कविता — 46
समता नहीं है राम की इहलोक व परलोक में।
शीश झुकाये सब खड़े विधिलोक- सुरलोक में।।
साज सृष्टि का सजा व जगत जब तक चल रहा,
गुणगान होता ही रहे भूलोक और सूर्यलोक में।।
दिव्य दिवाकर देव बन दुख दूर किये स्वदेश के ।
सूर्यसम मर्यादा में रह जग के दूर किये क्लेश थे ।।
सूर्यवंश की कीर्ति और यश के राम संवाहक बने,
आर्यपुत्र मां भारती के अनुपम अद्वितीय नरेश थे ।।
चेतना में राष्ट्र की रमने से, पूज्य राम तुम बने ।
दिव्य तेज धारकर शत्रु सन्तापक राम तुम बने।।
दिव्यता और भव्यता की सदा साधना करते रहे।
शालीनता व सौम्यता के गुणग्राहक राम तुम बने।।
अतुलित शालीनता और सौम्यता भी असीम थी।
न्यायशील रहे सबके प्रति, सुनी पुकार हर दीन की।।
सहनशीलता,धैर्य और संयम भी अनुकरणीय रहा।
तेजस्विता से परिपूर्ण सतोगुण भी प्रशंसनीय रहा ।।
श्रृंगार मनुजता के बने और संहार दुष्टों का किया ।
मातृ- पितृ, गुरु भक्त बन निवारण कष्टों का किया।।
आदर्श भ्रातृभाव से था संसार को भी सिंचित किया ,
पुत्र पत्नी को प्रेम देकर था उद्धार श्रेष्ठों का किया।।
आर्य धर्म के ध्वजवाहक बन संसार को परिवार माना।
वेद और वैदिक धर्म को संसार के लिए श्रेयस्कर जाना।।
रक्षार्थ वैदिक धर्म की हर क्षण समर्पित कर दिया।
जो भी मिला निंदक वेद का उसे विदा यहां से कर दिया।।
आर्य ,आर्यभाषा और आर्यावर्त के इस त्रिकोण में ।
सर्वत्र समता खोजते हुए विचरते रहे भूलोक में ।।
त्याग तप व साधना की अनुपम जलाई थी अलख,
‘राकेश’ सम बने रहो सदा कष्ट में और शोक में ।।
यह कविता मेरी अपनी पुस्तक ‘मेरी इक्यावन कविताएं’- से ली गई है जो कि अभी हाल ही में साहित्यागार जयपुर से प्रकाशित हुई है। इसका मूल्य ₹250 है)
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
मुख्य संपादक, उगता भारत