(9 अगस्त:- विश्व आदिवासी दिवस के उपलक्ष्य में)
निर्भय कुमार कर्ण
जल, जंगल और जमीन से जानने-पहचानने वाले आदिवासी दुनियाभर में हैं लेकिन अब उनका अस्तित्व खतरे में है। न केवल संस्कृति, रहन-सहन यहां तक कि भाषा में भी बदलाव आने लगा है जिससे उनकी पहचान आगामी वर्षों में मिटने की संभावनाएं दिख रही है। ऐसे में सवाल उठता है कि इनके वजूद के खतरे के पीछे किसका हाथ है? आखिर वे क्या कारक हैं जो इनको अंदर-अंदर ही खोखला कर रही है?
यह विदित है कि सदियों से आदिवासियों का जल, जमीन और जंगल से काफी करीबी रिश्ता रहा है। इनका रहन-सहन और सभ्यता जंगल पर ही टिका होता है। लेकिन उपरोक्त तीनों चीजों से इनका प्रभाव धीरे-धीरे कम होता जा रहा है। इनके जमीन पर काॅरपोरेट जगत का दखल सरकारी तंत्र की मदद से काफी तेजी से बढ़ने लगा है। बहुराष्ट्रीय कंपनियां विकास के नाम पर इनके जमीनों को हथियाने में कोई-कसर नहीं छोड़ रही जिससे आदिवासियों की जमीन अब उनके हाथ से खिसकने लगी है। दूसरी ओर विश्वभर में जंगल क्षेत्रों में कमी होती जा रही है। मौजूद वन क्षेत्रों से आदिवासियों को हटाने की प्रक्रिया गतिशील है। जंगल जमीन में तब्दील होता जा रहा है। प्राकृतिक संसाधनों का तेजी से हो रहे दोहन ने आदिवासियों को अपने मूल स्थानों से विस्थापित होने पर लगातार मजबूर कर रहा है। जिसका असर काफी खतरनाक और प्रभावशील है। जंगलों के कम होने से ग्लोबल वार्मिंग जैसी कई जटिल परेशानियां शुरू हो चुकी है। यह कहने में कोई अतिषयोक्ति नहीं होगा कि इससे न केवल आदिवासी बल्कि पूरा मानव जगत का अस्तित्व खतरे में है।
आदिवासियों की समस्याओं को हल व उनके विकास के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ ने 1993 से प्रत्येक वर्ष 13 अगस्त को आदिवासी दिवस मनाने का फैसला किया था। उसके बाद प्रत्येक वर्ष आदिवासियों को एकजुट एवं उनका ध्यान रखने के लिए यह दिवस मनाया जाने लगा। जहां तक इनके आवाज उठाने की बात है तो आदिवासियों में से उपजे मुटठीभर बुद्धिजीवी इनके हितों और वजूद को कायम रखने के लिए आवाज उठाते रहते हैं लेकिन वह आवाज गुमनामी के अंधेरे में ही सिमटकर कहीं रह जाती है। ऐसा नहीं है कि इनके हितों के लिए कोई योजनाएं या प्रावधान नहीं है। विश्वभर में इनके संरक्षण और वजूद को कायम रखने के लिए कई प्रकार के नियम-कानून एवं योजनाएं हैं लेकिन वे कितना क्रियांवित हो पाती है, यह आदिवासियों की दशा एवं दिशा देखकर ही पता चल जाता है। संयुक्त राष्ट्र के प्रयासों के बावजूद इनकी स्थिति में कोई अपेक्षित सुधार नहीं हो पाया है। अनेकों रिपोर्ट इस बात की ओर इंगित करती है कि आदिवासियों को अब तक साफ पेयजल भी उपलब्ध नहीं है और न ही स्वास्थ्य सेवाएं। अलग-अलग देशों की अलग-अलग परिस्थितियां एवं चुनौतियां होती है और उसी मद्देनजर कानून एवं परियोजनाएं भी बनती है लेकिन वह सफलीभूत नहीं हो पाता। भारत में ही इनकी महत्ता को देखते हुए संविधान में भी इन्हें जगह मिली। कमोबेश यही हालात दुनियाभर में है। अनुच्छेद 244 के तहत भारत के नौ राज्यों आंध्र प्रदेश, उड़ीसा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र तथा हिमाचल प्रदेश में आदिवासियों के सुशासन एवं आर्थिक विकास के लिए प्रावधान किया गया है। मिजोरम, नागालैंड व मेघालय जैसे छोटे राज्यों में 80 से 93 प्रतिशत तक आबादी आदिवासियों की है। बड़े राज्यों में मध्यप्रदेश, उड़ीसा, महाराष्ट्र, बिहार, गुजरात, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में 8 से 23 प्रतिशत तक आबादी आदिवासियों की है। ये देश की कुल आबादी का 8.14 प्रतिशत है और देश के क्षेत्रफल के करीब 15 प्रतिशत भाग पर निवास करते हैं जबकि देश के कुल क्षेत्रफल का करीब 17 प्रतिशत क्षेत्र जनजातियों के आर्थिक विकास के लिए आरक्षित है। ये क्षेत्र बहुमूल्य खनिज व प्राकृतिक सम्पदा से भरपूर है। चौंका देने वाली बात यह है कि आदिवासी आबादी का 52 प्रतिशत गरीबी की रेखा के नीचे है और 54 प्रतिशत आदिवासियों की आर्थिक संपदा जैसे संचार और परिवहन तक कोई पहुंच ही नहीं है। ये स्थितियां इस बात की ओर इशारा करती है कि संवैधानिक अधिकार होने के बावजूद नियम-कानूनों को ताककर इनकी जमीनों को हथियाने का कार्य जारी है।
आरक्षण के बदौलत इनकी स्थितियों में जरूर कुछ सुधार आया है, खासकर वे लोग जो शिक्षा से जुड़ पाए। आदिवासी समाज में नाममात्र शिक्षित लोग अपनी शिक्षा के बदौलत कुछ उत्थान कर पाए हैं और नौकरी से लेकर संसद तक पहुंचने में सफल हो रहे हैं। यह बाबा साहेब डाॅ. भीमराव अंबेडकर की ही दुरदर्शिता थी कि जिससे अनुसूचति जनजाति यानि कि आदिवासियों को संविधान के जरिए आरक्षण मिला। अभी भी अधिकतर आदिवासियों के बच्चे शिक्षा से जुड़ने में असफल हैं और हो भी रहे हैं। इसलिए हर बच्चे को शिक्षा से जोड़ना न केवल आवश्यक है बल्कि अनिवार्य भी। देखा जाए तो केंद्र सरकार प्रत्येक साल आदिवासियों के उत्थान के लिए बजट में हजारों करोड़ों रूपए का प्रावधान करती है, इसके बावजूद आज भी ये जीवन की मूलभुत सुविधाओं जैस साफ पानी, स्वास्थ्य सेवांए आदि से महरूम हैं। इसका फायदा नक्सली उठाते हैं और आदिवासियों का झुकाव उनकी ओर बढ़ता चला जाता है। आदिवासी मजबूर होकर नक्सली और आतंकियों की मदद करने लगे हैं जिसके बदले इन्हें सुरक्षा और मजबूती मिलती है। नक्सली द्वारा नेताओं, पुलिस, सैनिक आदि पर लगातार हमला होता रहा है। जिसमें भारत के आदिवासियों का नक्सली, माओवाद एवं आतंकी बनने का समय-समय पर संकेत मिलते रहे हैं। जिससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि विपत्ति के मारे ये आदिवासी गलत रास्ते अपनाने लगे हैं। इतना ही नहीं आदिवासी लंबे समय से नक्सलवाद एवं अलगाववाद जैसी समस्याओं से दो-चार हो रहा है। ऐसे में सरकार के लिए ये चुनौतियां पहले से कहीं ज्यादा बढ़ चुकी है कि आदिवासियों को किस प्रकार विकास के मुख्यधारा से जोड़ा जाए जिससे देश पर बढ़ रहे खतरों को कम किया जा सके और आदिवासियों के अपने अधिकारों और हकों को सुनिश्चित किया जा सके। ऐसे में देखना यह होगा कि मोदी सरकार कितनी कुशलता से इस समस्या को दूर कर भारत के विकास के मार्ग को प्रशस्त करती है।