कठोपनिषद का शान्तिपाठ है :-
ॐ सह नाववतु।सह नौ भुनक्तु।सह वीर्यं करवावहै।तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै॥ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥
इसकी पद्यात्मक शैली में व्याख्या करते हुए डॉक्टर मृदुला कीर्ति कहती हैं :-
रक्षा करो पोषण करो गुरु शिष्य की प्रभु आप ही ,
ज्ञातव्य ज्ञान हो तेज में शक्ति मिले अतिशय मही ।
न हो पराजित हम किसी से ज्ञान विद्या क्षेत्र में ,
हों त्रिविध तापों की निवृत्ति अशीष प्रेम हो नेत्र में।
भारत की उत्कृष्ट बौद्धिक संपदा अर्थात उपनिषदों में से एक कठोपनिषद आत्म-विषयक आख्यायिका से आरम्भ होकर यम नचिकेता के प्रश्न प्रतिप्रश्न के रुप में प्रस्तुत किया गया है । वाजश्रवा लौकिक कीर्ति की इच्छा से अभिप्रेरित होकर विश्वजित याग का संकल्प लेते हैं। इस अनुष्ठान के लिए आवश्यक होता है कि संकल्प लेने वाला व्यक्ति अपने पास जो भी कुछ है उस सब को दान कर दे । यही कारण था कि वाजश्रवा ने भी यज्ञ अनुष्ठान के समय अपनी समस्त संपत्ति दान कर दी। वाजश्रवा निर्धन थे इसलिए उनके पास कुछ गायें पीतोदक (जो जल पी चुकी हैं ) जग्धतृण ( अर्थात जिनमें घास खाने की सामर्थ्य नहीं है ) दुग्धदोहा(जिनका दूध दुह लिया गया है) निरिन्द्रिय(जिनकी प्रजनन शक्ति समाप्त हो गयी है ) और दुर्बल थीं । कुल मिलाकर ये गायें दान में दिए जाने के योग्य नहीं थीं। पिता द्वारा इन गायों को दान में दिए जाते देखकर नचिकेता सोचने लगा कि पिता इन गायों को यदि दान करते हैं तो निश्चय ही पुण्य प्राप्त नहीं होगा । नचिकेता को पिता के द्वारा किए जा रहे यज्ञ के विफल होने की आशंकाओं ने घेर लिया । वह सोचने लगा कि पिता का यज्ञ असफल ना हो इसलिए उसे कुछ उपाय करना चाहिए। तब नचिकेता अपने पिता से, ‘मुझे किसे दोगे’ ऐसा दो तीन बार पूछता है । तब पिता ने क्रोधित होकर उससे कहा कि – ‘मैं तुझे यम को दूंगा।’
इस विषय को प्रकट करते हुए प्रथम वल्ली के पहले मंत्र की व्याख्या करते हुए डॉ मृदुल कीर्ति ने बहुत ही उत्कृष्ट और परिष्कृत भाषा में लिखा :-
ओ३म नाम से उपनिषद शुचि आदि हो स्वस्तिमयी,
वाजश्रवा के पुत्र उद्दालक का यज्ञ मंगलमयी।
नचिकेता नाम का पुत्र उनका लीन था सर्वज्ञ में,
धन दान में सब दे दिया था विश्वजित इस यज्ञ में।
कठोपनिषद् में वाजश्रवापुत्र ऋषिकुमार नचिकेता और यम देवता के बीच प्रश्नोत्तरों की कथा का वर्णन है । बालक नचिकेता की शंकाओं का समाधान करते हुए यमराज उसे उपमाओं के माध्यम से सांसारिक भोगों में लिप्त आत्मा, अर्थात् जीवात्मा, और उसके शरीर के मध्य का संबंध स्पष्ट करते हैं । संबंधित आख्यान में यम देवता के निम्नांकित श्लोकनिबद्ध दो वचन यहां प्रस्तुत हैं :–
आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु ।
बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च ।।
इस जीवात्मा को तुम रथी, रथ का स्वामी समझो, शरीर को उसका रथ, बुद्धि को सारथी, रथ हांकने वाला, और मन को लगाम समझो ।
डॉ. मृदुल कीर्ति इस मंत्र का अर्थ करते हुए लिखती हैं :-
नचिकेता प्रिय जीवात्मा को रथ का स्वामी मान लो,
इस पांच भौतिक देह को तुम रथ का स्वामी जान लो।
जीवात्मा स्वामी है रथ का बुद्धि समझो सारथी ,
रथ रथी व सारथी का मन नियंत्रक महारथी।
इस मंत्र की शेष बात को अगला मंत्र प्रस्तुत करता है :-
इंद्रियाणि हयानाहुर्विषयांस्तेषु गोचरान् ।
आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः ।।
अर्थात मनीषियों, विवेकी पुरुषों, ने इंद्रियों को इस शरीर-रथ को खींचने वाले घोड़े कहा है, जिनके लिए इंद्रिय-विषय विचरण के मार्ग हैं, इंद्रियों तथा मन से युक्त इस आत्मा को उन्होंने शरीररूपी रथ का भोग करने वाला बताया है ।
डॉ मृदुल कीर्ति जी के भाव और शब्द भी बहुत ही महत्वपूर्ण बन पड़े हैं , इसकी व्याख्या करते हुए वह लिखती हैं :—
सब इंद्रियों को ज्ञानियों ने रूप अश्वों के कहा,
विषयों में जगते विचरने का मार्ग अति मोहक कहा।
मन चंचल व शरीर इंद्रियों से युक्त है जीवात्मा ,
बहू भोग विषयों में लीन हो भूला है वह परमात्मा।
भारत की संस्कृति ऋषि और कृषि की संस्कृति है । इसका अभिप्राय है कि परमात्मा और प्रकृति दोनों का समन्वय करने का चिंतन हमारे ऋषियों का है। यह चिंतन बहुत ही उत्कृष्ट अवस्था का है। उन्होंने आध्यात्मिक शैली में जीवन और जगत की समस्याओं को समझाने और सुलझाने का अनुकरणीय प्रयास किया है।
स्वाभाविक भौतिक आकर्षण से लोग स्वयं को मुक्त करने का प्रयास करें इसी सोच और ऐसे ही चिंतन से प्रेरित होकर उन्होंने उपनिषदों की रचना की। उठो, जागो और लक्ष्य प्राप्ति तक निरंतर संघर्ष करते रहो । तब तक विराम मत करो जब तक कि लक्ष्य की प्राप्ति ना हो जाए। ऐसी पवित्र भाषा भला उपनिषदों के अतिरिक्त अन्य किस ग्रंथ की हो सकती है ? ऋषियों ने ऐसी प्रेरक भाषा में अपना शाश्वत सनातन ज्ञान हमारे समक्ष प्रस्तुत किया है। इसी उपनिषद की प्रेरक सूक्ति को स्वामी विवेकानंद भी अक्सर बोला करते थे :-
“उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत ।”
डॉ मृदुल कीर्ति इस मंत्र की व्याख्या करते हुए लिखती हैं :-
लाभान्वित हो मानवो तुम ज्ञानियों के ज्ञान से,
तुम उठो जागो और जानो ब्रह्म ज्ञान विधान से ।
यह ज्ञान ब्रह्म का गहन दुष्कर बिन कृपा अज्ञेय है,
ज्यों हो छुरे की धार दुस्तर ज्ञानियों से गेय है।
कठोपनिषद् में नचिकेता का मृत्युदेवता यम के साथ संवाद का भी विवरण है । नचिकेता से हुए अपने संवाद में यम सृष्टि के अंतिम सत्य परमात्मतत्त्व के बारे में बहुत ही गूढ़ ज्ञान प्रस्तुत करते हैं । तत्सम्बन्धी एक मंत्र की व्याख्या में डॉ मृदुल कीर्ति के ये शब्द बहुत प्रेरक हैं :–
शुचि उपाख्यान सनातनम यमराज से जो कथित है ,
यह ज्ञानियों द्वारा जगत में कथित है और विदित है ।
इस नाचिकेतम अग्नि तत्व का श्रवण अथवा जो कहे,
महिमान्वित होकर प्रतिष्ठित ब्रह्मलोक का पद गहे।
कठोपनिषद का प्रकरण आध्यात्मिक ज्ञानार्जन से संबंधित है न कि भौतिक स्तर के ऐहिक अर्थात् लौकिक विद्यार्जन से । अपनी बात को स्पष्ट करते हुए डॉ. मृदुल कीर्ति का कथन है ,:-
ब्रह्मांड रूप है वृक्ष पीपल का सनातन काल से ,
ऊर्ध्व मूल अधो है शाखा मूल ब्रह्म विशाल से ।
ब्रह्म तत्व विशुद्ध अमृत लोक उसके अधीन है,
नचिकेता यही वह बृह्म जो ब्रह्मांड में आसीन है।
वैदिक चिंतकों की दृष्टि में मनुष्य देह भौतिक तत्त्वों से बना है, परंतु उसमें निहित चेतना शक्ति का स्रोत आत्मा है । जब हमारा शरीर ही भौतिक और आध्यात्मिक चेतना शक्ति का आश्रय स्थल है तो यह संसार भी भौतिक और आध्यात्मिक चिंतन से ही चल सकता है । आधुनिक वैज्ञानिक चिंतन आत्मा के अस्तित्व के बारे में सुनिश्चित धारणा नहीं बना सका है । कदाचित् कई विज्ञानी कहेंगे कि आत्मा-परमात्मा जैसी कोई चीज होती ही नहीं है । तत्संबंधित सत्य वास्तव में क्या है यह रहस्यमय है, अज्ञात है ।
कठोपनिषद की अपनी पद्यात्मक व्याख्या का अंत करते हुए डॉ मृदुल कीर्ति कहती हैं :-
नचिकेता अथ यह ब्रह्म विद्या प्राप्त कर यमराज से ,
मृत्यु विहीन विकारहीन विशुद्ध बन प्रिय आज से ।
वह ब्रह्मवेत्ता मर्म ज्ञाता जन्म मृत्यु विहीन हो ,
जो श्रद्धा से अध्यात्म ज्ञान में ब्रह्म में लवलीन हो।
निश्चय ही डॉ मृदुल कीर्ति का यह प्रयास सराहनीय और अभिनंदनीय है। जिसके माध्यम से वह उपनिषदों की आध्यात्मिक कथाओं को अपनी शैली में लोगों के समक्ष प्रस्तुत करने में सफल हो सकी हैं। विदुषी लेखिका को तदर्थ हृदय तल से धन्यवाद।
पुस्तक के प्रकाशक दी कोऑपटाइम्स डी – 64, साकेत , नई दिल्ली 110017 , फोन नंबर 6966938 है।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत