गतांक से आगे….
पह्यपुराण मैं लिखा है कि अत्रि ऋषि शीत-कटिबन्ध में तपस्या कर रहे थे। वहां उनको सर्दी लगी। वह सर्दी अत्रि ऋषि की आंखों में घुस गई और आंसू बनकर बाहर निकल पड़ी। उस गिरे हुए आंसू से चंद्रद्वीप,शीतद्वीप आदि भूभाग बन गये। वह सर्दी आकाश की और फिर उड़ी, परन्तु खाली जगह में पैर न जम सके, इसलिए समुद्र में गिर पड़ी। उस गिरी हुई सर्दी को अत्रि ने अपना चंद्र नामी पुत्र मारकर समुद्र से कहा कि, इसकी रक्षा करना। बहुत दिनों तक समुद्र ने इसकी कुछ भी परवाह न की,पर अन्त में उसको मनुष्य रूप देकर अपना पुत्र और लक्ष्मी का बन्घु माना। उस समय यह चंद्र प्रकाशहीन था, इसलिए देवताओं ने उसे औखली में कूदकर समुद्र में फिर फेंक दिया। यह फेंका हुका चूर्ण उत्तम चंद्रमा बन गया। वही चंद्रमा सुमद्र-मंथन के समय बाहर निकला और आकाश को उड़ गया। अत्रि का यही चंद्र जगत के कल्याण के लिए हुआ। परन्तु उन्होंने मनुष्य धारी पुत्र के लिए ब्रह्मा, विष्णु और शिव की आराधना की। ब्रह्मा, विष्णु और शिव ने क्रम से सोम दत्तात्रेय और दुर्वासा नामक तीन पुत्र दिए। इसी से संबंध रखनेवाली दूसरी कथा स्कंदपुराण में इस प्रकार है कि, अत्रि ऋषि ने मनुष्यों को वेद समझाने के लिए तीन पुत्र बनाए। एक सोम जो ब्रह्या की आकृति का था, दूसरा दत्तात्रेय जो विष्णु की आकृति का था और तीसरा दुर्वासा जी शंकर की आकृति का था । इन तीनीं से ज्ञात हुआ कि, देवी से ब्रह्मा, विष्णु और शिव हुए तथा ब्रह्मा, विष्णु और शिव से सोम दत्तात्रेय और दुर्वासा हुए। अब एक मार्कण्डेय पुराण की कथा का भी वर्णन करते हैं। उसमें लिखा है कि कौशिक नामी एक ब्राह्मण अपने पूर्वकृत कर्मानुसार कोढ़ी हो गया। उसकी सहधर्मिनी ग्लानिरहित होकर उसकी सेवा करती थी।एक दिन कुष्ठी ब्राह्मण ने अपनी स्त्री से कहा कि, मैंने जो रास्ते पर एक वैश्या देखी थी, वह मेरे को विचलित कर रही है,अतः उसके प्राप्त करने का उपाय कर। यह सुनकर वह स्त्री अपने पति को कंधे पर चढ़ाकर धीरे-धीरे वैश्या की तरफ ले चली,किन्तु रास्ते में उस कुष्ठी का पैर मांडव्य नामी ऋषि के बदन में लग गया।मांडव्य ने महाक्रोध करके शाप दे दिया कि, कल प्रातः काल होने के पूर्व ही तू मर जा। कुष्ठी की स्त्री इस श्राप से भयभीत हुई इधर-उधर ऋषि-मुनियों से इस शाप का मोक्ष पुछती हुई अत्रि ऋषि की स्त्री अनूसूया के आश्रम पहुंची और सारा वृत्तान्त सुनाया। अनुसूया ने कहा कि डरो मत। इतने में सूर्यउदय हो गया। और वह कुष्ठी ब्राह्मण मर गया। अनुसूया ने उस स्त्री से कहा कि तू भय मत कर, मेरा सामर्थ्य देख। पतिसेवा के सामने तपस्या क्या चीज है ? मेंने अपने जीवन में अन्य पुरुष अथवा किसी देवता की कामना नहीं की। इतना कहकर अनुसूया ने कहा कि मेरे सतबल से यह मृत्य पुरुष कुष्ठ रोग रहित होकर, तरुण होकर और जीवित होकर अपनी स्त्री के साथ 100 वर्ष तक रहे। अनुसूया के इतना कहते ही वह मृत पुरुष जी उठा, तरुण हो गया और कुष्ठ रोग से भी छुटकारा पा गया। यह देख देवताओं ने आनंदित होकर पुष्पों की वृष्टि की और अनुसूया से बोले कि तूने देवताओं से भी न होने वाला कार्य किया है, इसलिए वर मांग। देवताओं से अनुसूया ने कहा कि यदि वर देते हो, तो ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर को एक में मिलाकर मुझको पुत्र दीजिए। देवताओं ने यही वरदान दिया और कुछ दिनों के बाद ये तीनों देवता उसके उदर से इस प्रकार पैदा हुए-
सोमो ब्रह्माभवद् विष्णुर्दत्तात्रेयो व्यजायत।
दुर्वासा: शंकरो जज्ञे वरदानाद्दिवोैकसाम्।।
अर्थात् ब्रह्मदेव का सोम, विष्णु का दत्तात्रेय और शंकर का दुर्वासा होकर और एक में मिलकर दत्तात्रेय नामी पुत्र हुआ। इन तीनों रूपों से युक्त आजकल दत्तात्रेय की मूर्ति बनती है।
क्रमशः