इंसान वही जो दूसरे की पीड़ा समझे
इंसान और पशु में यही फर्क है कि इंसान को सामाजिक प्राणी कहा जाता है और पशुओं को जंगली और पालतू दो वर्गों में बांट दिया गया है। संवेदनशीलता के लिहाज से सभी बराबर होते हैं, अभिव्यक्ति का अपना तरीका अलग-अलग हो सकता है।
मनुष्य का शरीर धारण कर लेना अलग बात है। यह किसी पुराने पुण्य या प्रारब्ध से प्राप्त हो सकता है लेकिन सच्चे अर्थों में इंसान वही कहा जा सकता है जिसमें इंसानियत हो और इंसान के तमाम गुणधर्मों का भरपूर समावेश हो।
आजकल इंसान भी कई श्रेणियों में बंटता जा रहा है। एक किस्म उन इंसानों की है जो अपने ही अपने लिए जीते हैं और खुद को जिंदा रखने की जी भर कोशिशें करते हुए वे किसी को भी मार सकने की स्थिति में होते हैं।
कुछ उदासीन होते हैं जो न खुद के लिए कुछ करना चाहते हैं, न औरों के लिए। ऎसे लोग समाज में सिर्फ परिव्राजक की तरह पैदा होते हैं और परिभ्रमण के बाद लौट जाते हैं। आदमियों की एक श्रेणी और है जिसमें शामिल लोग दूसरों के लिए जीते हैं और कर्म में शुचिता के साथ सार्वजनीन कल्याण की भावना को सर्वोपरि रखते हैं।
खुदगर्ज और स्वार्थी इंसानों के बारे में साफ-साफ कहा जा सकता है कि वे सिर्फ और सिर्फ अपने लिए जीते हैं । इनके लिए मां-बाप, भाई-बंधु, भगिनी और कुटुम्ब कोई मायने नहीं रखता है। इनका संबंध उन्हीं से होता है जिनसे कुछ पाने की उम्मीद हो। बिना किसी उम्मीद के ये एक कदम भी आगे नहीं बढ़ते।
आजकल अधिकांश लोग इतने मतलबी हैं कि इन्हें सिर्फ अर्थ और काम से ही मतलब रह गया है। इन लोगों का धर्म और मोक्ष से कोई सरोकार कभी नहीं होता। अपने आस-पास से लेकर दुनिया में जहां कहीं कोई सी घटना, क्रिया और प्रतिक्रिया हो, इसका असर हम पर नहीं पड़े। हमारे आस-पास के लोगों की पीड़ाओं और अभावों को हम समझ नहीं पाएं अथवा हमारे सामने होने वाली किसी भी प्रकार की सकारात्मक या नकारात्मक घटना या क्रिया का हम पर कोई प्रभाव नहीं पड़े, तब यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि हमारा मनुष्य होना ही व्यर्थ है।
मनुष्य का शरीर पाए खूब सारे लोग होते हैं जिनकी हरकतें और हलचलें पशुओं से भी गई बीती होती हैं, फिर भी वे मनुष्य कहे जाते हैं। लेकिन समझदार लोग उन्हें मनुष्य के रूप में कभी स्वीकारते नहीं। भय या प्रलोभन से ऊपरी सम्मान और आदर दर्शाना अलग बात है। हमारे आस-पास कैसी भी घटना हो, उसमें हमारी संवेदनशीलता का भाव जगना जरूरी है और यही मानवीय संवेदनाएं उन मूल्यों में समाहित हैं जिनकी बदौलत ईश्वर ने मनुष्य बना कर जमीन पर भेजा हुआ होता है।
आज हमारे आस-पास खूब सारे लोग हैं जिनके बारे में कहा जा सकता है कि इन्हें कोई फरक नहीं पड़ता, चाहे कुछ भी इनके आस-पास होता रहे। कारण यह है कि वे अपने ही स्वार्थों में इतने मशगूल रहते हैं कि उन्हें अपने सिवा पूरी दुनिया मेें और कोई कहीं दिखता ही नहीं।
असली इंसान वही है जो जरूरतमन्दों और अभावग्रस्तों की पीड़ा को समझे और अपनी ओर से पहल करते हुए उनकी समस्याओं और अभावों को दूर करने का बीड़ा उठाये। औरों के लिए जीना ही वास्तव में जीना है जबकि अपने लिए जीना पग-पग पर मरना है। यह मौत हमारे शरीर की भले न हो, मानवीय मूल्यों, परंपराओं और आदर्शों की तो हर क्षण मौत हो ही रही है।