नेहरू द्वारा शेख अब्दुल्ला को भारतीय सेना की कमान सौंपने की प्रथम ऐतिहासिक भूल:
नेहरू ने शेख अब्दुल्ला को उस भारतीय सेना की कमान सौंपी जो महाराजा हरिसिंह की मांग पर जम्मू-कश्मीर भेजी गयी थी और जिसका लक्ष्य पाकिस्तानी आक्रमणकारियों पर विजय प्राप्त करना था। शेख अब्दुल्ला 1931 से ही मुस्लिम कांफ्रेंस बनाकर जम्मू-कश्मीर के हिंदू राजा के विरूद्घ आंदोलन चला रहे थे। शेख का लक्ष्य था कश्मीर घाटी को हिंदू सिक्खों से खाली कराना तथा महाराजा हरिसिंह को रियासत के शासक पद से हटाना। 1946 में शेख ने महाराजा के विरूद्घ खुला विद्रोह किया और नारा दिया ‘डोगरोंवादी-घाटी’ छोड़ो। ऐसी स्थिति में भारतीय सेना की कमान या तो सरदार वल्लभ भाई पटेल (तत्कालीन गृहमंत्री) के पास रहती या फिर स्वयं महाराजा हरिसिंह उसके कमाण्डर बनाये गये होते। नेहरू द्वारा शेख को सेना की कमान सौंपने का अर्थ आत्महत्या के अतिरिक्त और कुछ भी नही समझा जा सकता। यह नेहरू की भयंकर ऐतिहासिक भूल थी जो ‘विनाशकाले विपरीत बुद्घि’ का साक्षात प्रतिबिम्ब है। शेख अब्दुल्ला ने सेना का कमाण्डर बनकर वे सभी कार्य किये जो हिंदू विरोधी व विशेषकर महाराजा हरिसिंह विरोधी थे। दु:खद आश्चर्य यह है कि नेहरू ने इन सब कार्यों में शेख की बार-बार सहायता की।
शेख ने अधिकतर सेना कश्मीर घाटी की ओर रवाना कर दी और जहां-जहां हिंदू घिरे हुए थे, वहां सेना को नही जाने दिया। इसलिए मुजजफ्फराबाद तथा मीरपुर जैसे नगरों में हजारों की संख्या में हिंदू सिक्ख मारे गये। शेख के ही कारण नियंत्रण रेखा ऐसी बनायी गयी जो पाकिस्तान के लिए कई क्षेत्र देकर भारत को घाटे में रखती है। 16 नवंबर 1946 को हमारी सेना ने लद्दाख व कश्मीर घाटी को अपने नियंत्रण में ले लिया था। उसी भारतीय सेना के अधिकारियों ने कहा कि झेलम नदी तक हम एक सप्ताह में अधिकार कर सकते हैं, जो एक अधिक सुरक्षित सीमा रेखा बन सकती है। ऐसे समय इस कार्य को जिस सेना की टुकड़ी को करना था वह जम्मू तक पहुंचने के बाद शेख द्वारा गिगित भेज दी गयी।
नेहरू की दूसरी ऐतिहासिक भूल जम्मू-कश्मीर प्रश्न को संयुक्त राष्ट्र संघ में ले जाना :
भारतीय सेना चाहती थी कि अभी युद्घ विराम कम से कम एक सप्ताह न किया जाए, परंतु नेहरू जी नही माने और 1 जनवरी 1948 को युद्घ विराम की घोषणा कर दी। आज पाक अधिकृत कश्मीर भी भारत में होता, यदि युद्घविराम उस समय न होता। संयुक्त राष्ट्र संघ में जम्मू-कश्मीर प्रश्न को ले जाना नेहरू जी की राजनीतिक अदूरदर्शिता का परिचायक है, जिसे उनके कांग्रेसी प्रशंसक भी अनुचित मानते हैं। जनमत संग्रह की मांग के पीछे का षडयंत्र इसी निर्णय से पनप सका।
संयुक्त राष्ट्र संघ ने दो आयोग बनाये :
1. डिक्सन आयोग :-14 मार्च 1950 को डिक्सन आयोग बनाया गया। डिक्सन आस्टे्रलिया के न्यायाधीश थे। डिक्सन ने सुझाव दिया कि जनमत संग्रह कराकर पता चलाया जाए कि कोई क्षेत्र पाकिस्तान में मिलना चाहता है, भारत में अथवा दोनों में नही। परंतु डिक्सन प्लान को भारत व पाक दोनों ने अस्वीकृत कर दिया।
2. ग्राहम ग्रीन आयोग : 1951 में बनाया गया। उसके प्रस्ताव भी निरर्थक रहे।
तीसरी ऐतिहासिक भूल-संयुक्त राष्ट्र संघ के भारत समर्थक प्रस्तावों का भी नेहरू सरकार ने लाभ नही उठाया।
संयुक्त राष्ट्र के भारत-पाक आयोग (हृष्टढ्ढक्क) विधि परामर्शदाता ने बताया कि जम्मू-कश्मीर राज्य का भारत में विलय कानून सम्मत हुआ। 13 अगस्त 1948 व 5 जनवरी 1946 को संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा पारित प्रस्तावों में कहा गया कि पाकिस्तान आक्रता है, उसने जम्मू-कश्मीर पर जो सैन्य आक्रमण किया वह अवैधानिक है।
संयुक्त राष्ट्र ने आदेश दिया कि पाकिस्तान अपनी सेनाओं व नागरिकों को तुरंत अधिकृत कश्मीर से वापिस हटाए, पूरा क्षेत्र भारतीय सेनाओं के अधिकार में दिया जाए और महाराजा हरिसिंह के अधिकार में संपूर्ण प्रशासनिक व्यवस्था चलायी जाए।
परंतु भारत सरकार ने इतने महत्वपूर्ण प्रस्तावों का भी कोई लाभ नही उठाया जो बाद में चलकर ताशकंद, शिमला व लाहौर समझौते के रूप में और अधिक विनाशकारी सिद्घ हुए।
क्रमश: