कुछ चीजें भगवान ने हमें नहीं दी हैं, उनका आविष्कार हम महान मनुष्यों ने कर लिया है। हमारी कई सारी आदतें ऎसी हैं जिनका हमारे पूरे जीवन या रोजमर्रा के काम-काज से किसी प्रकार का प्रत्यक्ष संबंध नहीं होता, मगर हमने उन्हें इतना अपना रखा है कि कुछ कहा नहीं जा सकता।
इन्हीं ढेरों आदतों में से एक है – हमेशा कुढ़ते रहना। चाहे कैसी परिस्थितियां हों, हम कुढ़ते रहने और दुःखी हो जाने की अपनी इस आदत से छुटकारा प्राप्त कर पाने की स्थिति में नहीं हैं। अब तो ये आदतें कलियुगी मानव के गुण-धर्म में शामिल हो चुकी हैं। और यही कारण है कि हम सब कुछ होने के बावजूद शायद ही कभी प्रसन्न रह पाते होंगे।
भीषण गर्मी, लू के थपेड़ों, रेतीली और धूल भरी आंधियों और गर्म हवाओं से परेशानी के दिनों में पसीने से तरबतर होते हुए हम गर्मी को कोसने लगते हैं और दिन में सौ से अधिक बार भीषण गर्मी के होने तथा इससे जुड़ी परेशानियों का जिक्र करते रहते हैं।
हाय गर्मी, उफ ये गर्मी, ये कैसी गर्मी, बेहाल कर डाला, मार डाला इस गर्मी ने तो, जीना हराम कर दिया … आदि आदि जुमले जाने कितने लोगों के सामने कितनी बार दोहराते रहते हैं। अकेले में खुद झल्लाया करते हैं उसका तो कोई हिसाब ही नहीं है।
ऎसे में बरसात का मौसम आए जाए और बारिश न हो तो एक और जुमला जुड़ जाता है – ये बारिश भी जाने कब आएगी, गर्मी का असर तो कम हो। उन दिनों में हम निरन्तर बारिश के आवाहन में रोना रोते रहते हैं। फिर गर्मी के चरमोत्कर्ष पर बारिश आ जाए तो थोड़े घण्टों के लिए सुकून की बात जरूर करते हैं लेकिन रोना-धोना फिर वहीं का वहीं। कहते रहेंगे – ये बारिश भी इतनी कम हुई कि उमस बढ़ गई, इससे तो और हाल बुरे हो गए।
इतना सब कुछ दुःख अभिव्यक्त करने के बाद इन्द्रदेवता पसीज जाएं और मूसलाधार बारिश का दौर चला दें, ऊपर से खूब मेहर बरसा दें तो फिर अपना रुदन शुरू। कुछ कहेंगे कि ये भी क्या बारिश है, लगातार बनी रहती है, न कहीं आने-जाने के रहे, न कुछ काम-काज करने के, जब देखो बारिश बनी रहती है। बरसात का दौर थोड़ा और तेज हो जाए, सब तरफ जमीन तरबतर हो जाए, मच्छरों, बारिश के कीटों और फड़कों का मौसम आ जाए, तो और अधिक दुःख। नदी-नाले भर जाएं और सब तरफ पानी का मंजर दिखने लगे तब हायतौबा मचानी शुरू। कहते रहेंगे – अब तो रुकना ही चाहिए यह सब। आखिर कितना पानी बरसेगा और।
बारिश का मौसम पूरा होते-होते सर्दियों का आगमन होने के बावजूद भी हमारा यह रोना-धोना थम नहीं पाता। थोड़े दिन सर्दी न हो तो कहने लगेंगे कि गुलाबी सर्दी तो होनी ही चाहिए। आखिर इतना पानी बरसने के बाद भी सर्दी अब तक क्यों नहीं पड़ रही। सर्दियों में पहनने, ओढ़ने और खाने-पीने का मजा और ही होता है। यह वह समय होता है जब हम सर्दियों के आवाहन के लिए मरे जाते हैं। थोड़ी सर्दी आयी नहीं कि हम फिर फुस्स हो जाते हैं और कुढ़ना शुरू कर देते हैं सर्दी को लेकर। कभी कहेंगे इतनी ठण्ड है कि कोई काम होता ही नहीं, हाथ-पाँव ठण्डे हो गए हैं, कभी कहते हैं इस बार तो शीत का प्रकोप ज्यादा ही रहा है, सब हैरान हो गई हैं इस सर्दी से अब तो, जाने कब जाएगी सर्दी।
साल भर में चाहे जो मौसम हो, हमारी यही आदत बनी रहती है। हम गर्मी, सर्दी और बरसात के मौसम की बेसब्री से प्रतीक्षा करते हैं और भावी मौसम से आशान्वित भी रहा करते हैं लेकिन वर्तमान मौसम के प्रति हमेशा कुढ़ते रहते हैं और बेवजह दुःखी रहने लगते हैं। यह स्थिति मौसम को लेकर ही नहीं, इंसान के प्रत्येक कर्म और पूरे जीवन के साथ है। उसे वर्तमान कभी अच्छा नहीं लगता इसलिए भविष्य की ओर टकटकी लगाकर देखता रहता है लेकिन भावी जब वर्तमान के रूप में सज-सँवर कर आता है तब हम उससे भी दुःखी रहने लगते हैं । हमारी पूरी जिंदगी में बोले गए अधिकांश शब्दों में हमारे कुढ़ने और आत्म दुःखी होने के भाव ही हावी रहते हैं।
अपनी पूरी जिंदगी को किसी द्वीप की तरह अहंकार की मदमस्ती में बिताने वाले, चाहे-अनचाहे सारे सुख और लाभ पाने वाले, एयरकण्डीशण्ड में रहने, एसी कारों में आवागमन करने वाले, कॉलोनियों में अपने-अपने दड़बों में घुसे रहने वाले हम सभी लोगों की यह हालत हो गई है कि हम हर मौसम और हर हालात में कुढ़ते रहते हैं और दुःख अभिव्यक्ति का कोई मौका बाकी नहीं छोड़ते।
जरा उन लोगों के बारे में चिंतन करें जो रेगिस्तान में, वनों-जंगलों, दुर्गम पहाड़ों और खुले मैदानों में रहते हैं, जिनके पास रहने को मकान नहीं हैं, खाने-पीने का कोई स्थायी बन्दोबस्त नहीं है, कल क्या होगा, कहाँ रहेंगे, उसका ठिकाना नहीं है। उन लोगों की मनः स्थिति का अध्ययन करें तो हम पाते हैं कि वे हर मौसम में खुश हैं। उन्हें पता होता है कि हर मौसम उनके लिए कुछ न कुछ मुसीबत लेकर आएगा ही। बावजूद इसके उनकी दृष्टि सार्वजनीन कल्याण की होती है और मन में भावनाएं बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय की।
एक हम सारे के सारे अभिजात्य कहे जाने वाले, आत्मप्रतिष्ठित, स्वयंभू, स्वनामधन्य नालायक, नासमझ, असन्तुष्ट, असंतृप्त, भूखे और प्यासे हैं जो आलीशान बंगलों में सारे वैभव और भोग-विलासिता का अप्राकृतिक शोषण करते रहने के बावजूद खुश नहीं हैं।
आखिर कब तक हम कुढ़ते और दुःखी रहते हुए यह रोना-धोना करते रहेंगे। कुछ समझ में नहीं आता कि ऎसे लोग अपने मनुष्य होने के अवसर को भी क्यों सदैव शोक संतप्त रखना चाहते हैं। ऎसे सारे लोग क्या नित श्रद्धांजलि योग्य नहीं हैं?
जो हर हाल में खुश रहने की कला नहीं जानता, उसके लिए आने वाले हजार वर्षों में भी कोई क्षण, दिन, सप्ताह, महीना या वर्ष अनुकूल नहीं आने वाला। तभी कहा गया है – असंतुष्टा द्विजा नष्टा, संतुष्टा च महीपति। अर्थात जो असंतुष्ट हैं वे नष्ट होने वाले हैं जबकि जो संतुष्ट हैं वे तो इस धरती के इन्द्र ही हैं।