विश्व नेतृत्व की सबसे बड़ी विडंबना
संसार का मुखिया कौन हो ? इसको लेकर विश्व शक्तियों की दौड़ पिछली लगभग एक शताब्दी से हम देख रहे हैं । तानाशाही और अपने दबदबे को बनाए रखकर मुखिया बनने की इन विश्व शक्तियों की चाहत संसार के भले के लिए नहीं है। इसके पीछे इन विश्व शक्तियों में से प्रत्येक देश की केवल एक सोच काम करती है कि संसार को मैं जैसे चलाऊँ वह वैसे ही चले।
हमारा मानना है कि ऐसी सोच के चलते कोई भी देश विश्व नायक नहीं हो सकता। क्योंकि इस प्रकार की सोच में वैश्विक चिंतन नहीं है। संसार के जितने भर भी शक्ति संपन्न देश हैं, उनके पास कोई ऐसा नेतृत्व नहीं जो विश्व मानस का धनी हो। आज की तथाकथित विश्व शक्तियों के पास ऐसा एक भी नेता नहीं है जो प्रत्येक देश की संप्रभुता की सुरक्षा की गारंटी देने की क्षमता रखता हो या सोच रखता हो। यही कारण है कि बड़ी सावधानी से अपने देश के हितों की रक्षा करते रहने वाला अमेरिका भी इस समय एक ऐसी स्थिति में फंस चुका है जहां से उसका सुरक्षित निकलना बड़ा कठिन होता जा रहा है ।
जहां तक भारत की बात है तो इसका वैश्विक चिंतन इसके नेताओं को सृष्टि प्रारंभ से ही विश्व मानस का धनी बनाता रहा है। जिसके पास जितना बड़ा दायित्व , वह उतना ही अधिक विनम्र और विश्व मानस का धनी होता जाता है। यह भारत की अनोखी परंपरा है कि पद के साथ यहां मद नहीं बढ़ता बल्कि सहजता और सरलता बढ़ती है। भारत का विश्व चिंतन और वैश्विक मानस संसार के लिए सदा लोक कल्याणकारी रहा है। ‘वसुधैव कुटुंबकम’ की संसार को सुख शांति देने वाली वाणी यदि कहीं सुनी जा सकती है तो वह केवल और केवल भारत के लोगों की जुबान से ही सुनी जा सकती है। यह अच्छी बात है कि भारत की प्रत्येक सरकार विश्व शांति के इस चिंतन और परंपरा के प्रति वचनबद्ध रही है। आज ही सरकार भी अपनी इस वचनबद्धता को भली प्रकार निभा रही है ।
जहां पद के साथ मद बढ़ता हुआ दिखता है, वहां तानाशाही आती है और जहां पद के साथ विनम्रता झलकती है वहां लोग व्यक्ति को देर तक भगवान के रूप में सम्मान देते हैं। नेपोलियन बोनापार्ट, हिटलर और मुसोलिनी जैसे तानाशाह जहां पद के साथ मद बढ़ाने वाले लोगों के उदाहरण हो सकते हैं वहीं भारत के श्रीराम और कृष्ण पद के साथ विनम्रता को ग्रहण करते चले जाने वाले शालीन और महान व्यक्तित्व इतिहास में भगवान के सम पूजनीय माने जाते हैं। भारत ने तानाशाही को कभी पसंद नहीं किया। चाहे वह कंस की तानाशाही रही हो या फिर नादिरशाही और औरंगजेब शाही रही हो। आज भी भारत किसी भी ऐसे कृत्य की निसंकोच निंदा करता है जो विश्व शांति के लिए खतरा पैदा करने वाला हो। भारत के मौलिक चिंतन में समाविष्ट सोच के कारण ही भारत का वर्तमान नेतृत्व और प्रधानमंत्री मोदी विश्व में सर्वाधिक सम्मान प्राप्त कर सके हैं।
श्री राम और श्री कृष्ण के पहले भगवान लग जाने का अभिप्राय है कि इस संसार को सबका ध्यान रखने वाले और सबको साथ लेकर चलने वाले शासकों की आवश्यकता है। जबकि नेपोलियन बोनापार्ट हिटलर, मुसोलिनी जैसे शासकों के नाम के साथ तानाशाह लग जाने से स्पष्ट हो जाता है कि लोगों को इनके नाम तक से दुर्गंध आती है। इसलिए ऐसे लोगों की संसार को आवश्यकता नहीं है। इन लोगों ने सत्ता मद में चूर होकर संसार को आग में झोंका है और हजारों व लाखों नहीं करोड़ों लोगों को अपनी सत्ता के नशे में आग में भूनकर रख दिया है। मुगलों और तुर्कों के द्वारा या फिर अंग्रेजो के द्वारा भी जिस प्रकार के अत्याचार किए गए वह भी मानवता के लिए कलंक ही हैं। उन्हें भी भारत कभी स्वीकार नहीं कर सकता।
आज के तथाकथित वैश्विक नेतृत्व ने 1945 में द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के पश्चात से अब तक संसार को कभी चैन से नहीं सोने दिया। हथियारों की दुकानें खोलीं और चुपचाप छोटे देशों को हथियारों की सप्लाई करके एक दूसरे पड़ोसी को लड़ाने का काम करते रहे । परमपिता परमेश्वर की बस्ती अर्थात इस धरती को इन्होंने खून बहाने की नगरी के रूप में प्रयोग करना आरंभ किया। इसलिए खून का व्यापार करने के लिए हथियारों की आपूर्ति करने लगे। जिनकी सोच में इस प्रकार की विकृति आ गई हो – उनसे कैसे अपेक्षा की जा सकती है कि वे विश्व शांति के पोषक हो सकते हैं ? यह कितनी बेतुकी बातें है कि हथियारों की दुकान खोल कर भी लोग विश्व शांति की बात करते हैं? उनकी बातों को जो लोग समझ रहे थे उनके मन मस्तिष्क में यह विचार भी कौंधता रहा है कि ऐसी मानसिकता के चलते कभी भी विश्व शांति स्थापित नहीं हो सकती।
सारे विश्व के लोग भली प्रकार जानते हैं कि सोवियत रूस और संयुक्त राष्ट्र अमेरिका की कभी किसी वैश्विक मुद्दे पर आम सहमति नहीं बनी। चांद पर पहला कदम किसने रखा ? – इस पर भी हमने इनको लड़ते देखा, भारत ,चीन और पाकिस्तान के मामलों में भी इनकी बदनीयती को हमने उजागर होते देखा है, इसके अतिरिक्त वियतनाम हो या फिर अफगानिस्तान उसमें भी हमने इनकी सोच और विकृत मानसिकता को स्पष्ट देखा है। कहीं पर भी ऐसा नहीं लगा कि यह अच्छी सोच के साथ मानवता के कल्याण के लिए काम करते हुए ईश्वर की एक दिव्य विभूति के रूप में हमारे सामने आए हों।
छोटे और कमजोर देशों को इन्होंने अपना पिछलग्गू बनाया और जब मन चाहा तब उनको या तो हथियार सप्लाई करके उनसे उन हथियारों की मनमानी रकम वसूल की या फिर उन्हें किसी और दूसरे ढंग से आर्थिक रूप से अपना गुलाम बनाया।
जो लोग दूसरों को गुलाम बनाकर या उनका खून चूसकर अपना जीवन यापन करते हैं, उन्हें कभी सुख शांति प्राप्त नहीं हो सकती।
जिन देशों को 1945 में संयुक्त राष्ट्र संघ के बड़े और प्रमुख नेता के रूप में अपनी मान्यता देकर संसार के लोगों ने उनसे अपेक्षा की थी कि वे संयुक्त राष्ट्र संघ के माध्यम से विश्व शांति की स्थापना करेंगे और ऐसी व्यवस्था करेंगे कि यह संसार फिर कभी युद्ध की आग में न झोंका जा सके, परंतु इनके सत्ता स्वार्थ और व्यक्तिगत स्वार्थ इतने अधिक उलझे रहे कि इन्होंने एक से बढ़कर एक ऐसे अपराध किए कि उन्हें मानवता कभी भी भुला नहीं सकती। हमारा मानना है कि ऐसी स्थिति के लिए आज की तथाकथित लोकतांत्रिक शासन प्रणाली भी बहुत अधिक उत्तरदाई है। क्योंकि इस शासन प्रणाली ने अनेकों मूर्खों को आगे बढ़ने का अवसर दिया और कितने ही सुसंस्कृत लोगों को पीछे धकेलने का पाप भी किया’।
जब मूर्खों को लोकतांत्रिक शासन प्रणाली के माध्यम से सत्ता प्राप्त हो गई तो ‘एक और नेक’ विश्व बनाने के स्थान पर इन्होंने देशों के टुकड़े कराने आरंभ कर दिए। एक दूसरे को नीचा दिखाकर और एक दूसरे को कमजोर करके ही इन्होंने यह समझ लिया कि हमने बहुत बड़ा युद्ध जीत लिया है। वास्तव में यह युद्ध जीतने की प्रक्रिया नहीं थी, बल्कि मानवता को बार बार पराजित और लज्जित करने की सोच ही थी, जो हमारे सामने बार-बार प्रकट होती रही।
1991 में रूस के टुकड़े-टुकड़े कराने वाले लोग आज युद्ध की विभीषिकाओं में उलझते जा रहे हैं, जिससे सारी मानवता के लिए खतरा पैदा हो चुका है। 1917 में साम्यवाद के सिद्धांत पर आगे बढ़ने वाले रूस को अमेरिका पहले दिन से ही नहीं चाहता था कि वह विश्व शक्ति बने । इसलिए अमेरिका ने अपनी दादागिरी चलानी आरंभ की। उधर कम्युनिस्ट रूस ने सारे संसार को अपनी लाल क्रांति के नीचे लाने के लिए अपनी ओर से दमखम ठोकना आरंभ किया।
जब 1985 में मिखाइल_गोर्बाचेव जब रूस के राष्ट्रपति बने तो उन्होंने आर्थिक क्रांति के माध्यम से अपने देश को फिर से खड़ा करना आरंभ किया। उस समय तक अफगानिस्तान की लड़ाई में सोवियत रूस की आर्थिक स्थिति बड़ी खराब हो चुकी थी। उसे फिर से पटरी पर लाना मिखाईल गोर्बाचोव के लिए एक बड़ी चुनौती थी। जिसे उन्होंने बड़ी हिम्मत के साथ स्वीकार किया। पर उनसे गलती यह हुई कि वह अपने देश को एक नहीं रख सके। जैसे भारत में मराठी, बंगाली, बिहारी, पंजाबी, कश्मीरी की पहचान को लोग पहले रखते हैं और अपने आपको भारतीय बाद में मानते हैं, वैसे ही सोवियत संघ की स्थिति उस समय थी। लोगों की इन विभिन्नताओं को जब पंख लगे तो उन पंखों में सोवियत संघ उड़कर टूट-फूट गया। मिखाईल गोर्बाचोव जिस देश को महान बनाने चले थे, वह इतनी छोटी सोच का शिकार हो गया कि अपने महान स्वरूप की भी रक्षा नहीं कर पाया।
उज़्बेकिस्तान, कज़ाकिस्तान, तजाकिस्तान और किर्गिज़स्तान, लताविया, एस्टोनिया, यूक्रेन, बेलारूस और जॉर्जिया जैसे देश हमें यदि आज विश्व मानचित्र पर दिखाई देते हैं तो यह वास्तव में सोवियत संघ के बिखरे हुए पंख हैं। आज रूस के राष्ट्रपति व्लादीमीर पुतिन जब अपने टूटे बिखरे पंखों को देखते हैं तो उनको लगता है कि जैसे एक देश की मौत हुई थी और आज उसे पुनर्जीवन मिलना चाहिए। उनकी इस अंतर वेदना को उनका राष्ट्रवाद बल्कि और स्पष्ट शब्दों में कहें तो उनका अतिवादी राष्ट्रवादी दृष्टिकोण समझा जा रहा है ।।कल को इसके क्या परिणाम होंगे ? – यह तो अभी नहीं कहा जा सकता, पर वह जिस स्थान पर बैठे हैं वहां से यह अच्छी प्रकार सोचा समझा जा सकता है कि जिन लोगों ने उनके देश के इन पंखों को बिखेरा था उनके प्रति उनकी सोच कैसी हो सकती है ?
जब आपकी सोच दूसरे को बिखेरने की हो तो समझ लो कि एक दिन आपको भी बिखेरा जाएगा या बिखरना पड़ेगा। इस बिखेरने या किसी को विखंडित करने के षड्यंत्र के खेल में आप जितने गहरे उतरते चले जाओगे उतना ही समझ लो कि तुम दलदल में जा रहे हो ना की ऊंचाई की ओर । आज के वैश्विक नेतृत्व की सबसे बड़ी दुर्बलता पूर्ण मूर्खता ही यह है कि यह दलदल में फंसते जाकर भी अपने आपको ऊंचाई की ओर बढ़ता हुआ बताते हैं।
भारत में ‘टुकड़े टुकड़े गैंग ‘ को जिस प्रकार हवा दी गई उसके पीछे भी ऐसे ही लोगों और सत्ता केंद्रों का हाथ रहा जो भारत को टुकड़े-टुकड़े कर देने में ही विश्वास रखते हैं। यूक्रेन के युद्ध को केवल एक सोच के साथ ही रोका जा सकता है कि दूसरों को फूल दोगे तो आपको फूल मिलेंगे और दूसरों को शूल दोगे तो आपको शूल मिलेंगे। फूल और शूल के इस खेल में से आपको कौन सा चुनना है ? – यह आपके विवेक पर निर्भर करता है पर विश्व शांति का तकाजा तो यही है कि फूलों की राजनीति करो, शूलों की नहीं । यदि शूलों की राजनीति करोगे तो भूलों के ऐसे फेर में उलझ जाओगे कि उससे फिर निकलना असंभव हो जाएगा और यही आज के विश्व नेतृत्व की सबसे बड़ी विडंबना बन चुकी है।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
मुख्य संपादक, उगता भारत