वेदप्रताप वैदिक
रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने पश्चिमी राष्ट्रों को खुली चेतावनी दे दी है कि वे यूक्रेन मामले में टांग अड़ाने की कोशिश ना करें, वरना एक राज्य के तौर पर यूक्रेन का नामो-निशान मिट भी सकता है। उन्होंने इतनी सख्त प्रतिक्रिया यूक्रेन की इस मांग पर की है कि नाटो देश उसके वायु-मार्गों को निषिद्ध घोषित करें, ताकि रूस-जैसा कोई देश यूक्रेन पर हवाई हमला न कर सके। पुतिन का यह सख्त रवैया पश्चिमी देशों को धमकाने में कारगर होगा। वो पहले खुद ही कह चुके हैं कि वो यूरोप में युद्ध नहीं चाहते। यूक्रेन के लगभग आधा दर्जन शहरों पर रूस का कब्जा हो चुका है। यूरोप और यूक्रेन के सबसे बड़े परमाणु संयंत्र भी रूस के नियंत्रण में आ गए हैं। आश्चर्य नहीं कि राजधानी कीव भी अब जल्दी ही यूक्रेन के हाथ से निकल जाए।
नाटो का रुख
रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन को इस बात का बिल्कुल भी अंदाज नहीं रहा होगा कि जेलेंस्की की सरकार और यूक्रेनी लोग उनके हमले का इतना डटकर मुकाबला कर लेंगे। जहां तक नाटो राष्ट्रों का सवाल है, उन्होंने जेलेंस्की को पानी पर तो चढ़ाया लेकिन उन्हें डूबने से बचाने के लिए वे आगे नहीं आए। पुतिन ने तो परमाणु-युद्ध तक की धमकी दे डाली। नाटो राष्ट्रों और अमेरिका ने अपने बगलबच्चे यूक्रेन की रक्षा करना तो दूर, साफ-साफ कह दिया कि वे यूरोप में युद्ध नहीं चाहते। खुद जेलेंस्की ने नाटो के इस नख-दंतहीन रवैए की आलोचना की है। अमेरिका और उसके साथी राष्ट्रों ने रूस के विरुद्ध तरह-तरह के प्रतिबंधों की घोषणा कर दी है लेकिन रूसी फौजों के खिलाफ लड़ने के लिए उन्होंने अपना एक भी सैनिक यूक्रेन नहीं भेजा है। अभी तक रूस द्वारा यूरोपीय राष्ट्रों को बेचे जाने वाले तेल और गैस पर प्रतिबंध नहीं लगा है, क्योंकि उसके लगने पर उनकी अर्थव्यवस्था घुटनों के बल बैठ जाएगी। अमेरिका और उसके समर्थक राष्ट्रों ने सुरक्षा परिषद, संयुक्त राष्ट्र महासभा और मानव अधिकार परिषद में भी रूस के विरुद्ध मतदान किया है, लेकिन रूस पर इसका जरा-सा भी प्रभाव नहीं पडा।
रूस ने कुछ घंटों के लिए युद्ध-विराम की घोषणा इस दृष्टि से जरूर की थी कि भारत-जैसे मित्र-देशों के छात्र और जो भी यूक्रेनी नागरिक बाहर निकलना चाहें, निकल सकें। लेकिन उस पर भी पूरी तरह अमल नहीं हो सका। पश्चिमी राष्ट्रों का जुबानी जमा-खर्च जारी है लेकिन यहां यह संतोष का विषय है कि रूस और यूक्रेन के अधिकारियों के बीच दो बार संवाद हो चुका है और तीसरा संवाद भी होनेवाला है। तीसरे संवाद के दौरान अगर दोनों पक्षों के बीच कोई समझौता हो जाए तो रूस और यूक्रेन ही नहीं, यूरोप और सारी दुनिया की चिंता दूर हो जाएगी। जेलेंस्की और पुतिन के बीच समझौता होना कठिन नहीं है। अगर यूक्रेन की सार्वभौम और स्वतंत्र राष्ट्र की हैसियत बनी रहे और वह पश्चिमी राष्ट्रों का मोहरा न बनने का वादा करे तो यह संकट समाप्त हो सकता है।
यूक्रेन पर हुए रूसी हमले का कोई भी विवेकशील व्यक्ति समर्थन नहीं कर सकता। लेकिन यह तथ्य भी विचारणीय है कि कोई भी राष्ट्र अपनी सीमा पर किसी ऐसे पड़ोसी राष्ट्र को कैसे बर्दाश्त कर सकता है, जो किसी प्रतिद्वंद्वी राष्ट्र का मोहरा बनने को तैयार हो? अगर यूक्रेन नाटो में शामिल हो जाता तो वह रूस के विरुद्ध वही भूमिका निभाता, जो भारत के विरुद्ध पाकिस्तान निभाता रहा है। क्या भारत यह बर्दाश्त कर सकता है कि नेपाल या भूटान, चीन के किसी सैन्य-गुट में शामिल हो जाएं? यदि वे चीन से अपने रिश्ते अच्छे बनाना चाहते हैं तो जरूर बनाएं, लेकिन यह न भूलें कि वे सदियों से भारत के वृहद परिवार के सदस्य हैं। यही बात यूक्रेन पर भी लागू होती है।
यूक्रेन ने आजाद होते ही पिछले तीन दशकों में पश्चिमी यूरोप के नाटो देशों और अमेरिका से अपने व्यापारिक, राजनीतिक और सामरिक संबंधों में कई नए कदम बढ़ाए। लेकिन यूक्रेन के नाटो में शामिल होने के आग्रह ने पुतिन को इस सैनिक कार्रवाई के लिए मजबूर किया। वैसे सोवियत रूस के कई पुराने प्रांत और उसके वारसा पैक्ट के कुछ सदस्य भी नाटो में शामिल हुए हैं लेकिन यूक्रेन के भौगोलिक, सामरिक और जनसंख्या के चरित्र की कुछ ऐसी अनिवार्यताएं हैं, जो रूसी सुरक्षा के लिए खतरनाक हो सकती थीं। इसके अलावा रूस को डर यह भी था कि यूक्रेन की भूमि पर अमेरिकी प्रक्षेपास्त्रों और परमाणु आयुधों को तैनात किया जा सकता है।
अब, जबकि यूक्रेन पर रूस का हमला हो गया है तो सारा परिदृश्य ही बदल गया है। पश्चिमी राष्ट्र यूक्रेन को छोटे-मोटे हथियार सप्लाई करते रह सकते हैं लेकिन वे किसी भी हालत में अब वहां अपने प्रक्षेपास्त्र तैनात नहीं कर पाएंगे। लेकिन यूक्रेनी लोगों ने जिस बहादुरी से रूस का मुकाबला किया है, उसे देखते हुए यह भी तय है कि रूस के लिए यूक्रेन पर अपनी हुकूमत चलाना आसान नहीं होगा। यूक्रेन के आम लोग उन्हें इस बात के लिए क्षमा नहीं करेंगे कि उन्होंने यूक्रेन के तीन टुकड़े कर दिए और दोनेत्सक व लुहांस्क नाम के दो नए देश खड़े कर दिए।
पुतिन की छवि
बहरहाल, यह मामला लंबा खिंच गया और पश्चिमी प्रतिबंध सचमुच कड़े हो गए तो रूस की अर्थव्यवस्था और पुतिन की छवि, दोनों विकृत हुए बिना नहीं रहेगी। अमेरिका और नाटो की प्रतिष्ठा तो पैंदे में बैठ ही गई है। ऐसी स्थिति में चीन की चमक बढ़ेगी और वह प्रामाणिक विश्व-शक्ति बनकर उभरेगा। यह असाधारण तथ्य है कि अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत की तरह चीन ने भी स्वयं को निष्पक्ष रखा है। उसने किसी के भी पक्ष में वोट नहीं दिया। चीन और रूस आजकल हमजोली बन गए हैं। लेकिन भारत दुनिया का एकमात्र ऐसा महत्वपूर्ण देश है, जिसके रूस और अमेरिका, दोनों से घनिष्ठ संबंध हैं। जिस मुस्तैदी से वह अपने छात्रों को वापस ला रहा है, वही मुस्तैदी अगर वह रूस और अमेरिका के बीच मध्यस्थता करने में दिखाता तो उसकी प्रतिष्ठा में चार चांद लग जाते।