ऋग्वेद की अनूठी ऋषिका:
रात्रि देवी को भी मान दिलाने वाली #रात्रिर्वा_भारद्वाजी
वह रात्रि है,अपने साथ अन्धकार तो लाती ही है;परन्तु उस अंधकार में जीवन होता है।उसमें नित नवीनता होती है,उसमें दिन का समापन नहीं होता अपितु वह स्वयं से साक्षात्कार का अवसर देती है।यह रात्रि नष्ट होने वाली रात्रि नहीं है,बल्कि यह रात्रि हमें सुलाने वाली रात्रि है,यह चाहती है कि हम सो जाएं,जो स्वप्न हमें पूर्ण करने हैं,उनसे हम मिलें।”
रात्रि के सम्बन्ध में यह विचार कितने सम्मोहित करने वाले विचार हैं।जब इन्हें पढ़ने बैठा जाए तो प्रश्न उठता है कि रात्रि का इतना सुन्दर वर्णन एवं इतना सकारात्मक वर्णन कोई कर सकता है और रात्रि की महत्ता को कोई इतनी उत्कृष्टता से प्रदर्शित कर सकता है?
क्या वाकई रात्रि अंधकार न होकर नवजीवन का संचार करने वाली है?
हम लोग बचपन से ही रात्रि से भय खाते हैं,रात्रि के कारण काले रंग से भय खाते हैं?
एवं यह हमारे मस्तिष्क में बैठा दिया गया कि हमारे ग्रन्थों में ही रात्रि को अज्ञान का प्रतीक माना गया हैपरन्तु जब आप वेदों से साक्षात्कार करते हैं या वेदों को पढ़ते हैं,तो आपको प्रतीत होता है कि हमारे अन्तस में रात्रि के विषय में बैठा हुआ यह भय कितना छद्म और काल्पनिक है। हमारी कल्पनाओं के विपरीत रात्रि को ऐसी स्त्री के रूप में प्रस्तुत किया गया है जो ममतामयी है,जो स्नेह न्योछावर करती है और रात्रि हमें जीवन जीने के लिए नए प्राण देती है।
ऋग्वेद का दसवां मंडल और उसका १२७वां सूक्त,जिसे रात्रि-सूक्त भी कहा जाता है,उसके रचनाकार ऋषि:कुशिकः सौभरो,रात्रिर्वा भारद्वाजी हैं;अर्थात एक स्त्री का भी नाम इसकी रचना करने वाले ऋषियों में है।
आइये रात्रि के सौन्दर्य और महत्ता पर एक नज़र डालते हैं:
“रात्री व्यख्यदायती पुरुत्रा देव्यक्षभी
विश्वा अधि श्रियो ऽधित।”
इसे अंग्रेजी में इस प्रकार कहा गया है:
1-WITH all her eyes the Goddess Night looks forth approaching many a spot:
She hath put all her glories on। (Ralph T।H। Griffith)
इसमें रात्रि को देवी के रूप में बताया गया है।जिसमें रात्रि अपने नैयनों से बहुत कुछ देख रही है।वह बच्चों का ध्यान रखने वाली रात्रि है,जैसे वह सब कुछ देखती हुई आ रही है कि बच्चों को सुलाना है,जो दिन भर काम करने पैर थक गए हैं,उन्हें जीवन संघर्ष के लिए तैयार करना है।देवी रात्रि इतनी सरल भी तो नहीं है।वह अपने सम्पूर्ण वैभव के साथ चली आ रही है।
इस सूक्त का तीसरा मन्त्र प्रकृति के समन्वय का अद्भुत मन्त्र है।इसमें रात्रि देवी अपनी बहन ऊषा के लिए स्थान खाली कर रही है;जैसे बहनों के मध्य संघर्ष का कोई इतिहास ही नहीं है।ऊषा जब आने वाली है तब रात्रि अपने अंतिम चरण में है।रात्रि को ज्ञात है कि जो बच्चे रात में सोए थे,अब उनकी थकान उतर चुकी है और अब उसकी बहन ऊषा का कार्य आरम्भ होगा अब वह उसके लिए मार्ग दे रही है।
“निरू सवसारमस्कृतोषसं देव्यायती,
अपेदु हासते तम:।”
अर्थात-
The Goddess as she comes hath set the Dawn her Sister in her place:
And then the darkness vanishes.
रात्रि अपने समापन की ओर बढ़ रही है और वह उस उत्साह का अनुभव स्वयं में कर रही है,जो बच्चों और युवाओं में संचरित हो गया है।वह चेतना को सजग करके जा रही है।
रात्रिदेवी को सबको आराम देने वाली देवी के साथ ही परिवार और घर की महत्ता को भी बताया गया है।पांचवे मन्त्र में कहा गया है,रात्रि के आते ही गाँव वाले अपने घर की तरफ चले आते हैं और पक्षी भी अपने घोसलों की तरफ चले जाते हैं।सबके ह्रदय में विश्राम एवं आने वाले कल के लिए खुद को तैयार करने का विचार ही रह जाता है;अर्थात इसमें रात्रि को विश्राम काल एवं घर में विश्राम को प्रदर्शित किया गया है।
“नि ग्रामासो अविक्षत नि पद्वंतो नि पक्षीण:
नि श्येनासच्शिदार्थिन।”
अर्थात:
The villagers have sought their homes and all that walks and all that flies,
Even the falcons fain for prey.
रात्रि भारद्वाजी ने रात्रि के वर्णन को जीवंत कर दिया है।
काला कोई नहीं है,रात्रि भी काली नहीं है,वह विश्राम देने आती है,वह माँ है जो सुलाने के लिए आती है।इस रात्रि के अंधकार से डरना बंद करें।स्वागत करें,यही पहले कहा गया था!!
✍🏻संजीव कुमार पुंडीर