ऋग्वेद 8, 4, 2 में ‘यद्घा रूमे रूशमे’ अर्थात रूम और रूस के नाम भी आये हैं। जिस प्रकार अमुक अमुक उत्कृष्ट कारणों से अमुक-अमुक भूमिखण्ड को व्रज और अर्व आदि कह सकते हन्ैं, उसी तरह अमुक उत्कृष्ट गुणों के कारण कुछ देशों के नाम रूस भी हो सकते हैं। वर्तमान प्रसिद्घ रोम और रूस देशों के नाम भी वैसे ही उत्कृष्ट कारणों से रक्खे गये होंगे। पर अब उनका अर्थ ज्ञात नही है। संभव है रूम से पशमीना और रूस से भी कोई ऐसी ही वस्तु प्राप्त होती हो।
मागध
अथर्ववेद काण्ड 15 में मागध शब्द भी इस प्रकार आता है कि-
श्रद्घा पुंश्चली मित्रो मागधो विज्ञानम् ।। 1 ।।
उषा: पुंश्चली मंत्रो मागधो विज्ञानम् ।। 2 ।।
इरा पुंश्चली हसो मागधो विज्ञानम् ।। 3 ।।
विद्युत पुंश्चली स्तनयित्नुर्मागधो विज्ञानम्
।। 4 ।।
यहां पुंश्चली और मागध विज्ञान बतलाकर उषा और विद्युत के साथ संबंध जोड़ा गया है। आकाशीय पदार्थों के व्यभिचार से ही इसका संबंध प्रतीत होता है। मनुस्मृति में हम वर्णसंकर प्रकरन्ण में देखते हैं कि अमुक अमुक वर्ण के संकर संयोग से मागध पैदा होते हैं। पुराने जमाने में जहां दुराचारिणी स्त्रियां रहती होंगी, उसी स्थान का नाम मागध रखते होंगे। मगध देश जिसको मग कहते हैं और जो काशी के उस पार है उसमें मरने से नरक प्राप्त होना लिखा है। यह इसीलिए कि मध्यम काल में वह मगध था और वहां दुश्वरित्रा स्त्रियां रहा करती होंगी। इस तरह ऋ. 3,52,14 में लिखा है कि किं ते कृणवन्ति कीकटेषु गाव: अर्थात कीकट में गौवें क्या करेंगी? वेद में मना किया गया है कि कीकट में गौवों को नही रहना चाहिए। इससे ज्ञात होता है कि जहां गौवों के दुख हो, जहां उन्नको उनके दुख देने वाला प्राणी हों, वहां गौवें न रहें। गया प्रांत में किसी समय ऐसे प्राणी थे, जो गौवों को सताते थे। इसलिए उस स्थान को कीकट कहा गया है। कीकट देश मगध और अंग के पास है। अंग देश ज्वरप्रधान होने से और मगध व्यभिचार प्रधान होने से ज्ञात होता है कि वहां अनार्यों का प्राधान्य था। वे गोवध करते होंगे, इसलिए आर्य लोग उस जगह को कीकट कहने लगे और मानने लगे कि मगध, कीकट, अंग, वंग, कलिंग आदि देशों में वास करने से मनुष्य पतित हो जाता है। कहीं का श्लोक है कि-
अंगवंगकलिंगगेषु सौराष्ट्रमगधेषु व ।
तीथ्रयात्रा विना गत्वा पुन: संस्कारमर्हति।
अर्थात बिना तीर्थयात्रा के यदि कोई अंग, वंग, कलिंग सौराष्ट्र और मगध देश को जाएगा, तो फिर से संस्कार करने योग्य समझा जाएगा। तीर्थों के लिए लिखा है कि-
कीकटेषु गया पुण्या पुण्यानदी: पुनपुना।
च्यवनस्याश्रमं पुण्यं पुण्यं राजगृहं वनम्।
अर्थात कीकटन् में गया, पुनपुना नदी, च्यवनाश्रम और राजगृह पवित्र है, शेष पापस्थान है। वेद में अंग, मगध, कीकट आदि नाम उन स्थानों के लिए आये हैं, जहां बीमारी हने, लोग दुराचारी और गोहत्यारे हों। उपर्युक्त स्थानों में यही सब लक्षण देखकर सर्वश्रेष्ठ आर्यों ने उनके वैसे नाम रखे थे और वहां जाने से भय करते थे।
वेद में वाह्ीक शब्द भी आता है। भाव प्रकाश में लिखा है कि ‘सहस्रवेधि जतुकं वाहृीकं हिंगु रामठम्’ अर्थात बाहृीय हींग को कहते हैं। इसका मतलब यही है कि हींग केसर आदि पदार्थ जहां होते हो, उसे वाहृीक कहते हैं। आज भी बलख बाहृीक से हींग और केसर आती है। पुराने जमाने में उक्त पदार्थों के वहां उत्पन्न होने से ही वे नाम पड़े होंगे। यहां तक हमने वेद में आए राजाओं, ऋषियों, नदियों, नगरों और देशों के नामों को विस्तार से देखा और सबको अलौकिक वर्णनों से युक्त ही पाया। कोई ऐसा नाम न मिला। जिसके आसपास के शब्दचमत्कृत वर्णनवाले न हों। कहीं इंद्र मौजूद है कहीं अश्विनी बैठे हैं, कहीं सूर्य है कहीं किरणें हैं और कहीं विद्युत हाजिर है। इसी तरह कहीं वनस्पति है अथवा शरीर की कोई इंद्री है। ऐसी दशा में उन शब्दों को इतिहासिक व्यक्तियों के साथ जोडऩा हमें तो ठीक नही जंचता। हम उन विद्वानों की हिम्मत की प्रशंसा करते हैं जो हवा में पुल बांधते हैं।
क्रमश:
लेखक उगता भारत समाचार पत्र के चेयरमैन हैं।