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सत्यार्थ प्रकाश के १३वें समुल्लास में एक स्थान पर ऋषि दयानन्द ने लिखा है –
“यह भी विदित हुआ कि ईसा ने मनुष्यों के फसाने के लिये एक मत चलाया है कि जाल में मच्छी के समान मनुष्यों को स्वमत में फसाकर अपना प्रयोजन साधें । जब ईसा ही ऐसा था, तो आजकल के पादरी लोग अपने जाल में मनुष्यों को फसावें, तो क्या आश्चर्य है ?
क्योंकि जैसे बड़ी-बड़ी और बहुत मच्छियों को जाल में फसानेवाले की प्रतिष्ठा और जीविका अच्छी होती है, ऐसे ही जो बहुतों को अपने मत में फसा ले, उसकी अधिक प्रतिष्ठा और जीविका होती है ।
इसी से ये लोग जिन्होंने वेद और शास्त्रों को न पढ़ा न सुना, उन बिचारे भोले मनुष्यों को अपने जाल में फसाके, उनके मा-बाप कुटुम्ब आदि से पृथक् कर देते हैं ।
इससे सब विद्वान् आर्यों को उचित है कि स्वयं इनके भ्रमजाल से बचकर अन्य अपने भोले भाइयों के बचाने में तत्पर रहें ।”
(सत्यार्थप्रकाश, पृष्ठ ७६९, आर्यसमाज शताब्दी संस्करण, सन् १९७२, वि० सं० २०२९, सम्पादक : पण्डित युधिष्ठिर मीमांसक, रामलाल कपूर ट्रस्ट)
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