संघ लोक सेवा आयोग की भर्ती-परीक्षा में ‘सीसेट’ के प्रश्न-पत्रों का इतना तगड़ा विरोध होगा, इसका अंदाज न तो पिछली सरकार को था और न ही वर्तमान सरकार को। पिछले साल दिल्ली के मुखर्जी नगर में जब इन छात्रों की पहली सभा को मैंने संबोधित किया था तो मुझे ऐसा जरुर लगा था कि यह आंदोलन पिछले कुछ हिंदी आंदोलनों की तरह बीच में ही ठप्प नहीं होगा। इसका कारण था। आंदोलनकारी छात्रों का भविष्य इस आंदोलन से सीधा जुड़ा हुआ था। लगभग दस लाख छात्र इस परीक्षा के लिए आवेदन करते हैं। सरकार की इन भर्ती-परीक्षाओं में अंग्रेजी का इतना बोलबाला है कि हिंदी माध्यम से पास होनेवाले छात्रों की संख्या निरंतर घटती जा रही है। पिछले साल 1122 लोग चुने गए, जिनमें से सिर्फ 26 हिंदी वाले थे। शेष सभी भारतीय भाषाओं के सिर्फ 27 लोग चुने गए याने किसी भाषा के सिर्फ एक-दो आदमी सरकारी नौकरी में भर्ती हुए और किसी भाषा के एक भी नहीं! क्या दुनिया के किसी स्वतंत्र राष्ट्र में कभी ऐसा होता है? भारत की यह स्थिति तो गुलाम राष्ट्रों से भी बदतर है।
यह मामला सिर्फ हिंदी का नहीं, समस्त भारतीय भाषाओं का है। जब मैंने 1965 में इंडियन स्कूल आॅफ इंटरनेशनल स्टडीज़ में अपना अन्तरराष्ट्रीय राजनीति का पीएच.डी. शोधग्रंथ अपनी मातृभाषा (हिंदी) में लिखने की मांग की तो संसद में जबर्दस्त हंगामा हो गया। कई बार संसद ठप्प हुई। महिनों बहस चली। आखिर उच्च शोध के लिए भारतीय भाषाओं के द्वारा खुले। उसी समय संसद में यह बहस भी चली कि सरकारी नौकरियों की भर्ती-परीक्षाएं सिर्फ अंग्रेजी में क्यों होती हैं, भारतीय भाषाओं में क्यों नहीं? एक के बाद एक कई आयोग बने लेकिन इन परीक्षाओं में बरसों-बरस अंग्रेजी का रुतबा ज्यों का त्यों बना रहा। लगभग 15 साल तक मेरे कुछ साथियों ने लगातार आयोग के द्वार पर धरना भी दिया। 12 मई 1994 को हमारे समर्थन में पूर्व राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंह, अटलबिहारी वाजपेयी, वीपी सिंह, चैधरी देवीलाल, पासवान, नीतीशकुमार तथा अन्य कई नामी-गिरामी नेता भी शामिल हुए। आयोग की परीक्षाओं में धीरे-धीरे भारतीय भाषाओं को छूट तो मिली लेकिन अंग्रेजी की दमघोंटू अनिवार्यता अभी तक बनी हुई है।
यही अनिवार्यता अब छात्रों को सड़क पर उतरने के लिए मजबूर कर रही है। ऐसा नहीं है कि यह आंदोलन सिर्फ दिल्ली में हो रहा है। हैदराबाद, चेन्नई, बेंगलूरु तथा अन्य प्रांतीय राजधानियों में भी काफी सुगबुगाहट है। वर्तमान छात्र-आंदोलन का लक्ष्य सीमित है। यह केवल ‘सीसेट’ के प्रश्न-पत्रों को हटवाना चाहता है। यह ‘सीसेट’ क्या बला है? यह भर्ती की प्रारंभिक परीक्षा का अंग्रेजी नाम है। इसका पूरा नाम है- ‘सिविल सर्विसेज़ एप्टीट्यूड टेस्ट’। याने सरकारी नौकरियों में भर्ती होनेवालों के बौद्धिक रुझान, मानसिक स्तर, सामान्य ज्ञान आदि की परीक्षा! इस प्रारंभिक परीक्षा का उद्देश्य अच्छा है लेकिन इस प्रश्न-पत्र में तकनीकी, वैज्ञानिक, गणितीय और व्यावसायिक प्रश्नों की भरमार रहती है। उसके कारण, जो छात्र इन्हीं विषयों को पढ़कर आते हैं, वे उन प्रश्नों को दनादन हल कर लेते हैं और जो छात्र कला, सामाजिकी और मानविकी विषय आदि पढ़कर आते हैं, वे बगले झांकते रहते हैं। याने सीसेट प्रश्न-पत्रों का मूल चरित्र ही प्रश्नों के घेरे में है। इसके अलावा जो सवाल हिंदी में पूछे जाते हैं, उनकी हिंदी माशा अल्ला होती है, क्योंकि वह हिंदी नहीं होती है। अंग्रेजी का भ्रष्ट अनुवाद होता है। गूगल का उटपटांग अनुवाद दे दिया जाता है। जैसे ‘स्टील प्लांट’ का अर्थ ‘लोहे का पौधा’ ओर ‘वाॅचडाॅग’ का अर्थ ‘कुकरदृष्टि’ कर दिया जाता है। अब छात्र क्या करें? जब प्रश्न ही उनके पल्ले नहीं पड़ेगा तो वे उत्तर क्या देंगे? उन्हें हिंदी या मातृभाषा के माध्यम से परीक्षा देने की छूट जरुर है लेकिन यह छूट भी क्या छूट है। सारे प्रष्न-पत्र सिर्फ हिंदी और अंग्रेजी में क्यों होते हैं? अन्य भारतीय भाषाओं में क्यों नहीं? इसके अलावा 200 नंबरों के दो प्रश्नपत्रों में 22 नंबर के सवाल अंग्रेजी में होते हैं। उनके जवाब भी अंग्रेजी में देने होते हैं। इन 20-22 नंबरों का घाटा जिन छात्रों को होता है, वे तो फिजूल में ही मारे गए न! भर्ती-परीक्षा में तो एक-एक नंबर कम या ज्यादा आने पर छात्रों का भविष्य बनता-बिगड़ता है। आप उनकी योग्यता, कार्यक्षमता और बौद्धिक रुचि की परीक्षा ले रहे हैं या यह जानने की कोशिश कर रहे हैं कि वे अंग्रेजी की रंटत-विद्या में निष्णात हैं या नहीं?
अंग्रेजी की रटंत-विधा से पैदा हुई नौकरशाही ने आजाद भारत में क्या गुल खिलाए हैं, यह सबको पता है। हमारे बड़े-बड़े नेता इसी अंग्रेजी की दहशत के कारण अपने नौकरशाहों के नौकर बने रहते हैं। कानून बनाने वाले सांसदों को कानून की धाराओं के सही अर्थ मालूम नहीं होते, क्योंकि वे अंग्रेजी में बने होते हैं। हमारी अदालतों में बरसों तक करोड़ों मुकदमे क्यों लटके रहते हैं? उसमें बहुत-सी भूमिका अंग्रेजी की भी है। इसीलिए मैं कहता हूं कि यह मामला सिर्फ ‘सीसेट’ के प्रश्न-पत्रों का नही है, संपूर्ण भाारत की शासन-व्यवस्था का है। यदि सरकारी कामकाज में अंग्रेजी छाई हुई है तो आप उसे भर्ती-परीक्षा से कैसे हटा सकते हैं? सभी पिछली सरकारों ने इस मजबूरी के सामने घुटने टेके हैं लेकिन क्या मोदी सरकार भी यही करेगी?
मोदी सरकार ने छात्रों की मांग पर आवश्यक ध्यान दिया है। तुरंत कमेटी बैठाई लेकिन कमेटी और आयोग ने टके-सा जवाब दे दिया है। वे कुछ भी परिवर्तन करने को तैयार नहीं हैं। 24 अगस्त को परीक्षा होनी है। इतनी जल्दी कुछ नहीं हो सकता। अगर कुछ किया तो कई छात्र आयोग के खिलाफ मुकदमा चला सकते हैं। नौकरशाह यही कहेंगे लेकिन मोदी-सरकार की यह अग्नि-परीक्षा है। या तो वह कोई बीच का रास्ता निकाले या सीसेट को ही रद्द कर दे। सिर्फ सीसेट को रद्द करना ही काफी नहीं है, वह अंग्रेजी के ‘क्वालिफाइंग’ पर्चे को भी रद्द करे। इस अंग्रेजी की अनिवार्य परीक्षा के नंबर चाहे न जोड़े जाते हों लेकिन यदि इसमें अनुत्तीर्ण होनेवाले छात्रों के शेष पर्चे जांचे ही नहीं जाते हों तो क्या माना जाएगा? क्या यह नहीं कि भारत सरकार के अफसर बनने की सिर्फ एक ही योग्यता है- आपका अंग्रेजी ज्ञान! आपकी बाकी सभी योग्यताएं बेकार हैं।
जनता की दृष्टि से इसका क्या अर्थ निकला? यही कि देश के लगभग 110 करोड़ लोग ऐसे हैं जिनके बच्चों का शासन-संचालन से कोई लेना-देना नहीं है, क्योंकि ये लोग अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के खर्चीले स्कूलों में नहीं पढ़ा सकते। सरकारी नौकरियों पर सिर्फ मुट्ठीभर लोगों का कब्जा बना रहेगा। शहरी, मालदार, ऊंची जातियों और अंग्रेजीदां लोगों का! देश के गरीब, ग्रामीण, वंचित, पिछड़े लोग नरेंद्र मोदी के राज में भी क्या वैसे ही रहेंगे, जैसे अंग्रेजों के राज में रहते आए थे? मोदी ने प्रधानमंत्री बनते ही वह करिश्मा दिखाया था, जो भारत का कोई प्रधानमंत्री नहीं दिखा पाया। उन्होंने विदेशी नेता से अंग्रेजी नहीं, हिंदी में बात की। उन्होंने सरकारीतंत्र को भी हिंदी में काम करने का आदेश दिया था। वे संयुक्तराष्ट्र संघ में भी हिंदी में ही बोलेंगे लेकिन यदि संघ लोक सेवा आयोग में हिंदी और भारतीय भाषाओं को लेकर यही ढर्रा चलता रहा तो मोदी की छवि को गहरा धक्का लगेगा। यदि मोदी सरकार समस्त भारतीय भाषाओं को भर्ती-परीक्षाओं में उनका उचित स्थान दिलवा दें तो वे गुजरातियों और हिंदीभाषियों ही नहीं, समस्त भारतीयों के प्रेमपात्र बन जाएंगे।
(लेखक, भारतीय भाषाओं के संघर्ष के प्रतीक हैं। उन्होंने दयानंद, गांधी और लोहिया की तरह अंग्रेजी के वर्चस्व को खुली चुनौती दी है। वे स्वभाषा आंदोलनों के सूत्रधार रहे हैं)