आर्यसमाज और महात्मा गांधी – भाग 1
लेखक- पं० चमूपति जी, प्रस्तोता- प्रियांशु सेठ, #डॉ_विवेक_आर्य
‘यंग इंडिया’ में प्रकाशित महात्मा गांधी के लेख का वह अंश जिसमें ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज का उल्लेख है, यहां उद्धृत किया जा रहा है। इसे देखते ही पाठकों को अवगत हो जाएगा कि महात्माजी को निम्नलिखित विषयों पर एतराज है-
१. स्वामी श्रद्धानन्द के व्याख्यानों पर और उनके इस विश्वास पर कि हर एक मुसलमान आर्य बनाया जा सकता है।
२. स्वामी श्रद्धानन्द जी की जल्दबाजी और शीघ्र रुष्ट हो जाने की प्रकृति पर जो उन्हें आर्यसमाज से दायभाग में मिली है।
३. स्वामी दयानन्द की शिक्षा पर जिन्होंने भूमण्डल के एक विशाल और उदारतम धर्म को संकुचित बना दिया है और अनजाने जैन धर्म, इस्लाम, ईसाई मत और खुद हिन्दू धर्म की मिथ्या व्याख्या की है।
४. सत्यार्थप्रकाश पर, जो एक सुधारक की निराशाजनक कृति है।
५. वेदों के अक्षरशः सत्य माने जाने और सम्पूर्ण विद्याओं का कोष होने पर, जिसे वे एक सूक्ष्म प्रकार की मूर्तिपूजा मानते हैं।
६. हिन्दू धर्म में शुद्धि का विधान नहीं।
७. आर्यसमाज ने अपनी प्रचार प्रणाली में ईसाइयों के अनुकरण किया है जिससे लाभ के स्थान पर हानि हुई है।
८. वास्तविक शुद्धि तो यह है कि प्रत्येक नर-नारी अपने धर्म में रह कर पूर्णता प्राप्त करे।
९. यदि आर्यसमाज का शुद्धि का भाव अन्तरात्मा की आवाज है तो उसे रोका नहीं जा सकता। उस पर समय की कैद नहीं हो सकती और ना ही प्रतिकूल अनुभव के कारण उसे बन्द किया जा सकता है।
१०. मुझे कहा गया कि आर्यसमाजी और मुसलमान औरतों को बहका ले जाते हैं और उन्हें अपने मत में प्रविष्ट कराने का यत्न करते हैं।
•स्वामी श्रद्धानन्द जी के व्याख्यान
हम आज यत्न करेंगे कि इनमें से हर एक आक्षेप का जो आर्यसमाज और उसके प्रवर्तक पर लगाने का यत्न किया गया है ठंडे हृदय से उत्तर दें। स्वामी श्री श्रद्धानन्दजी के व्याख्यान कैसे होते हैं उनके सम्बन्ध में इस लेख में विचार करने की आवश्यकता नहीं। महात्माजी ने स्वामीजी की वक्तृताओं से कोई वाक्य उद्धृत नहीं किये, जिनके आधार पर किये गए आक्षेप का समर्थन या निराकरण किया जा सके। मौलाना मोहम्मद अली की वक्तृता से, जो उन्होंने कांग्रेस के सभापति की हैसियत से दी थी, एक भाग महात्मा ने मौलाना के सामने रख दिया कि यह भाग आक्षेपयुक्त है, मौलाना ने अपनी अशुद्धि को स्वीकार किया। यद्यपि स्वीकृति सर्वसाधारण में नहीं हुई तो भी महात्माजी सन्तुष्ट हो गए कि मौलाना का व्यवहार दोषयुक्त नहीं। श्री स्वामीजी पर महात्माजी की यह कृपा न सही कि उनसे एकान्त में बातचीत कर लें, कम से कम पत्र में ही उनके कुछ वाक्य उद्धृत कर देते, स्वामीजी उनका उत्तर दे देते तो हम भी अपनी सम्मति प्रकट करते। इस समय महात्माजी का यह आक्षेप विचार का विषय नहीं हो सकता कि श्री स्वामीजी की वक्तृताएँ असन्तोष पैदा करती हैं।
क्या प्रत्येक मुसलमान आर्य बनाया जा सकता है? हाँ! स्वामीजी का यह विश्वास कि हर एक मुसलमान आर्य बनाया जा सकता है सारे आर्यसमाज का विश्वास है। बनाया जा सके या नहीं, यत्न आवश्यक है और वह धार्मिक कारणों से, राजनैतिक कारणों से नहीं। स्वराज्य प्राप्त हो सकता है यदि मुसलमान आर्य धर्म को स्वीकार न भी करें! हां! उन्हें आर्यों के साथ मिलकर रहना आना चाहिए। भारतीय नागरिकता के कर्तव्य सीखने चाहियें, अपने पड़ोसियों पर हाथ नहीं डालना चाहिए। यदि इस्लाम यह शिक्षा दे सके तो पर्याप्त है, नहीं तो यह शिक्षा भी उन्हें आर्य धर्म से लेनी होगी अथवा महात्मा गांधी ही उन्हें समझ दें। केवल इसी आवश्यकता के लिए हम उन्हें आर्यसमाज का सभासद् बनाना नहीं चाहते।
कुछ हो, इस बात पर विश्वास होना कि हर एक मुसलमान आर्य बन सकेगा दौर्भाग्य का निशाना क्यों है?-
यदि मौलाना मोहम्मद अली प्रतिदिन यह प्रार्थना कर सकते हैं कि महात्मा गांधी मुसलमान हो जाएं तो स्वामी श्रद्धानन्द जी क्यों यह विश्वास नहीं रख सकते कि हर एक मुसलमान आर्य बन जायेगा।
आर्यसमाज का बच्चा बच्चा ही इसी विश्वास के साथ जीता है कि केवल मुसलमान ही नहीं किन्तु समस्त संसार एक दिन आर्य बन जायेगा। श्रीकृष्ण ने कहा है- “तेरा अधिकार काम करने का है फल के लिए आग्रह करने का नहीं।” श्रीकृष्ण का यह कहना आर्यसमाजियों की कार्य प्रणाली का सुनहरा नियम है। हम यत्न करते जाते हैं उसमें सफलता वा असफलता देना परमात्मा का काम है।
हम वैदिक धर्म को परमात्मा का धर्म समझते हैं। वेद कहता है- ‘इन्द्रं वर्धन्तोऽअप्तुर: कृण्वन्तो विश्वमार्यम्’ परमात्मा का राज्य बढ़ाओ, आतुनि से, धैर्य से इस कार्य में कदम बढ़ाओ। प्रश्न हो सकता है कैसे बढ़ाएं?- वेद कहता है- सारे संसार को आर्य बना कर। हम वेद की इस आज्ञा से बद्ध हैं- वह आर्य नहीं जिसका सिर वेद की आज्ञाओं के सामने रात दिन झुका न रहता हो। हमें शान्ति हराम है, हमें सुख हराम है, नींद हराम है, यदि हम रात दिन यही न सोचा करें कि संसार आर्य हो जाए। मौलाना मोहम्मद अली ने कोकानाडा में भाषण करते हुए शुद्धि की व्यवस्था की थी और वह व्याख्या ठीक है। उन्होंने शिकायत की थी कि हिन्दू धर्म प्रचारक धर्म नहीं है। उन्होंने कहा था कि “अगर आज जबकि मेरे हिन्दू भाइयों की सरगर्मियों में तबलीगी जोश के निशानात पाये जाते है मैं उनकी अपने धर्म फैलाने की कोशिशों से नाराज हूँ, तो ताज्जुब है।”
मौलाना मोहम्मद अली स्वामी श्रद्धानन्द जी के उक्त विश्वास से रुष्ट नहीं हो सकते, हां! महात्मा गांधी के लिए रुष्टता का कारण है। क्या सचमुच यह दुर्भाग्य होगा कि मौलाना मोहम्मद अली जो महात्मा गांधी के मित्र हैं आर्य बन जाएं और वह मित्रता जो अपनी वर्तमान अवस्था में कहने सुनने की मित्रता है रहने सहने की, मेल मिलाप की, दिल की और दीन की मित्रता बन जाए।
•हिन्दू धर्म में शुद्धि
महात्मा गांधी का विचार यह है कि हिन्दू धर्म में शुद्धि नहीं। क्या यही हिन्दू धर्म की उदारता और विशालता है? हम ऊपर कह आए हैं कि वेद की इस विषय में स्पष्ट आज्ञा है। देवल स्मृति में शुद्धि की इस विधि का पूरा विवरण दिया गया है। हिन्दू से अहिन्दू होने पर जिससे कोई व्यक्ति फिर हिन्दू बनाया जा सकता है। भविष्यपुराण में कण्व ऋषि का वर्णन आया है कि वह मिश्र देश में गए और हजारों मिश्रियों को अपना अनुयायी बनाकर अपने धर्म में प्रविष्ट किया। जो जो जिस वर्ण के योग्य था उसे वही वर्ण दिया गया। अभी यदुनाथ सरकार ने जो वर्तमान समय के उच्चतम ऐतिहासिकों में से एक हैं शिवाजी की जीवन से एक घटना का उल्लेख किया है कि उनके Master Of The Horse नेताजी पालकर को औरंगजेब ने मुसलमान बना लिया था। १० (दस) साल तक मुसलमान रहे। पंजाब और अन्य सूबों में काम करते रहे। बाद में वह शिवाजी के पास आये और उनकी शुद्धि की गई। वहां भी शुद्धि का प्रयोग किया गया है। इस लेख का समर्थन हौलेंड के कोठीदारों के एक पत्र से होता है जो उन्होंने सूरत से लिखा था। अतः शुद्धि प्रथम तो वेद के आदेश से आवश्यक हुई, फिर स्मृति ने यह विधि भी बता दी जिससे शुद्धि होती है, इतिहास ने इस बात की साक्षी दी कि शुद्धि की जाती रही है। यदि अब भी महात्माजी का यही विश्वास है कि हिन्दू धर्म में शुद्धि का विधान नहीं तो इसका इलाज सिवाय इसके क्या हो सकता है कि महात्माजी जी से प्रार्थना की जाए कि वह हिन्दू धर्म की व्याख्या करें अर्थात् बतायें कि वह कौनसा हिन्दू धर्म है जिसमें शुद्धि की आज्ञा नहीं?
•हिन्दू धर्म को किसने संकुचित किया?
गत हिन्दू सभा की बैठक में सनातन धर्म के पण्डितों की उपस्थिति में शुद्धि का प्रस्ताव पास हुआ। अहिन्दू हिन्दू बनाया जा सकता है- यह घोषणा हिन्दू धर्म के प्रतिष्ठित पण्डितों की ओर से की जा चुकी है।
भिन्न भिन्न मठों के शंकराचार्यों ने व्यवस्था दे दी है कि आज के ही नहीं पांच पांच सौ साल के पतित हुए लोगों की सन्तान भी यदि आज वह चाहे तो उसे आर्य बनाया जा सकता है। आखिर वह हिन्दू धर्म कौन सा है जो शंकराचार्यों का नहीं, हिन्दू सभा का नहीं, वेद का नहीं, स्मृति का नहीं, पुराण का नहीं, छत्रपति शिवाजी का नहीं- महात्माजी का है? क्या कोई ऐसा ही हिन्दू धर्म है जिसे स्वामी दयानन्द की शिक्षा ने संकुचित बना दिया? इस संकोच के दो अर्थ हो सकते हैं- ‘एक विचारों का संकोच’ दूसरा ‘क्षेत्र का संकोच’। ऋषि दयानन्द ने हिन्दू धर्म के विचारों को विस्तृत किया है वा संकुचित? इसके क्षेत्र को घटाया है वा बढ़ाया? वह हिन्दू धर्म जो पहिले केवल हिन्दुओं की सन्तानों का ही दायभाग था, उसका दरवाजा ऋषि ने मनुष्य मात्र के लिए खोल दिया। वह हिन्दू धर्म जो पहिले चौके और चूल्हे में बन्द था, जिसकी दृष्टि में अहिन्दू पतित थे अपवित्र थे- इसलिए नहीं कि उनके आचरण अपवित्र हैं किन्तु इसलिए कि उनका जन्म हिन्दुओं के घर नहीं हुआ- वह हिन्दू धर्म जो बंगाल की खाड़ी और अरब के समुद्र के बाहर कदम रखने से भ्रष्ट हो जाता था, जिसके भूगोल में सिवाय भारत के और कोई देश न था, और भारतवर्ष की भी मस्जिदें, गिरजे, जैनियों, बौद्धों और पारसियों के मन्दिर, उनके रहने के मकान, नहीं नहीं उनके शूद्रों, बच्चों, औरतों और मर्दों के कान, स्वयं हिन्दू जनता के १/५ भाग के कान इस योग्य न थे कि इस धर्म की दिल को मोहित करने वाली दुंदुभि से पवित्र होते, उसे दयानन्द ने सारे संसार के लिए समान कर दिया है। यह वह संकोच है जिसे दयानंद संसार के एक विशालतम और उदारतम धर्म में लाया है! वस्तुतः ने अत्याचार किया है। हां! हिन्दू धर्म विशाल था, उदार था क्योंकि हिन्दू धर्म का कोई लक्षण न था। कोई परमात्मा को मानो न मानो। वेद की प्रतिष्ठा करो न करो। जीवों की रक्षा करो या कुर्बानी, कुछ करो अपने आप को हिन्दू कहो। प्रत्येक कार्य हिन्दू कार्य है। प्रत्येक विचार हिन्दू विचार है। हां! अहिन्दू की सन्तान को अपवित्र समझो और उससे घृणा करो। दयानन्द ने ऐसे हिन्दू धर्म को संकुचित किया। उसके विचारों को भी संकुचित किया और क्षेत्र को भी। यदि झूठ को सचाई की परिधि से निकाल देना सचाई का क्षेत्र तंग करने है, यदि दुराचार को सदाचार के क्षेत्र से बाहर करना सदाचार का दम घोंटना है तो दयानन्द वस्तुतः दोषी है। उसने हिन्दू धर्म के क्षेत्र को संकुचित किया, उसका दम घोंटा, संकुचित करने के स्यात् यह अर्थ हों कि हिन्दू धर्म में भिन्न भिन्न मतों की समालोचना करने की प्रणाली का आविष्कार किया गया है। स्वामी दयानंद के आने से पहिले हिन्दू धर्म एक भक्त था जिसके विषय में निम्न कथा वर्णित की गई है- एक दिन एक महात्मा खाना पका रहे थे। भजन भी करते जाते थे, तवे से रोटी भी उतारते जाते थे। उन्होंने एक रोटी उतारी ही थी कि कुत्ता झपटा और रोटी उठा कर ले गया। महात्मा ने उस रोटी को अभी चुपड़ा न था। महात्मा ने घी की प्याली उठाई और कुत्ते के पीछे भागे। प्याली आगे आगे करते थे और कहते थे “रूखी न खाइयो प्रभु! रूखी न खाइयो।”
•उदार हिन्दू धर्म
अहिन्दू होने में लाभ था, हिन्दू होने में नुकसान। अपने दलित भाइयों को ही देख लो। जब तक वह हिन्दू हैं हमारे साथ नहीं छू सकते। ज्यूँ ही मुसलमान या ईसाई हुए उनकी छूत हट गई। यह हिन्दुओं की उदारता थी। इनको घर पेश, बार पेश, घर का माल असबाब सब पेश, कोई कुछ कह जाए चूँ नहीं करनी, चोर को कम्बल दे आना कि कहीं वह असफलता से निराश न हो, यह हिन्दुओं का काम था। अपनों से लड़ते थे। हिन्दुओं के दर्शन पढ़ जाओ, शास्त्रार्थों से परिपूर्ण हैं, लेकिन हिन्दुओं के साथ पिछले आचार्यों के आगे अहिन्दुओं का प्रश्न न आया था। स्वामी दयानंद के सामने यह नई कठिनता थी कि हिन्दुओं के मत मतान्तरों के अतिरिक्त अहिन्दू मतों ने भी डेरे डाले हुए थे। ऋषि के आने से पहिले प्रत्येक अहिन्दू प्रत्येक हिन्दू का अतिथि था। खाने पीने में उससे घृणा करनी लेकिन उसके मत पर अंगुली न उठानी, वह गाली दे, गलोच दे, वेदों की निंदा करे, शास्त्रों की निन्दा करे, हमारे महापुरुषों की निंदा करे, चुप रहना। ऋषि आया और उसने सबसे पहिले यह पाठ पढ़ाया कि चोर और अतिथि में भेद करो। स्वामी से पहिले हिन्दुओं की ओर से दूसरे मतों का उत्तर दिया जा रहा था किन्तु उसे जाति न सुनती थी, और वह उत्तर अश्लील था। यदि महात्मा सत्यार्थप्रकाश के साथ-साथ मुंशी इंद्रमणि इत्यादि के लेखों का अध्ययन कर लेते तो उन्हें मालूम होता कि ऋषि ने अहिन्दू मतों के साथ नरमी से काम लिया है वा कठोरता से। ऋषि को न हिन्दू का पक्षपात था और न अहिन्दू का। सत्यार्थप्रकाश, जो महात्मा गांधी के लिए निराशाजनक सिद्ध हुआ है, उसकी भूमिका में महर्षि लिखते हैं “यद्यपि मैं आर्यावर्त देश में उत्पन्न हुआ और बसता हूँ तथापि जैसे इस देश के मत मतान्तरों की मिथ्या बातों का पक्षपात न कर यथातथ्य प्रकाश करता हूँ वैसे ही दूसरे देशस्थ वा मतोन्नति चाहने वालों के साथ भी बर्तता हूँ।” आगे चलकर फिर कहा है- “जैसा मैं पुराण, जैनियों के ग्रन्थ, बाइबिल और कुरान को प्रथम ही बुरी दृष्टि से न देखकर उनमें गुणों का ग्रहण और दोषों का त्याग करता हूँ वैसा सबको करना चाहिए।” ऋषि के सामने हिन्दूजाति पर अन्य मतों की मार हो रही थी, हमले हो रहे थे, परन्तु यह चुप थी। कुछ मनचले ऐसे हिन्दू भी थे जो पत्थर का उत्तर पत्थर से और मुक्के का उत्तर मुक्के से दे रहे थे। दूसरी ओर अन्य मत थे जो अपने को सच्चा और आर्यधर्म को झूठा बता रहे थे।
यदि ऋषि पक्षपात करते तो अन्य मतों के प्रचारकों की तरह हिन्दुओं की बात-बात का समर्थन करते, अहिन्दुओं की भलाइयों को भी बुरा कहते, परन्तु ऐसा करना उनके उच्च मनुष्यभाव के प्रतिकूल था।
यदि अन्य मतों में शुद्धि सचाई होती और हिन्दू असत्य के ठेकेदार होते तो ऋषि उन्हें प्रेरित करते कि हिन्दूमत को छोड़ दो और अहिन्दू हो जाओ। ऋषि ने सब मतों का अध्ययन किया और इस परिणाम पर पहुँचे कि हर मत में सत्य भी है और असत्य भी। ऋषि ने विवाह न किया। वह ब्रह्मचारी रहे। एक ही धुन सवार रही। ३० वर्ष की आयु तक लगातार अध्ययन किया जिससे उन्हें विश्वास हुआ कि वर्तमान हिन्दू धर्म में संशोधन की आवश्यकता है, वर्तमान इस्लाम में संशोधन की आवश्यकता है। महात्मा गांधी ने भी जेल में इन मतों का अध्ययन किया है- आखिर कितना समय! फिर इसमें क्या देखा है? महात्मा इस अध्ययन से किस परिणाम पर पहुंचे हैं? महात्मा कहते हैं- “मेरी हिन्दू प्रकृति मुझे बताती है कि हर मजहब थोड़ा सच्चा है।” इनका सारा लेख पढ़ जाओ ऐसा मालूम होता है कि उनकी दृष्टि में यदि कोई कतल करने योग्य मजहब है तो हिन्दुओं का, क्योंकि हिन्दुओं की पवित्र पुस्तक वेद तक का उपहास कर दिया गया है। अहिन्दू मतों ने संसार को शान्ति दी। इस्लाम और शांति? इन दो भावों को महात्मा ही एक स्थान पर रख सकते हैं। साधारण जनों की शक्ति में यह चमत्कार नहीं, महात्मा ने वेद की पढ़ा भी है?
•जल्दबाज
श्री स्वामी श्रद्धानन्द जल्दबाज हों- आर्यसमाज जल्दबाज हो, शायद ऋषि दयानंद भी जल्दबाज हों, किन्तु उनमें से किसी ने यह जल्दबाजी नहीं की कि एक पुस्तक को देखा ही नहीं और उसके प्रतिकूल सम्मति उद्घोषित करने लग गए हों। महात्मा गांधी को जल्दबाज कौन कहे? वह महात्मा हैं। महात्मा जल्दी नहीं तिलमिलाए- उन्होंने तो स्वामी श्रद्धानन्दजी के कुछ स्वभावों को जो उनके विचार में अक्षिप्य हैं, आर्यसमाज का दायभाग बताने में बड़े सोच विचार, बड़े धैर्य, बड़ी शान्ति से काम लिया है। आर्यसमाज पर ही बस नहीं आर्यसमाज के प्रवर्तक पर भी अत्यन्त निडरता से हाथ साफ किया है। वेद तक इनके आक्षेपों से बच न सके। कौन कहे महात्माजी तिलमिला गए हैं।
कुछ हो! अपने विषय पर रहना चाहिए। स्वामी दयानंद ने अन्य मत-मतान्तरों के गुणों को स्वीकार किया और बुराइयों की समालोचना की। सत्यार्थप्रकाश के अन्त में भी स्वामीजी लिखते हैं- “जो-जो बात सबके सामने माननीय है उसको मानना अर्थात् जैसे सत्य बोलना सबके सामने अच्छा और मिथ्या बोलना बुरा, ऐसे सिद्धान्तों को स्वीकार करता हूं और जो परस्पर मत-मतान्तरों के विरुद्ध झगड़े हैं उनको मैं पसन्द नहीं करता क्योंकि इन्हीं मतवालों ने अपने मतों का प्रचार कर मनुष्यों को फंसा परस्पर शत्रु बन दिया है।”
ऋषि को मत मतान्तरों के झगड़े पसन्द न थे। उन्हें शान्ति की खोज थी किन्तु शांति को झूठ के दामों पर खरीद नहीं कर सकते थे। ऋषि ने पक्षपात को अपने पास फटकने तक न दिया। दस समुल्लासों में वह लिखा जो आपको पसन्द था और जो सबके मानने योग्य था। यह सचाईयाँ हिन्दुओं की मलकीयत नहीं, जैसी वेद की प्राचीन शिक्षा को हिन्दुओं के वर्तमान रीतिरिवाजों ने बिगाड़ दिया था, वैसे ही अन्य मतमतान्तर भी वेद ही से निकले थे किन्तु उन्होंने उस पवित्र शिक्षा को अपनी मौलिक शुद्ध अवस्था में न रहने दिया था। ऋषि ने दस समुल्लासों में सब मत मतान्तरों की सांझी सचाईयों का वर्णन किया। वेद सब मत मतान्तरों का सांझा स्त्रोत है। उसी का प्रमाण दिया। मत मतान्तरों के प्रमाण पेश करना व्यर्थ में बात को तूल देना होता। मनुष्यकृत प्रमाणों में केवल मनुस्मृति आदि आर्ष ग्रन्थों के प्रमाण दिए क्योंकि मनुस्मृति सबसे पहली धर्म पद्धति है जिससे दूसरे धर्मशास्त्रों का प्रादुर्भाव हुआ।
इससे ऋषि को यह दिखाना भी अभीष्ट था कि अन्य मनुष्यकृत ग्रन्थों का अध्ययन भी किस दृष्टि से किया जाए? जैसे मनुस्मृति की परख वेद की कसौटी पर की गई है वैसे ही कुरान और इञ्जील आदि की भी होनी चाहिए। उनके जो हिस्से वेदानुकूल हों वे ठीक हैं जो विरुद्ध हों वह अशुद्ध हैं।