अमेरिकी गोलियां पहले चबाएं, फिर खाएं
डॉ0 वेद प्रताप वैदिक
विदेश मंत्री जान केरी का भारत आना और यहां आकर मोदी सरकार के साथ सामरिक संवाद करना आखिर किस बात का सूचक है? जिस नरेंद्र मोदी को अमेरिकी सरकार वीजा तक देने को तैयार नहीं थी और कांग्रेशनल सुनवाइयों में पानी पी-पीकर कोसती रहती थी, उसी ने अब अपने विदेश मंत्री को भारत भेजा है। इसके पहले उसने नैंसी पावेल नामक प्रसिद्ध राजनेता को, जो भारत में अमेरिकी राजदूत थीं, मोदी के दरबार में अहमदाबाद भेजा था और फिर मोदी का मान रखने के लिए उसे वापस बुला लिया था। मोदी को ओबामा ने खुद बधाई भी दी थी।
ऐसे में मोदी सरकार ने अमेरिकी विदेश मंत्री का स्वागत करके ठीक ही किया। जान केरी ने आज भारत पहुंचने के पहले वाशिंगटन में अपने एक भाषण में कहा कि उन्हें मोदी का एक नारा बहुत पसंद आया। उन्होंने उस हिंदी नारे को हिंदी में ही दोहराया- ‘सबका साथ, सबका विकास’। हमारे अंग्रेजी की गुलामी करने वाले बुद्धिजीवियों को कुछ अक्ल आई या नहीं?
यदि आप सबल हों, समर्थ हों, शक्तिमंत हो तो दुनिया आपकी भाषा बोलने लगती है। वह आपकी भाषा ही नहीं बोलती है, वह आपको अपना इक्कीसवीं सदी का महत्वपूर्ण ‘पार्टनर’ भी कहने लगती है। अमेरिका ने चीन को भुगतकर देख लिया। अब उसकी नज़र भारत पर टिक गई है। वह भारत के 30 करोड़ लोगों के उपभोक्ता-बाजार के लिए ललचा रहा है, वह अपनी पुरानी परमाणु भट्टियां भारत को टिकाना चाहता है, भारतीय मूल के 23 लाख सुयोग्य अमेरिकावासियों को रिझाए रखना चाहता है और भारत के जरिए अमेरिका में लाखों नए रोज़गार पैदा करना चाहता है। इसके अलावा अफगानिस्तान से वापसी के बाद दक्षिण एशिया की अपनी ‘चौकीदारी’ भारत के गले मढ़ना चाहता है। चीन के बढ़ते हुए प्रभाव को भारत से संतुलित करना चाहता है।
इन सब लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए वह भारत में बड़ी पूंजी लगाने, सस्ते और अच्छे हथियार बेचने और सुरक्षा परिषद में उसे उचित स्थान दिलाने आदि की गोलियां फेंक रहा है। भारत इन गोलियों को निगलने के लिए तैयार है। लेकिन मेरी सोच है कि इन गोलियों को चबाए बिना निगलना ठीक नहीं है। यदि भारत अमेरिकी जीवन-मूल्यों का अंधानुकरण करेगा तो वह अपराध और असंतोष का गढ़ बन जाएगा, जैसा कि अमेरिका खुद है। इसका अर्थ यह नहीं कि अमेरिकी सहकार के प्रति हम उदासीन हो जाएं। यह सहकार जितना बढ़े, उतना अच्छा है लेकिन यह देखना इस नई सरकार का कर्तव्य है कि भारत किसी भी भय या लालच में फंसकर किसी भी महाशक्ति का पिछलग्गू न बने। भारत का अपना भवितव्य (मुकाम) है। इस भवितव्य तक पहुंचने के लिए विदेश नीति के क्षेत्र में उसे अपनी स्वायत्ता और संप्रभुता पर कोई भी आंच नहीं आने देना चाहिए।