनिक अभिनन्दन हुआ। 8 जनवरी 1984 ई. को आपका निधन हुआ।