भीड़ जिन कामों को पसंद करती है, भीड़ जो हमसे चाहती है या भीड़ से हम जो चाहते हैं उन कामों में रमने वाले लोगों का बाहरी वजूद भले ही दिखता जरूर है, पर उसे हृदय से कभी स्वीकारा नहीं जाता। हम सारे लोग उस दशा में बहुरुपियों के किरदार से कुछ अधिक नहीं होते।
भीड़ भेड़ संस्कृति का प्रतीक है जहां अपना कोई स्व नहीं होता, पराये लोग जैसे हाँक ले जाते हैं, हम बिना सोचे-समझे रेवड़ों की तरह उस दिशा में बढ़ चलते हैं। हमें सिर्फ एक सूत्री लोभ यही रहता है कि आगे चलकर कुछ न कुछ तो मिलने वाला होगा ही ।
आजकल समाज-जीवन और परिवेश में खूब सारे काम ऎसे हैं जो भीड़ संस्कृति का प्रतीक हो गए हैं। धर्म, कला-संस्कृति, साहित्य, बिजनैस, परंपराओं और रोजमर्रा की कई गतिविधियों में हमने भीड़ संस्कृति को अपना लिया है। जैसा भीड़ कहती है, करती है वैसा ही हम भी करने लगते हैं। कोई सा काम हो हम भीड़ की मंशा को देखकर करने लगते हैं।
कई सारे काम ऎसे सामने आते रहते हैं जब हम भीड़ का अटूट हिस्सा होकर उसी दिशा में भागते-दौड़ते रहते हैं और बाद में पता चलता है कि कुछ हासिल भी नहीं हुआ और समय नष्ट हुआ वो अलग। लेकिन भीड़ में शामिल होकर अपने आपको अलग दिखाने का अंधा मोह ही है कि जो हमें स्पर्धावान बना डालता है और हम उन सारे कर्मों में दिलचस्पी लेने लगते हैं जो भीड़ में पसंद तो हो लेकिन भीड़ में भी अपने आप से अलग दिखे।
यह ठीक वैसा ही कर्म है जिसमें द्रष्टा और स्रष्टा दोनों एक ही होना चाहते हैं मगर व्यवहारिक तौर पर यह कभी संभव नहीं है। दोनों का पृथक होना जरूरी है। अध्यात्म में ऎसा होना संभव है लेकिन लौकिक तौर पर ऎसा कतई संभव नहीं है।
कई प्रकार की सामाजिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक धाराओं में एकतरफा प्रवाह बना हुआ है। वे ही परंपराएं जारी हैं जो करीब-करीब शताब्दी भर से जारी हैं। उन परंपराओं को हम बदलना चाहते ही नहीं या कि हममें उतना साहस ही नहीं बचा है कि परंपराओं को तोड़ सकें या परिष्कृत कर नवीन स्वरूप प्रदान कर सकें। यहाँ भी हम भीड़ का हिस्सा बने हुए खुद को असहाय महसूस करते ही हैं।
कई सारी परंपराओं का अब कोई औचित्य नहीं है लेकिन ढोये जा रहे हैं। हमारे भीतर न कुछ नया करने की छटपटाहट शेष बची है न कुछ कर पा रहे हैं। हम अपने स्वार्थों और अपेक्षाओं के समंदर में इतने गहरे तक डूबे हुए हैं कि कुछ भी कर पाना हमारे लिए साध्य नहीं रहा। जरा सा कुछ परिवर्तन की बात की नहीं कि लोगों के अहंकार, पद और प्रतिष्ठा आड़े आ जाते हैं, दकियानूसी लोग अपनी सत्ता को छोड़ने के लिए राजी नहीं हो पाते, फिर हमें अपने किसी बिगाड़े की मिथ्या आशंका भी हमेशा सताए रहने लगती है।
बात तो हम स्वाभिमानी होने और क्रांतिकारी व्यक्तित्व पाने की करते हैं लेकिन हमारे छोटे-छोटे स्वार्थ, ऎषणाएं और नन्हीं-नन्हीं क्षणभंगुर भूख-प्यास हरदम इतनी हावी रहती है कि हर बार सिर्फ सोचते ही रह जाते हैं, कदम आगे बढ़ाते भी हैं तो पीछे खिंचने को विवश हो जाते हैं।
भीड़ हमेशा तमाशबीन होती है और भीड़ में शामिल हरेक इंसान तमाशा देखने का आदी। थोड़ा गंभीरता से सोचें कि हम जो कुछ भी कर रहे हैं वह सिर्फ और सिर्फ औपचारिकताओं से कहाँ कुछ ज्यादा है। हमारी हर क्रिया और प्रतिक्रिया आजकल तमाशे से ज्यादा कुछ नहीं रही है। कहीं एक तमाशा होता है, फिर उसके साथ क्रियाओं और प्रतिक्रियाओं की एक नई श्रृंखला जन्म ले लिया करती है और नया तमाशा आने तक सब कुछ यों ही चलता रहता है। फिर इन तमाशों का वैश्विक दिग्दर्शन कराने के लिए हमारे पास इतने सारे संसाधन हैं कि तमाशे ज्यादा हो गए हैं और आँख-कान कम पड़ गए हैं। ऎसे में तमाशबीन भी मस्त रहा करते हैं और तमाशों के सर्जक भी।
कई मदारी तो ऎसे हैं जो भीड़ को एक जगह बांधे रहने के सारे करतबों में माहिर हैं और इन्हें वो तिलस्म अच्छी तरह आता है जिसमें भीड़ को कहीं और व्यस्त कर अपने कामों से ध्यान बंटाते हुए सफर को कैसे आगे बढ़ाया जा सकता है।
हमारे आस-पास आज जो कुछ काम हो रहे हैं। उनमें आखिर कितने काम ऎसे हैं जो औपचारिकताओं से ज्यादा कुछ कहे जा सकते हैं। अपने रोजमर्रा के लोक व्यवहार से जुड़े सारे कामों को देखें और यह तय करें कि ऎसे कुछ काम करें कि जो भीड़ के चरित्र से हटकर हों तथा उन कामों को देखने का लोभ भीड़ भी संवरित नहीं कर पाए।
समाज और देश के लिए खूब सारे काम ऎसे हैं जो हम अपने बूते कर सकते हैं जिसके लिए भीड़ या भीड़ के प्रोत्साहन की कोई आवश्यकता ही नहीं होती। हम अपने आपका वजूद स्थापित करना चाहें तो ऎसे काम करें कि जो भीड़ से अलग हों। ऎसे कौन-कौन से रचनात्मक और सकारात्मक काम हो सकते हैं, किन-किन औपचारिकताओं को तिलांजलि देने की आवश्यकता है, इस विषय पर गंभीरता से सोचने और कुछ कर दिखाने की आज जरूरत है। इसके लिए बाहर से कोई चमत्कार संभव नहीं है, जो कुछ करना है हमें ही करना होगा। अपने स्व को जागृत करने की जरूरत है।