कविता – 45
” मेरी बेटी श्वेता की डोली 27 नवम्बर 2020 की सुबह हमें भीगी पलकों के साथ छोड़कर ससुराल के लिए विदा हो गई।
मेरा साहस नहीं हुआ कि विदा होती अपनी लाडो के सिर पर हाथ रख सकूं। हो सकता है कि मेरी प्यारी बेटी को भी यह बुरा लगा हो । पर जिन क्षणों की कल्पना से भी मैं आंसू रोक नहीं पाता था उन्हें अपने सामने खड़े देख मैं टूट गया था। शायद मुझे अब बड़े होने का अहसास हो गया है। जिनके चलते सोचने लगा हूं कि बड़े रोते नहीं हैं, बल्कि चुप रहते हैं और छोटों को हौसला देते हैं, पर आंसू हैं कि जो अकेले में बहते हैं और मुझसे कुछ पूछते हैं।
जब मैं सोचता हूं कि बेटी को मैं और पढ़ा नहीं पाया जबकि उसकी इच्छा अभी और पढ़ने की थी तो मेरी आँखें भर आती हैं। मैं ऐसा क्यों नहीं कर पाया …..।
जिम्मेदारी के बोझ में दबे रहकर मैं कर्त्तव्य बोध के पालने में झूलता रहा और बेटी की विदा घड़ी घड़ी की टकटक की आवाज की तरह मेरी ओर बढ़ती चली आयी। … और जब वह आयी तो मैं उसका सामना नहीं कर पाया। …… मेरा अंतर्मन मुझसे कुछ कहता रहा …. चारों ओर बड़े बड़े प्रश्नचिन्ह और उनके घरों ने मुझे जकड़ लिया। ….. शायद मैं कुछ बेहतर नहीं कर पाया हूँ … या मेरी बेटी मुझसे अपनी बात कह नहीं पाई है। पता नहीं मैं उसकी भावनाओं के अनुसार जीवन साथी दे पाया हूँ या नहीं …. कुछ पता नहीं …. पता नहीं मै लाचार हूँ या भावुक हूँ ?
समय ने सम्बन्धों में मर्यादाओं की सीमाएं खींच दी हैं , कुछ फासले से बातें होती हैं …. फिर भी मैं सौभाग्यशाली हूँ कि मेरा परिवार अनमोल और अप्रतिम है। ….. इसी परिवार से अब बेटी भी चली गयी …. एक नई दूरी का आभास देकर ….क्या समय यहाँ भी सीमारेखा खींचेगा ….. कुछ नयी दूरियां बनाएगा …. ? … यह कल्पना ही भावुक कर देती है।
बस यही कहूंगा :–
बेटी पिता के दिल के मंदिर में जलने वाली लौ है ।
बेटी पिता के भावों की साक्षात फ़टने वाली पौ है ।।
बेटी के एहसास को पिता शब्द नहीं दे सकता।
बेटी की कमी को कभी बयां नहीं कर सकता।।
बेटी पिता का सम्मान है, दिल का अरमान है।
बेटी पिता का अभिमान है और स्वाभिमान है।।
बेटी एक घर का उजाला तो एक की रोशनी है।
बेटी हर सुसंस्कार व संकल्प की साक्षात मूर्ति है।।
बेटी सवाल नहीं है वह एक मुकम्मल जवाब है ।
बेटी पिता की जिंदगी का एक सुनहरा ख्वाब है।।
विदा बेटी की जिंदगी की मंजिल नहीं पड़ाव है।
उसके दूर तक जाने का मानो एक बड़ा पैगाम है।।
बेटी पिता का भरोसा है और आशा की एक डोर है।
बेटी आंसुओं को समझने वाली एक अतुल्य भोर है।।
बेटी कर्तव्य मार्ग पर बढ़ने वाली एक साधिका है।
ससुराल की शोभा है और पिता की वाटिका है।।
बेटी पिता की हर संवेदना को समझती और जानती है।
समय-समय पर पिता से भी ‘बहुत कुछ’ कह जाती है।।
पिता भी भूल जाता है बेटी की ऐसी हर शरारत को।
‘राकेश’ समर्पित है यह कविता प्यारी बेटी श्वेता को।।
(26 नवंबर 2020 को मेरी प्यारी बिटिया श्वेता के पाणिग्रहण संस्कार के पश्चात उसकी विदाई 27 नवंबर की भोर में हुई, तब यह कविता बनी थी। )
यह कविता मेरी अपनी पुस्तक ‘मेरी इक्यावन कविताएं’- से ली गई है जो कि अभी हाल ही में साहित्यागार जयपुर से प्रकाशित हुई है। इसका मूल्य ₹250 है)
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
मुख्य संपादक, उगता भारत