नेताजी सुभाष चंद्र बोस भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का एक ऐसा नाम है जिस पर हर भारतीय को नाज है। उनके बारे में वीरता के ऐसे कथोपकथन हम सबने सुने हैं, जिन पर हम सब देशभक्ति के भावों से भर जाते हैं। सामान्यत: ऐसे वीर पुरूषों के देशभक्ति के जज्बे को देखकर लोग कभी ये नही सोच सकते कि ऐसा व्यक्ति कभी रो भी सकता है। लेकिन आंसू नाम की एक ऐसी सौगात ऊपर वाले ने आदमी को दी है, कि जो समय आने पर अपने आप मोती के रूप में छलक ही जाती है।
सुभाष चंद्र बोस के जीवन में भी ऐसे कई क्षण आए जब उनकी आंखों में मानव की अमरकांति के मोती-आंसू देखे गये, और जिन्हें देखकर लोगों की हजारों की भीड़ दिल थामकर देखती रही कि आगे भारत का यह शेर क्या कहने वाला है? तो कई अपने आंसुओं को रोक नही पाए। ऐसा ही एक अवसर था जब नेताजी सुभाष चंद्र बोस अपने साथियों के साथ भारत की अस्थाई सरकार की शपथ ले रहे थे।
मेजर जनरल शाहनवाज नेताजी के खासमखास थे। वह अपनी पुस्तक ‘नेताजी और आजाद हिंद फौज’ में इस घटना का उल्लेख करके लिखते हैं-‘हिंदुस्तानी स्वतंत्रता लीग का जो ऐतिहासिक सम्मेलन 21 अक्टूबर 1943 को 10-30 बजे सिंगापुर की कैथे बिल्डिंग में बुलाया गया था, उसमें पूर्वी एशिया भर के प्रतिनिधि सम्मिलित थे। इसमें श्री रासबिहारी बोस ने स्वागत भाषण पढ़ा और कर्नल चटर्जी ने सेक्रेटरियेट की रिपोर्ट पढ़ी। तब नेताजी मंच पर आए और डेढ़ घंटे तक उनका जोशीला भाषण होता रहा। हजारों श्रोताओं का विशाल जन समुदाय मंत्र मुग्ध सा उनका भाषण सुनता रहा। उन्होंने हिन्दुस्तानी में अस्थायी आजाद हिंद सरकार की स्थापना का महत्व समझाया।
जब नेताजी ने हिन्दुस्तान के प्रति वफादारी की शपथ ली तो वह विशाल भवन गगन-भेदी हर्ष-ध्वनियों से गूंज उठा। वे इतने विह्वल हो रहे थे कि एक बार तो कई मिनट तक उनकी आवाज रूकी रही, लेकिन उनका भावावेश जिससे उनका गला रूंधा हुआ था, इतना नही दब सका कि वे अपनी आवाज निकाल सके। उनका यह भावावेश बताता था कि शपथ का प्रत्येक शब्द उनके हृदय में से कितनी गहराई से निकल रहा था और इस अवसर की पुनीतता का उनके ऊपर कितना प्रभाव था? कभी ऊंची और कभी नीची, लेकिन मजबूत आवाज में उन्होंने पढ़ा-
‘ईश्वर को साक्षी करके मैं यह पुनीत शपथ लेता हूं कि मैं सुभाषचंद्र बोस, हिंदुस्तान और अपने 38 करोड़ देशवासियों को स्वतंत्र करने के लिए स्वतंत्रता की इस पुनीत लड़ाई को अपने जीवन के अंतिम क्षण तक जारी रखूंगा।… वे यहां रूक गये। ऐसा लगा कि वे रो पड़ेंगे। हममें से प्रत्येक आदमी अपने मन में इन्हीं शब्दों को दोहरा रहा था। हम सब आगे की ओर झुकते जा रहे थे जिससे हम नेताजी की उस संगमरमर जैसी सफेद आकृति तक पहुंच सके।
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