मानव बस्तियों में सन्नाटा पसराता युद्ध
रूस और यूक्रेन का युद्ध रुकने का नाम नहीं ले रहा है। इसी समय हमारे देश के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने दोनों देशों के राष्ट्रपतियों से फोन पर संवाद स्थापित किया है। हमारे लिए यह गर्व की बात हो सकती है कि इस समय भारत की बात को विश्व बहुत ही ध्यान पूर्वक सुनने का प्रयास कर रहा है । इस बीच पोलैंड की ओर से ऐसे संकेत दिए गए हैं कि वह यूक्रेन के साथ मिलकर रूस के विरुद्ध की जा रही कार्यवाही में सम्मिलित हो सकता है । पर इसी समय कुछ ऐसी बातें भी हो रही हैं जिनकी और मानवता का ध्यान आकृष्ट करना आवश्यक है ।
यूक्रेन से निकलकर पोलैंड की ओर जा रहे लोगों के विशाल दल इस समय हम सभी के लिए चिंता का विषय बन गए हैं। यूक्रेन और पोलैंड की सीमा का एक चित्र इस समय सोशल मीडिया और टीवी चैनलों पर बहुत अधिक दिखाया गया है। जहां एक बच्चा अपने माता-पिता से बिछुड़कर घायल अवस्था में रोता चिल्लाता चलता जा रहा है। उसे नहीं पता कि वह कहां जाएगा और उसके साथ क्या हो चुका है ? वह नहीं जानता कि किन लोगों ने उसका संसार उजाड़ दिया है और इन बम धमाकों का अर्थ क्या है ?
यूक्रेन की राजधानी कीव से जो भी विदेशी अपने अपने देश के लिए लौट रहे हैं उनके साथ जो कुछ भी हो रहा है उसे किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं कहा जा सकता। तथाकथित सभ्य समाज में आज भी रंग के आधार पर भेदभाव की नीति का शिकार होते लोगों के दर्द को इस सभ्य समाज का कोई भी नेता समझने को तैयार नहीं है। अफ्रीकन लोगों के लिए उनका काला रंग आज भी एक अभिशाप बनकर सामने आ खड़ा हुआ है।
इस समय न केवल यूक्रेन के अपने निवासी कीव को छोड़कर दूर सुरक्षित स्थानों के लिए भाग रहे हैं बल्कि विदेशी लोग भी कीव को खाली कर कहीं ना कहीं सुरक्षित स्थानों के लिए प्रस्थान कर रहे हैं । स्थानीय निवासी गोरी चमड़ी के लोगों को ट्रेन में बैठने के लिए प्राथमिकता दे रहे हैं । जबकि अफ्रीकन लोगों को वहीं रुके रहने के लिए मजबूर किया जा रहा है। उनके लिए संभवत: कोई ऐसी ट्रेन नहीं है जो उन्हें भी सुरक्षित स्थान पर ले जाए। क्योंकि जो भी ट्रेन आ रही है उसमें से उन्हें रोककर गोरी चमड़ी के लोगों को बैठा लिया जाता है। ये बेचारे मन मसोसकर वहीं बैठे रह जाते हैं।
ऐसी घटनाओं को देखकर बड़ा दुख होता है। वैसे तो युद्ध ही सभ्य समाज के मुंह पर एक तमाचा है, जो बता रहा है कि हम अभी तक भी ‘सभ्य समाज’ नहीं बना पाए हैं । अहंकार के वशीभूत होकर हम एक दूसरे को नीचा दिखाने की प्रवृतियों में यदि आज भी सम्मिलित हैं तो हमें सभ्य समाज का नागरिक कहा जाना भी अच्छा नहीं है।
खबरें आ रही हैं कि लोग बेतहाशा सीमाओं की ओर भाग रहे हैं और सीमाओं पर खड़े मानव तस्कर इस को अपने लिए स्वर्णिम अवसर समझकर मानव तस्करी के धंधे में लग गए हैं। लोगों को बहला-फुसलाकर वहां से इधर-उधर ले जाया जा रहा है । उन्हें या तो बंधुआ मजदूर बनाकर कहीं बेचा जा रहा है या उनके सामान आदि को लूटा जा रहा है । महिलाएं सुरक्षित नहीं हैं और बच्चे भी किसी न किसी प्रकार से उत्पीड़ित किए जा रहे हैं। ऐसी घटनाओं को क्या विश्व के बड़े नेता नहीं देख रहे हैं ? क्या उन्हें यह अनुमान नहीं है कि जब दो देशों के बीच इस प्रकार का भयंकर युद्ध होता है तो आम आदमी को कितनी प्रकार की परेशानियों से गुजरना पड़ता है ? मध्यकालीन इतिहास में तुर्क और मुगलों के द्वारा जिस प्रकार जनसाधारण पर अत्याचार किए जाते थे और वे मनमाने ढंग से एक-दूसरे के देश की सीमाओं को तोड़कर या उनमें बलात प्रवेश करके वहां के लोगों के साथ मनमाना अनाचार करते थे यदि आज भी इतिहास की वही घटनाएं घटित हो रही हैं तो समझिए कि इतिहास से हमने कुछ नहीं सीखा है और हम वहीं कदमताल कर रहे हैं जहां अब से हजार बारह सौ वर्ष पूर्व खड़े हुए थे।
इस समय सारे विश्व की संवेदनाएं युद्ध पीड़ितों के साथ होनी चाहिए । जबकि अभी हम देख रहे हैं कि तेजी से लोग किसी न किसी खेमे के साथ जुड़ते जा रहे हैं । खेमेबंदियों में बंटा संसार क्या अपने आत्मविनाश की ओर बढ़ रहा है ? यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है कि बड़ी शक्तियां इस समय युद्ध ग्रस्त दोनों देशों को शांत रहकर उन्हें वार्त्ता की मेज पर लाने का कोई प्रयास करती दिखाई नहीं दे रही हैं। इसके विपरीत वे पीछे से यूक्रेन को हथियारों की आपूर्ति करके उसका और भी विनाश करने की नीति पर काम कर रही हैं । जब सारा संसार विनाश की भयंकर विभीषिकाओं को उठते हुए देख रहा हो उस समय भी बड़े देश अपने ‘व्यापार’ पर ध्यान दे रहे हैं अर्थात हथियारों की आपूर्ति के माध्यम से ‘चांदी’ काटने के :धंधे’ में लगे हुए हैं। इन्हें कौन समझाए कि इस समय ‘धंधा’ बंद करके ‘धंधे’ के लिए उचित परिवेश सृजित करने की आवश्यकता है। यदि आपदाग्रस्त मानवता के लिए आई दुखद घड़ियों को भी इन्होंने किसी अच्छे ‘चांस’ के रूप में ‘कैश’ करने की नीति पर काम किया तो समझ लेना चाहिए कि मानवता आपने विनाश से अब अधिक दूर नहीं है। पहले विश्व युद्ध में हमने 9500000 लोगों को बेमौत मरते देखा था। इसके बाद द्वितीय विश्व युद्ध में 7 करोड़ 85 लाख लोगों को मौत के मुंह में जाते हुए देखा । उसके पश्चात भी हुए अनेक युद्ध हमारे भीतर के कलुषित मानस के परिचायक रहे हैं। जिनके चलते अनेकों जाने चली गयीं। जितना बड़ा ‘हत्यारा’ होता है वह उतना ही बड़ा इतिहास नायक बन जाता है। इस प्रवृत्ति को इतिहास के दृष्टिकोण से न देखकर मानवता के दृष्टिकोण से देखने की आवश्यकता है कि यह मानव समाज के हित में कितनी उपयुक्त है ? हत्यारों के इतिहास का गुणगान करते विश्व इतिहास के एक नायक के रूप में यदि रूस के पुतिन भी चल पड़े हो तो क्या बुराई है ?
हम सब जानते हैं कि किसी भी समस्या का समाधान युद्ध नहीं है। युद्ध समस्याओं को बोता है, काटता नहीं है। युद्ध समस्याओं की पौधशाला है । इससे जितनी भी युद्ध की पौध उठाकर कहीं रोपी जाती है उतने ही अधिक युद्ध पैदा होते हैं। इसका कारण केवल एक ही है कि नीम के बीज से नीम ही पैदा होता है। हम सब यह भी जानते हैं कि युद्ध भयानक और विनाशकारी होते हैं । युद्ध शमशानों में रोशनी करते हैं और मानव बस्तियों में अंधकार का सन्नाटा पसराते हैं । अब यह हमारे ऊपर है कि हम श्मशान की रोशनी लेना चाहते हैं या फिर मानव बस्तियों में सन्नाटा देखना चाहते हैं ?
हम यह भी जानते हैं कि प्रत्येक समस्या का समाधान वार्ता की मेज पर ही आकर होता है । पहले विश्व युद्धों के परिणाम भी हमारे सामने हैं। जिनसे हुई अपार जनधन की हानि को झेलकर विश्व समुदाय के बड़े नेता फिर भी वार्ता की मेज पर आकर ही बैठे थे। क्या हम इतिहास से कोई शिक्षा नहीं ले सकते ? यदि ले सकते हैं तो विश्व के नेताओं को अपनी दुकानदारी या धंधे की चिंता छोड़कर मानवता के हित में सोचना चाहिए और दोनों पक्षों को वार्ता की मेज पर बैठकर युद्ध को समाप्त करने के लिए दबाव बनाना चाहिए। इकबाल की यह पंक्तियां बड़ी सार्थक हैं :-
दयार-ए-मग़रिब के रहने वालो ख़ुदा की बस्ती दुकाँ नहीं है
खरा जिसे तुम समझ रहे हो वो अब ज़र-ए-कम-अयार होगा
तुम्हारी तहज़ीब अपने ख़ंजर से आप ही ख़ुद-कुशी करेगी
जो शाख़-ए-नाज़ुक पे आशियाना बनेगा ना-पाएदार होगा ।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
मुख्य संपादक, उगता भारत