क्योंकि मनु का दावा है कि ‘वेदशब्देभ्य एवादौ पृथक संज्ञाश्च निर्ममे’ अर्थात वेद शब्दों से ही सब पदार्थों के नाम रखे गये हैं। यह नाम वेदों से लिया गया था। इसमें भी नव दरवाजे थे। जिस प्रकार आत्मा की रक्षा इस शरीर से होती और वह सुखपूर्वक इसमें रहकर अपने कल्याण का साधन करता है, उसी तरह अयोध्या नगरी में महाराजा मनु और इक्ष्वाकु की प्रजा सुख से रहती और अपने कल्याण की साधना करती थी।
वेद में शरीर का नाम अध्योध्या है। इसी शरीर से इसका नाम अयोध्या रखा गया है। वेद के अर्थों का तारतम्य लगाने के लिए यह कितना अच्छा प्रमाण है? बस, नगर संबंधी ये दो ही उदाहरण हैं, जिनको देकर आगे देश का वर्णन करते हैं।
गजब की बात है कि जिस देश में आर्य लोग रहते थे, उस देश का नाम भी वेद में नही है। ऋषियों ने हजारों मंत्र ऊषा और अश्विनी के बना डाले, पर एक भी मंत्र अपने देश के नाम रखने की कब परवाह होगी? अथवा यह कह दिया जा सकता है कि वेदकालीन आर्यों में देश का भाव ही पैदा नही हुआ था। किंतु हम देखते हैं कि वेद में व्रज, अर्व, गांधार, रूम, रूश, अंग, बाहृीक और मगध आदि नाम पाये जाते हैं, जो इस देश में और पृथ्वी के अन्य खण्ड में स्थित है। इतना सब होने पर भी वेद में आर्यावर्त या भारतवर्ष का कुछ भी नाम नही है। इसी तरह वेद में पंजाब और संयुक्त प्रांत का भी नाम नही है, जहां वैदिक आर्य फूले और फले थे। ऋषियों ने भारत और आर्यावत्र्त नाम तो रखा, पर वेद ने इन नामों का जिक्र तक नही किया। वेद में इनका वर्णन होना भी नही चाहिए था। क्योंकि जब वेद में इतिहास है ही नही, तब देश का नाम कैसे हो सकता है? इसलिए व्रज, अर्व और गांधार आदि शब्दों से सूचित होता है कि इन शब्दों का अर्थ वर्तमानकालीन व्रज, अरब और गांधार नही हैं।
हम ऊपर कहीं कह आये हैं कि व्रज नाम उस स्थान का है जहां गौवें चरती और रहती हों। हमारे देश का व्रज चौरासी कोस का है। यह चौरासी कोस में कृष्ण भगवान के समय में गौवें चरा करती थीं। वेद में कई जगह व्रज का जिक्र आता है। यथा ‘व्रजं कृणुघ्वं स हि वो नृपाणो’ अर्थात राजा बहुत से व्रज स्थापित करे। किंतु वेद के इस व्रज से मथुरा के पासवाला व्रज न समझ लेना चाहिए। प्रत्युत यह समझना चाहिए कि यह मथुरा वृंदावन के पासवाला व्रज नाम भी वेद शब्द से ही रखा गया है। वेद में गौ-गोष्ठों का ही नाम व्रज है। इसलिए गौ-गोष्ठ होने से वह भी व्रज कहलाता है। ऋग्वेद में सूर्य और द्यौ को भी व्रज कहा गया है, क्योंकि वहां भी किरण रूपी अश्व रहते हैं।
जिस प्रकार अच्छी गौवों के बड़े चरागाह को व्रज और उत्तम घोड़ों के पैदा करने वाले भूभाग को अर्व कहते हैं, उसी प्रकार जहां उत्तम भेड़ें पैदा होती हों उस देश को गांधार कहते हैं।
वैद्यक में गांधारी कहते हैं जवासा को। जवासा उन दिनों में हराभरा होता है, जब जेठ मास की लू चलती है और घास जलकर खाक हो जाती है। यह जवासा जहां होता है, वहां उसकी छाया में घास भी होती है और धूप के दिनों में भी मेष मेषियों के चरने के लायक कुछ न कुछ बनी रहती है। जिस स्थान में अधिक जवासा होगा, वहीं पर भेड़ों की अधिक चराई होगी। अत: वही देश गांधार कहलाएगा। वर्तमान काबुल के पासवाले देश का नाम भी इसलिए गांधार पड़ा है। क्योंकि वहां की भेड़ें प्रसिद्घ और बहुत हैं। ऋग्वेद में एक मंत्र है कि-
उपोप मे परा मृश मा मे दभ्राणि मन्यथा:।
सर्वाहमस्मि रोमशा गांधारीणमिवाविका। (ऋ. 1/196 /7)
अर्थात समीप आओ, मुझे छुओ, मुझमें कम न समझना। अब मैं गांधारी की भेड़ों की तरह सब शरीर में रोमवाली हो गयी हूं, अत: मुझे अब योग्य समझो। यहां गांधारी भूमि अर्थात जवासा भूमि में चरने वाली भेड़ के से वालों का वर्णन किया है। इससे स्पष्ट हो गया कि अच्छी भेड़ों वाले देश को गांधारी या गांधार कहते हैं और वर्तमान गांधार इसी कारण से प्रसिद्घ है। क्रमश:
लेखक उगता भारत समाचार पत्र के चेयरमैन हैं।