अपने ऊपर थोपे गए युद्ध से जूझता रूस
आदित्य चोपड़ा
रूस और यूक्रेन के बीच चल रहे युद्ध के सन्दर्भ में प्रत्येक भारतीय को सबसे पहले यह समझने की जरूरत है कि अमेरिका समेत समस्त पश्चिम एशियाई देशों ने यूक्रेन को ढाल बना कर यह युद्ध रूस पर थोपा है क्योंकि 2014 के बाद लगातार आठ वर्षों से रूस बातचीत के जरिये हल निकालना चाहता था कि यूूक्रेन नाटो सन्धि देशों का सदस्य बन कर पश्चिमी देशों की संयुक्त सामरिक ताकत को उसकी सीमाओं पर न लाए। 1991 में सोवियत संघ के विघटन के साथ जब रूस अलग हुआ था तो उसने पूर्व सोवियत देशों को नाटो के घेरे में न लाने की सन्धि भी की थी जिसकी पश्चिम देश लगातार उपेक्षा करते आ रहे हैं। मगर एक समय में सोवियत संघ की सहायता से चहुंमुखी विकास करने वाले देश रोमानिया, पोलैंड, चेकोस्लोवाकिया , बुल्गारिया, हंगरी आदि के अलावा कई पूर्व सोवियत देशों ने इसके बाद नाटो की सदस्यता ग्रहण कर ली। 1991 में नाटों के कुल सदस्य केवल 16 थे जिनकी संख्या बढ़कर अब 30 हो चुकी है। 1949 में केवल 12 देशों से शुरू हुए नाटो संगठन में यह इजाफा बताता है कि किस प्रकार अमेरिका के नेतृत्व में नाटो पूरे विश्व में अपनी सामरिक ताकत का हौवा खड़ा करके अपनी शर्तों पर अन्तर्राष्ट्रीय जगत को चलाना चाहता है।
1991 से पहले 1955 में नाटो का जवाब देने के लिए 1955 में पोलैंड के वारसा शहर में ही सोवियत संघ ने पूर्वी यूरोप के जिन देशों (रोमानिया, हंगरी, चेकोस्लोवाकिया, अल्बानिया, पूर्वी जर्मनी, पोलैंड, बुल्गारिया व सोवियत संघ) के साथ मिल कर सामरिक सन्धि की थी उनमें से अधिसंख्य आज स्वयं नाटो के सदस्य बन चुके हैं जबकि 1988 में पूर्वी जर्मनी का प. जर्मनी में विलय होकर एक जर्मनी बन चुका है और वह भी नाटो का महत्वपूर्ण सदस्य है। मूल प्रश्न यह है कि यूूक्रेन क्यों नाटो का सदस्य बनने की जिद पर अड़ा हुआ है जबकि रूस की तरफ से उसे कभी कोई सामरिक खतरा 2014 तक नहीं रहा। दोनों देशों में कड़वाहट तब पैदा होनी शुरू हुई जब यूूक्रेन की राजधानी कीव में रूस समर्थक समझे जाने वाले प्रधानमन्त्री विक्टोर का तख्ता अमेरिका व पश्चिमी देशों की शह पर पलटा गया और वर्तमान नेता जेलेंस्की को बैठाया गया।
इतिहास गवाह है कि अमेरिका दुनिया के विभिन्न देशों में अपने विरोधियों का तख्ता पलट करने में माहिर माना जाता है चाहे वह सत्तर के दशक के अन्त में चिले के चुने हुए राष्ट्रपति अलेन्दे का प्रशासन हो या वेनेजुएला समेत दक्षिण अमेरिका के अन्य चुनीन्दा देश हों या पश्चिम एशिया के कई देशों की सत्ता हो। हमें याद रखना चाहिए कि पाकिस्तान ने 1965 में भारत के विरुद्ध प्रथम पूर्ण घोषित युद्ध केवल अमेरिका से प्राप्त सामरिक सहायता के बूते पर ही लड़ा था और जब इस युद्ध में कराची व लाहौर तक ढहने के मुहाने पर आ गये थे तो अमेरिका ने पाकिस्तान का खुला समर्थन करके भारत को दबाव में लेने का प्रयास किया था जिसका जवाब तब सोवियत संघ ने देते हुए कहा था कि अगर अमेरिका ने जरा भी हरकत की तो उसे करारा जवाब दिया जायेगा। ठीक ऐसा ही मंजर 1971 के बांग्लादेश के युद्ध के समय में भी बना था जब अमेरिका ने पाकिस्तान के हक में भारत को डराने के लिए बंगाल की खाड़ी में अपना सातवां एटमी जंगी जहाजी बेड़ा उतार दिया था। उस समय भारत की फौजें पाकिस्तान को बीच से चीर कर बांग्लादेश का उदय करा रही थीं और पश्चिमी पाकिस्तान की सीमा पर कश्मीर के मोर्चे पर भी शानदार बढ़त बनाये हुए थीं। मगर अमेरिका ने तब अपना एटमी बेड़ा उतार कर परमाणु युद्ध का खतरा पैदा कर दिया था जिसका जवाब भी सोवियत संघ ने देते हुए कहा था कि भारत की तरफ देखने की जुर्रत अमेरिका किसी कीमत पर न करे। यह सब इसी वजह से संभव हुआ था कि जून 1971 में ही तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने सोवियत संघ के साथ बीस वर्ष के लिए सामरिक सन्धि कर ली थी जबकि दिसम्बर महीने में बांग्लादेश बना था। इसके मूल में उस समय विश्व की दो महाशक्तियों अमेरिका व सोवियत संघ के बीच बंटा होना ही था जिसकी वजह से कोई भी शक्ति आपा नहीं खो सकती थी परन्तु 1991 में सोवियत संघ के बिखरने के बाद अमेरिका पूरी तरह बेलगाम हो गया और खुद को दुनिया का दरोगा समझने लगा जिसकी वजह से हमने इराक का विध्वंस देखा और ईरान के खिलाफ प्रतिबन्ध देखे।
दुनिया के एकल ध्रुवीय हो जाने के बाद रूस को जिस तरह पश्चिमी ताकतों ने चारों तरफ से घेरना शुरू किया और उसके सब्र का इम्तिहान लिया उसके परिणाम में ही यूूक्रेन में आज ये हालात बने हैं वरना सोवियत संघ शुरू से ही तीसरी दुनिया या विकासशील देशों की तरक्की में बहुत बड़े उत्प्रेरक की भूमिका निभाता रहा है। ध्यान देने वाली बात यह है कि जिस दिन रूस ने यूूक्रेन में सैनिक कार्रवाई शुरू की उसी दिन पाकिस्तान के प्रधानमन्त्री इमरान खान मास्को राजकीय अतिथि बन कर पहुंच गये मगर राष्ट्रपति पुतिन ने इन्हें बैरंग वापस लौटा दिया और संयुक्त वक्तव्य तक जारी नहीं किया। जहां तक यूूक्रेन में फंसे भारतीय विद्यार्थियों का सवाल है तो सबसे बड़ी और प्रथम जिम्मेदारी यूूक्रेन की सरकार की ही बनती है कि वह वहां फंसे भारतीय नागरिकों व विद्यार्थियों के सकुशल स्वदेश वापसी की व्यवस्था करता । ये विद्यार्थी यूूक्रेन की अर्थव्यवस्था में सहायक होने के साथ ही उसकी शिक्षा प्रणाली के पूरी दुनिया में प्रचारक भी हैं। युद्ध की आशंका होते ही यूूक्रेन को सभी प्रवासी भारतीयों के सुरक्षित व सकुशल वापस जाने के प्रबन्ध करने चाहिए थे। चिकित्सा विज्ञान की शिक्षा लेने भारतीय विद्यार्थी रूस के विभिन्न संस्थानों में भी जाते हैं । मगर उन्हें युद्ध की विभीषिका में धधकते शहरों में ही लावारिसों की तरह छोड़ दिया गया जिनकी मदद करने के लिए भारत के चार मन्त्रियों को यूूक्रेन से लगते देशों में जाना पड़ा। अतः यूूक्रेन के मामले में हमें दिल से नहीं दिमाग से काम लेना चाहिए।