समस्त प्राणियों, जड़-चेतन वस्तुओं से लेकर ब्रह्माण्ड का प्रत्येक सृजन और दृश्य इन्हीं पंच तत्वों की माया है। मनुष्य का शरीर भी इन्हीं पांच तत्वों से मिलकर बना है। पंच महाभूत का अपने शरीर में अंश विद्यमान होता है। हमारे निर्माण और विकास के साथ ही हमें बनाए रखने के लिए पंच तत्वों का निश्चित अनुपात हमेशा बना रहना जरूरी है तभी हम तन-मन से स्वस्थ महसूस कर सकते हैं।
वर्तमान में समष्टि और व्यष्टि की जो भी समस्याएं हैं उन सभी का एकमेव कारण पंच तत्वों के संतुलन का गड़बड़ा जाना है। इससे प्राकृतिक प्रवाह बाधित होने लगता है, परिवेश में समस्याएं पैदा हो जाती हैं तथा इनका असर ये होता है कि जड़-चेतन सभी पर न्यूनाधिक रूप से प्रभाव पड़ता है। पेड़-पौधों और वनस्पतियों से लेकर हर तत्व से संबंधित स्थूल कारकों पर असर दिखाई देता है।
यहाँ हम इंसान की ही बात करें तो मनुष्य की सारी समस्याओं की जड़ पंच तत्वों का असंतुलन ही कहा जा सकता है। जिन तत्वों से इंसान की रचना हुई है उन सभी तत्वों का मनुष्य के शरीर में पर्याप्त संतुलन होना जरूरी है। ऎसा नहीं होने पर मनुष्य का शरीर विकारों का केन्द्र हो जाता है और कई सारी बीमारियां घेर लेती हैं। जल, पृथ्वी, आकाश, अग्नि और वायु इनका अपनी-अपनी जरूरत के मुताबिक शरीर में रहना नितान्त जरूरी है।
इनमें किंचित मात्र की कमी भी हमारे सारे शरीर तंत्र को गड़बड़ा देती है। इससे मन-मस्तिष्क और हृदय से लेकर समस्त ज्ञानेन्दि्रयों और कर्मेन्दि्रयों पर प्रभाव पड़ता है और आदमी का सम्पूर्ण संतुलन और अनुपात समाप्त हो जाता है। इसी से हमारे मन की अवस्थाएं बदल जाती हैं और विषाद, भय, आशंका और भ्रमों के साथ ही असंतोष, उद्विग्नता, क्रोध, अशांति और अन्यमनस्कता का जन्म होता है।
जितना अधिक यह संतुलन बिगड़ा हुआ रहेगा, उतना अधिक इंसान परेशान रहेगा। उसे अपने आप पर गुस्सा आएगा और मन कहीं नहीं लगेगा। तन भारी-भारी रहेगा और सूझ नहीं पड़ेगी। यह वह अवस्था है जब मनुष्य का जेहन और जिस्म दोनों विकारों, बीमारियों से ग्रस्त हो जाते हैं।
किसी भी एक तत्व की कमी या आधिक्य हो जाने पर पूरे शरीर पर इसका तत्काल असर पड़ता है। ऎसे में हम इसे दैहिक, दैविक और भौतिक ताप मानकर बीमारियों का ईलाज कराने की दिशा में दौड़-भाग शुरू कर दिया करते हैं जबकि तत्वों के संतुलन को कायम करने और रखने की दिशा में हम कुछ नहीं करते।
मन-मस्तिष्क और शरीर की किसी भी प्रतिकूल अवस्था के सामने आ जाने पर हमें सबसे पहले अपनी जीवनचर्या का चिंतन करना चाहिए और यह देखना चाहिए कि शरीर के लिए जरूरी तत्वों की आपूर्ति हो रही है या नहीं, तत्वों का संतुलन कहीं गड़बड़ा तो नहीं गया।
इस अवस्था में हमें प्रकृति के करीब जाने का अभ्यास आरंभ करना चाहिए। महाकाश के करीब जाकर घटाकाश की कमियों को पूर्ण किया जा सकता है। सोने के बाद अगले दिन हम अपने आपको तरोताजा इसलिए महसूस करते हैं क्योंकि रात्रि में सुप्तावस्था में हमारा सूक्ष्म शरीर देह को छोड़कर निकल जाता है और पंच महाभूतों के विराट तत्वों से जरूरी ऊर्जा और तत्वों के पुनर्भरण का काम कर लेता है।
इस प्रकार तत्वों के सूक्ष्म पुनर्भरण की प्रक्रिया तो पूरी हो जाती है लेकिन वो भी तब जबकि हम पूर्ण निद्रा का आनंद ले पाएं। इसी प्रकार पंच तत्वों के पुनर्भरण के लिए हमें प्रकृति के करीब जाने का अभ्यास निरन्तर जारी रखना चाहिए। महीने में एकाध बार बड़े जलाशयों में नहाना चाहिए, सूर्य या अग्नि का पर्याप्त ताप लेना चाहिए, उन स्थानों पर कुछ समय ठहरना चाहिए जो मीलों तक खुले हुए हों और प्रकृति का उन्मुक्त विलास देखा जा सके, शुद्ध हवाएं बहती हों।
ऎसा करने से शरीर के पंचतत्वों का पुनर्भरण हो जाता है और जरूरी ऊर्जा मिल जाने से तन-मन स्वस्थ और पुलकित बना रहता है, बीमारियां अपने आप पलायन करने लगती हैं और अजीब सी मस्ती छायी रहती है।
पंच तत्वों के पुनर्भरण की प्रक्रिया नियमित रूप से बनी रहनी चाहिए। पंच तत्वों का संतुलन और अनुपात निरन्तर बने रहने की स्थिति में हम अपने आपमें मस्त रहा करते हैं। पंच तत्वों के इस विज्ञान को आज समझने और अंगीकार करने की जरूरत है। इससे कई प्रकार की मानसिक एवं शारीरिक बीमारियों से मुक्ति पायी जा सकती है।